*तेज बहादुर सप्रू* (प्रसिद्ध वकील, राजनेता और समाज सुधारक) इन्होने आजाद हिन्द फौज के लिए कानूनी लड़ाई भी लड़ी.
ये गांधी इरविन पैक्ट में मध्यस्थ भी बने तथा अपने करियर में बड़े बड़े पदों पर सेवाएं दी जिनमें वायसराय की कानूनी परिषद के अहम सदस्य भी रहे.
*जन्म : 8 दिसम्बर 1875*
(अलीगढ)
पहचान : प्रसिद्ध वकील, राजनेता और समाज सुधारक
भाषाएँ : उर्दू , अरबी, पर्सियन, हिंदी, अंग्रेजी
*मृत्यु : 20 जनवरी 1949*
तेज बहादुर का जन्म 8 दिसम्बर 1875 को अलीगढ़ के कश्मीरी ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनके दादा अलीगढ़ में उप जिलाधिकारी थे.
तेज बहादुर ने मथुरा में अपनी प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद आगे अध्ययन के लिए आगरा कॉलेज में प्रवेश लिया. उन्होंने बी ए ओनर्स तथा एम ए में विश्वविद्यालय में सर्वोच्च अंक प्राप्त किया.
उसके बाद 1895 में उन्होंने कानून में स्नातक की डिग्री प्राप्त की और मुरादाबाद में जिला कचहरी में वकालत प्रारम्भ की. 3 वर्ष बाद वह इलाहबाद उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे.
तेज बहादुर ने इस दौरान अपना अध्ययन भी जारी रखा. 1901 में उन्होंने मास्टर ऑफ़ लॉ की डिग्री प्राप्त की व उसके बाद डायरेक्ट की भी डिग्री प्राप्त कर ली. उस समय तक वे एक मेधावी वकील के रूप में माने जाते थे.
तेज बहादुर सप्रू का राजनैतिक झुकाव बहुत शीघ्र ही अल्प आयु 19 वर्ष की अवस्था में हो गया था. 1882 में उन्होंने कांग्रेस अधिवेशन इलाहाबाद में भाग लिया तथा सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की वाकपटुता से बहुत प्रभावित हुए.
1896 में वह कांग्रेस के प्रति निधि चुने गये और 1900 के लाहौर अधिवेशन में शिक्षा समिति में चुने गये और उनके साथ दास व मालवीय भी शिक्षा समिति के लिए चुने गये.
सप्रू उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी में 9 वर्षों तक सेवारत रहे. सप्रू, गोपाल कृष्ण गोखले से विशेष रूप से प्रभावित हुए थे.जब उनका 1905 में बनारस के कांग्रेस अधिवेशन के सम्पर्क हुआ.
वहां पर दोनों ने हिंसा के खिलाफ समर्थन किया व संवैधानिक नियमों के अंतर्गत किसी तरह का विरोध करने का समर्थन किया. वे 1906 से 1917 तक अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य भी थे.
कांग्रेस कमेटी पर कांटे के चुनाव में 1916 में सप्रू ब्रिटिश विधान परिषद् के लिए चुने गये. राष्ट्रीय मांगों के अनुरूप संवैधानिक पुनर्स्थापना के लिए बनाए गये प्रारूप में सप्रू के साथ साथ जिन्ना व मालवीय के सहयोग से बनाये गये प्रारूप को 19 सदस्यों का स्मारक पत्र के रूप में या नाम से जाना गया.
मोटेग्यू चेम्सफोर्ड रिपोर्ट 1918 में प्रकाशित हुआ और क्रांतिकारी समूह के साथ इस संबंध में वैचारिक मतभेद होने के कारण उन्होंने कांग्रेस से अपना नाम वापिस ले लिया.
वह 1919 में उदारवादी पार्टी में सम्मिलित हो गये और कार्यकारिणी समिति के सदस्य नियुक्त किये गये. इस समिति ने कुछ विषयों को विशेष रूप से राज्यपाल व उसके मंत्रियों को सौपना था और वे सभी पूर्णरूपेण राज्यपाल के लिए आरक्षित थे. एक बार पुनः रिपोर्ट बनाने के सम्बन्ध में उनका योगदान महत्वपूर्ण व अनमोल था.
उनकी कार्यशैली को देखते हुए उन्हें वायसराय की प्रशासनिक परिषद में कानूनी सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया. इस पद पर रहते हुए सप्रू ने कुछ प्रेस नियमों का खंडन किया, जैसे 1910 का प्रेस अधिनियम तथा 1908 के समाचार पत्र अधिनियम.
यह सप्रू की महान देन है कि 1908 के अपराधिक कानून के संशोधित अधिनियम को कानून की पुस्तक से हटा दिया गया. इन सब के बावजूद सप्रू कुछ घटनाओं से संतुष्ट नहीं थे और 1922 में उन्होंने त्याग पत्र दे दिया, यदपि कि 1923 सरकार ने उन्हें नाईटहुड की उपाधि से पुरस्कृत था.
तेज बहादुर ने 1923 में लंदन में साम्राज्यवाद सम्मेलन में भारत सरकार का प्रतिनिधित्व किया और उन्होंने वहां पर समानता हेतु अपनी आवाज बुलंद की.
1929 में सरकार द्वारा एक पुनर्स्थापित जांच समिति की स्थापना की ताकि 1919 के भारत सर कार के अधिनियम संशोधन मांग के प्रति विचार विमर्श किया जा सके. अल्प संख्यक रिपोर्ट के प्रारूप को तैयार करने में सप्रू की भूमिका मुख्य रूप से थी जिसमें जिन्ना के हस्ताक्षर के साथ प्रारूपित किया गया था.
