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मेजर रामास्वामी परमेश्वरन


       

       *मेजर रामास्वामी परमेश्वरन*

      (परमवीर चक्र से सम्मानित)


    *जन्म : 13 सितम्बर 1946*

    *शहादत  : 25 नवम्बर 1987*                                                                     *(उम्र 41) (श्रीलंका)*

निष्ठा : भारत 

सेवा/शाखा : भारतीय थलसेना

सेवा वर्ष : 1972-1987

उपाधि : मेजर

दस्ता : 8 महार बटालियन

(भारतीय शांति रक्षा सेना से सम्बद्ध)

युद्ध/झड़पें : श्रीलंका सिविल वॉर (ऑपेरशन पवन)

सम्मान : परमवीर चक्र

विदेश की जमीन पर भी भारत के सैनिकों ने अपने लहू से बहादुरी की दास्तान लिखी। श्रीलंका में 'ऑपरेशन पवन' के हीरो मेजर रामास्वामी परमेश्वरन के बारे में बात करेंगे।

    

💡 *हाइलाइट्स*

▪️मेजर रामास्वामी परमेश्वरन 1971 युद्ध में भारतीय सैनिकों की वीरता से प्रेरित थे

▪️इसी वजह से उन्होंने ओटीए में दाखिला लिया और बाद में सेना में कमीशन हुए

▪️तमिल भाषा की जानकारी होने की वजह से ऑपरेशन पवन के लिए उनको चुना गया था


                     भारत के सैनिकों ने न सिर्फ मातृभूमि की रक्षा के लिए सर्वोच्च बलिदान दिया है बल्कि जरूरत पड़ने पर दूसरे देशों में भी शांतिबहाली में अहम भूमिका निभाई है। विदेश की धरती पर शांति स्थापित करने के लिए कुर्बान होने वाले एक सैनिकों में मेजर रामास्वामी परमेश्वरन भी शामिल हैं। 13 सितंबर, 1946 को जन्मे परमेश्वरन वीरता की अद्भुत मिसाल कायम करते हुए आज ही के दिन यानी 25 नवंबर, 1987 को श्रीलंका में शहीद हुए थे। आइए आज उनकी बहादुरी की रोचक कहानी आपको बताते हैं...


💁🏻‍♂️ *परिचय*

मेजर रामास्वामी परमेश्वरन का जन्म 13 सितंबर, 1946 को बॉम्बे, महाराष्ट्र में हुआ था। उनके पिता का नाम के.एस.रामास्वामी और मां का नाम जानकी था। उन्होंने स्कूली पढ़ाई एसआईईएस (साउथ इंडियन एजुकेशन सोसायटी) हाई स्कूल, मुंबई से 1963 में की। उसके बाद उन्होंने 1968 में एसआईईएस कॉलेज से विज्ञान में ग्रैजुएशन किया।


👨‍✈️ *सेना में करियर*

मेजर रामास्वामी 1971 के युद्ध में पाकिस्तान के खिलाफ लड़ने वाले सैनिकों के साहस और बलिदान से प्रेरित थे। इसलिए उन्होंने 1971 में ऑफिसर्स ट्रेनिंग अकैडमी (ओटीए) जॉइन की। वहां से 16 जून, 1972 में वह पास हुए। इसके बाद भारतीय थल सेना की सबसे विख्यात 15 महार रेजिमेंट में वह कमिशंड ऑफसर के तौर पर नियुक्त हुए। वहां उन्होंने आठ सालों तक अपनी सेवा दी जिसके बाद उनको 5 महार में ले लिया गया।


🔮 *ख्याति*

15 महार और 5 महार बटालियन के दौरान मेजर परमेश्वरन ने पूर्वोत्तर के क्षेत्र में कई उग्रवाद निरोधी अभियानों में हिस्सा लिया। जल्द ही अपने मजबूत संकल्प और नेतृत्व के लिए वह मशहूर हो गए। परमेश्वरन के जवान उनको प्यार से 'परी साहिब' कहते थे। उनकी यूनिट ने जब कभी भी किसी चुनौतीपूर्ण मिशन को अंजाम दिया, उसमें वह आगे-आगे रहे। उनकी बहादुरी, साहस और दृढ़ निश्चय की चर्चा सबकी जुबान पर थी। इसका असर यह हुआ कि जब श्रीलंका में भारतीय थल सेना की ओर से ऑपरेशन पवन लॉन्च किया गया तो मेजर परमेश्वरन को 8 महार बटालियन में अपनी सेवा देने के लिए चुना गया। 8 महार ही पहली बटालियन थी जिसे 1987 में श्रीलंका भेजा गया था।


💥 *श्रीलंका में ऑपरेशन क्यों?*

मेजर परमेश्वरन की बहादुरी का किस्सा सुनाने से पहले आपको बता देना चाहते हैं कि श्रीलंका में ऑपरेशन की जरूरत क्यों पड़ी।


