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जननायक टंट्या मामा भिल


        *भारतीय राॕबीन हुड*
*जननायक टंट्या मामा भिल*

       *जन्म : 1840/1842*
(पूर्व निमार , मध्य प्रदेश , भारत)
   *फांसी : 19 अक्टूबर 1890*
    (जबलपूर , मध्य प्रदेश , भारत)

नाम : संतती भिल
प्रसिद्ध : प्रथम स्वातंत्र्य युद्ध
               खंडवा जिले की पंधाना तहसील के बडदा में 1842 में भाऊसिंह के यहाँ एक बालक ने जन्म लिया, जो अन्य बच्चो से दुबला-पतला था | निमाड में ज्वार के पौधे को सूखने के बाद लंबा, ऊँचा, पतला होने पर ‘तंटा’ कहते है इसीलिए ‘टंट्या’ कहकर पुकारा जाने लगा |
टंट्या की माँ बचपन में उसे अकेला छोड़कर स्वर्ग सिधार गई | भाऊसिंह ने बच्चे के लालन-पालन के लिए दूसरी शादी भी नहीं की | पिता ने टंट्या को लाठी-गोफन व तीर-कमान चलाने का प्रशिक्षण दिया | टंट्या ने धर्नुविद्या में दक्षता हासिल कर ली, लाठी चलाने और गोफन कला में भी महारत प्राप्त कर ली | युवावस्था में उसे पारिवारिक बंधनों में बांध दिया गया | कागजबाई से उनका विवाह कराकर पिता ने खेती-बाड़ी की जिम्मेदारी उसे सौप दी | टंट्या की आयु तीस बरस की हो चली थी, वह गाँव में सबका दुलारा था, युवाओ का अघोषित नायक था | उसका व्यवहार कुशलता और विन्रमता ने उसे लोकप्रिय बना दिया |
        बंजर भूमि में फसल वर्षा पर निर्भर होती है | प्राकृतिक प्रकोप, अवर्षा से बुरे दिन भी देखना पड़ते है | अन्नदाता किसान भी भूखा रहने को मजबूर हो जाता है | टंट्या को भी ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ा | पिता भी ऐसे समय नहीं रहे, भूमि का चार वर्ष का लगान भी बकाया हो गया | मालगुजार ने उसे भूमि से बेदखल कर दिया | आपके सम्मुख खाने की दिक्कत हो गयी  | ऐसे वक्त उसे ‘पोखर’ की याद आई जहा उनके पिता भऊसिंह के मित्र शिवा पाटिल रहते थे और जिन्होंने सम्मिलित रूप से जमीन खरीदी थी, जिसकी देखरेख शिवा पाटिल करते थे | शिवा पाटिल ने टंट्या का आदर-सत्कार तो किया परन्तु भूमि पर उसके अधिकार को मंजूर नहीं किया | शिवा के मुकरने के बाद टंट्या बडदा पंहुचा | मकान, बेलगाडी बेचकर कुछ नकद राशि जुटाई | खंडवा न्यायालय में शिवा की धोखाधड़ी के खिलाफ कार्यवाही की, इसमें भी आपको पराजित होना पड़ा | झूठे साक्ष्यो के आधार पर शिवा की विजय हुई |
          टंट्या ने रोद्र रूप धारण कर लिया | लाठी से शिवा के नौकरों की पिटाई करके खेत पर कब्ज़ा कर लिया | उसने पुलिस में टंट्या के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई | पुलिस ने गिरफ्तार करके मुकदमा कायम किया, जिसमे उसे एक वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई गयी | जेल में बंदियों के साथ अमानुषिक व्यवहार होता देख टंट्या विक्षुब्ध हो गया, उसके मन में विद्रोह की भावना बलवती होने लगी| जेल से छूटने के बाद पोखर में मजदूरी करके जीवन निर्वाह करने लगा, किन्तु वहा भी उसे चैन से जीने नहीं दिया गया | कोई भी घटना घटती तो टंट्या को उसमे फसा देने षड्यंत्र रचा जाता | पोखर