इस रिपोर्ट में पूर्णरूपेण केंद्रीय सरकार के उतरदायित्व के साथ पूर्णरूपेण प्रांतीय स्वायतशासन का समर्थन किया गया था. इसके विपरीत बहुसंख्यक रिपोर्ट में सामाजिक स्थिति के स्तर को उसी रूप में बरकरार रखने का समर्थन किया गया था.
जब साइमन कमिशन को सभी समस्याओं पर विचार करने के लिए लागू किया गया तब तेज बहादुर सप्रू ने उसका बहिष्कार करने के लिए एक जोरदार आव्हान किया.
मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में अखिल दल सम्मेलन में 1928 में एक समिति की स्थापना की गई और तत्कालीन चुनौतियों से सामना करने के लिए एक संवैधानिक प्रारूप तैयार किया गया.
समिति के रिपोर्ट का विस्तृत प्रारूप सप्रू द्वारा तैयार किया गया था और एक संयुक्त नीति का प्रस्ताव किया गया जिसके साथ ब्रिटिश सरकार का भी सहयोग हो.
इसके परिणामस्वरूप 1930 में प्रथम गोलमेज सम्मेलन का आयोजन किया गया. इस दौरान 1929 में कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पास किया.
दुर्भाग्य से सप्रू प्रयत्नों के बावजूद कांग्रेस को सम्मेलन में सम्मिलित करने के लिए प्रोत्साहित नहीं कर पाए और कांग्रेस ने सम्मेलन का बहिष्कार कर दिया. अखिल भारतीय राज्य संघ के आदर्शों के अनुरूप एक केंद्रीय सरकार के गठन की मांग को लेकर पूरे भारतवासियों ने सम्पूर्ण समर्थन दिया.
तेज बहादुर सप्रू को स्वयं प्रधानमंत्री मैक डोनाल्ड और ब्रिटिश मजदूर पार्टी की तरफ से भी पूर्ण समर्थन मिला और उसके तद नुसार गांधी को 1931 के द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए मना किया गया.
दुर्भाग्य से लेबर पार्टी 1931 के आम चुनाव में हार गई. बिलिंग्डन की जगह इरविन वायसराय के पद पर नियुक्त किये गये. प्रशासनिक सर्किल में इस तरह के परिवर्तन के कारण दूसरे व तीसरे गोलमेज सम्मेलन में संतुष्टिपूर्णy कदम नाम मात्र का रहा, जिसके परिणामस्वरूप भारत सरकार एक्ट 1935 को भारत में कोई विशेष समर्थन प्राप्त नहीं हो सका.
सप्रू ने लिबरल फेडरेशन से त्याग पत्र दे दिया और स्वतंत्र रूप से भूमिका निभाने लगे. वह 1934 में प्रिवी काउंसिल के एक सदस्य के रूप में नियुक्त किये गये और उसी वर्ष बेरोजगार संयुक्त राज्य समिति के सभापति नियुक्त किये गये.
इस समिति में 7 प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले व्यक्ति सदस्य थे. जिन्होंने अपनी रिपोर्ट में व्यावसायिक शिक्षा, बेरोजगार दफ्तर स्थापना करना, आधुनिक वातावरण के अनुरूप शिक्षा को बढ़ावा देना तथा अध्यापकों को उनके परिश्रम के अनुसार पारितोषिक देना आदि को विशाल रूप में विकसित करने के लिए प्रस्तावित समर्थन किया.
बाद में उनके जीवन का शेष भाग अस्वस्थता बीमारियों से जूझते हुए बीता. यदपि उन्होंने एक एकांत जीवन जीने का सोच लिया था. फिर भी 1941 में वे एक अराजनैतिक पार्टी सभा की अध्यक्षता करते रहे.
इसमें कांग्रेस व मुस्लिम लीग को भाग लेने के लिए पूर्णतया मनाही थी. इस सभा की मुख्य मांगे थी. भारतीयों के बीच अनेकता में एकता लाना, सत्याग्रह से अलग रहना तथा संसद संस्थान का बहिष्कार करना आदि.
देश के विभाजन के लिए शीघ्र कार्यवाहियां व घटनाएं घटित होने लगी. यदपि तेज बहादुर सप्रू ने अपनी तरफ से पूरा प्रयास किया कि इस विभाजन को रोका जा सके, पर मुस्लिम लीग के नेता जिन्ना की जिद के सामने किसी का कोई बस नहीं चल पाया.
सप्रू हिन्दू लॉ रीफोर्म के प्रबल समर्थक थे. तथा उन्होंने उत्तर प्रदेश व बिहार में जमीदारी प्रथा के चलते असामियों द्वारा उत्पीड़न के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद की. वह विश्व व्यापार के भारतीय परिषद के अध्यक्ष नियुक्त किये गये. जिसके प्रतिष्ठापन समारोह में 1943 में उन्होंने अध्यक्षता भी की.
तेज बहादुर सप्रू उर्दू व पर्सियन के महान विद्वान् भी थे. ऐसा कहा जाता हैं कि एक हाईकोर्ट के झगड़े के दौरान एक मौलिक अरबी पर्सियन अभिलेख का अनुवाद करते हुए उन्होंने जिन्ना को पीछे छोड़ दिया था.
वह घटना इतनी अद्भुत व विलक्ष्ण थी कि अगले दिन एक दैनिक समाचार के मुख्य पृष्ट पर शीर्षक मौलाना सप्रू ने अरबी पर्शियन का अनुवाद पंडित जिन्ना के लिए किया के नाम से एक लेख प्रकाशित हुआ!
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