श्रीलंका में बहुसंख्यक समुदाय है सिंघली। कुछ तमिल भाषी लोग भी श्रीलंका में रहते हैं जो वहां अल्पसंख्यक हैं। श्रीलंका की सिंघली बहुल सरकार का रवैया अल्पसंख्यक तमिलों के साथ सही नहीं था। उनके हितों की अनदेखी की जाती थी और कुछ हद तक शोषण भी किया जाता था। इससे तमिल समुदाय के अंदर फैले गुस्से ने विद्रोह का रूप धारण कर लिया। उनलोगों ने बाद में स्वतंत्र तमिल ईलम राज्य की मांग को लेकर आंदोलन शुरू कर दिया। अलग तमिल ईलम राज्य की मांग को लेकर तमिलों का कई उग्रवादी संगठन बना था जिनमें से एक उग्रवादी संगठन लिब्रेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (एलटीटीई) था। एलटीटीई ने अलग राज्य के लिए सशस्त्र संघर्ष छेड़ दिया जिसके जवाब में श्रीलंका की सरकार ने तमिलों को निशाना बनाना शुरू कर दिया। जब तमिलों को निशाना बनाया जाने लगा तो तमिल नागरिक श्रीलंका छोड़कर आने लगे और तमिलनाडु में शरणार्थी के तौर पर बसने लगे। यह भारत के लिए आदर्श स्थिति नहीं थी। शरणार्थी समस्या से निपटने के लिए भारत और श्रीलंका के बीच 29 जुलाई, 1987 को एक समझौता हुआ जिसमें श्रीलंका के कई तमिल प्रतिनिधि भी शामिल हुए थे। इस समझौते के मुताबिक, भारत को अपनी इंडियन पीसकीपिंग फोर्स (आईपीकेएफ) को उग्रवादियों का सामना करने के लिए श्रीलंका भेजना था ताकि वहां शांति स्थापित हो और शरणार्थियों का भारत आना रुके।


🎯 *ऑपरेशन पवन*

इसी समझौते के तहत भारत की ओर से जो आईपीकेएफ को भेजा गया था, उसमें मेजर रामास्वामी परमेश्वरन भी शामिल थे। 24 नवंबर, 1987 को मेजर परमेश्वरन के नेतृत्व वाली बटालियन को सूचना मिली कि जाफना के उडुविल शहर के करीब कांतारोडाई नाम के गांव में किसी घर में बड़ी मात्रा में हथियार और गोलाबारूद उतरे हैं। मेजर परेश्वरन की टीम को वहां तलाशी अभियान की जिम्मेदारी सौंपी गई। वह गांव जहां हथियार और गोलाबारूद का जखीरा उतारा गया था, वह एलटीटीई का मजबूत गढ़ था। वे तलाशी के लिए पहुंचे और घर की घेरेबंदी कर दी। उन्होंने तय किया था कि सुबह में तलाशी ली जाएगी। अगले दिन जब वे तलाशी लेना शुरू किया तो एलटीटीई के उग्रवादियों ने उन पर हमला कर दिया। हमले की परवाह किए बगैर मेजर परमेश्वरन और करीब 30 सैनिकों की उनकी टीम घर की तलाशी के लिए आगे बढ़ी। उन पर चारों तरफ से गोलियों की बारिश होने लगी।


उग्रवादी एके-47, ग्रेनेड्स, गोलाबारूद और खतरनाक हेवी मशीन गन का इस्तेमाल कर रहे थे। एलटीटीई के काडरों ने उस इलाके में बारूदी सुरंग भी बिछा दी थी जिससे उस इलाके में सैनिक नहीं घुस सकते थे। ऐसे में मेजर परमेश्वरन ने एलटीटीई को उनकी ही चाल से मात देने की योजना बनाई। आपको बता दें कि एलटीटीई के उग्रवादी एम्बुश यानी घात लगाकर हमले करने में माहिर थे। मेजर परमेश्वरन ने अपने 10 जवानों को लिया और अपनी योजना को हकीकत का रूप देने चले गए। चारों तरफ से हो रही भारी गोलीबारी के बीच बगैर डरे हुए मेजर परमेश्वरन पेट के बल नारियल की झाड़ी की ओर बढ़े जहां से एलटीटीई के उग्रवादियों की ओर से घात लगाकर फायरिंग की जा रही थी।


इस तरह से मेजर परमेश्वरन ने उग्रवादियों को चारों तरफ से घेर लिया और उग्रवादियों के लिए यह बहुत चौंकाने वाली बात थी। लेकिन उसी वक्त नारियल के पेड़ पर बैठे एक स्नाइपर ने मशीन गन से हमला कर दिया और गोली मेजर परमेश्वरन की बायीं कलाई में लगी। उनका बायां हाथ पूरी तरह से बेकार हो गया। इससे बेपरवाह वह अपने करीब खड़े उग्रवादी का हथियार झपटा और उसे मार गिराया। उतने में दूसरी गोली उनके छाती में आ लगी। इस हमले में वह शहीद हो गए।


उनकी वीरता के सम्मान में मरणोपरांत उनको परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।

               

       

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