के बजाय उसने हीरापुर में अपना डेरा जमाया, वहा चोरी के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया | बिजानिया भील और टंट्या ने तलवार से कई सिपाहियों को घायल कर दिया, इस प्रकरण में उसे तीन माह की सजा हुई | बडदा-पोखर के बाद झिरन्या गाँव (खरगोन) में टंट्या रहने लगा | एक अपराधी ने चोरी के मामले में उसका नाम ले लिया, फिर से पुलिस उसे खोजने लगी | टंट्या ने बदला लेने का संकल्प लिया, उसने साहुकारो-मालगुजारो से पीड़ित लोगो का गिरोह बनाया जो लूटपाट और डाका डालता था | 30 जून, 1876 को हिम्मतसिंह जमीदार के यहाँ धावा बोला गया, हिम्मतसिंह को गोली मार दी गई | टंट्या को षडयंत्र में फसाकर उसके विश्वासपात्र साथियों के साथ गिरफ्तार करवा दिया गया| 20 नवम्बर, 1878 को खंडवा की अदालत में दौलिया और बिजौनिया के साथ पेश किया गया |
          टंट्या की शोहरत उस समय बुलंदी पर थी, उसे देखने के लिए सैकडो भील जमा हो गए | हिम्मत पटेल ने टंट्या के खिलाफ गवाही दी, जिसे कोर्ट में टंट्या ने धमकाया | उसे खंडवा जेल में रखा गया, जहा से उसने फरार होने की योजना बनाई | 24 नवम्बर, 1878 की रात में बीस फीट ऊँची दीवार फांदकर वह 12 साथियों के साथ जंगल की दिशा में भाग गया |
          टंट्या एक गाँव से दूसरे गाँव घूमता रहा | लोगो के सुख-दुःख में सहयोगी बनने लगा | गरीबो की सहायता करना, गरीब कन्याओ की शादी कराना, निर्धन व असहाय लोगो की मदद करने से ‘टंट्या मामा’ सबका प्रिय बन गया | वह शोषित-पीड़ित भीलो का रहनुमा बन गया, उसकी पूजा होने लगी |
        राजा की तरह उसका सम्मान होने लगा | सेवा और परोपकार की भावना में उसे ‘जननायक’ बना दिया | उसकी शक्ति निरंतर बढ़ने लगी | युवाओ को उसने संगठित करना शुरू कर दिया | टंट्या का नाम सुनकर साहूकार कांपने लगे |
         पुलिस ने टंट्या को गिरफ्तार करने के लिए विशेष दस्ता बनाया, जिसमे दक्ष पुलिस वालो को रखा गया | ‘टंट्या पुलिस’ ने कई जगह छापे मारे, किन्तु टंट्या पकड़ में नहीं आया | सन 1880 में टंट्या ने अंग्रेजी हुकूमत को हिला दिया, जब उसने चौबीस गाँवों में डाके डाले, भिन्न-भिन्न दिशाओं और गाँवों में डाके डाले जाने से टंट्या की प्रसिद्धि चमत्कारी महापुरुष की तरह हो गई |
         डाके से प्राप्त जेवर, अनाज, कपडे वह गरीबो को दे देता था | पुलिस ने टंट्या के गिरोह को खत्म करने के लिए उसके सहयोगी बिजानिया को पकडकर फांसी दे दी, जिससे टंट्या की ताकत घट गयी |
              टंट्या को गिरफ्तार करने के लिए इश्तिहार छापे गए, जिसमे इनाम घोषित किया गया | टंट्या को पकडने के लिए इंग्लेंड से आए नामी पुलिस अफसर की नाक टंट्या ने काट दी | सन 1888 में टंट्या पुलिस और मालवा भील करपस भूपाल पल्टन ने उसके विरुद्ध सयुक्त अभियान चलाया | टंट्या का प्रभाव मध्यप्रांत, सी-पी क्षेत्र, खानदेश, होशंगाबाद, बैतुल, महाराष्ट्र के पर्वतीय क्षेत्रो के अलावा मालवा के पथरी क्षेत्र तक फ़ैल गया | टंट्या ने अकाल से पीड़ित लोगो को सरकारी रेलगाड़ी से ले जाया जा रहा अनाज लूटकर बटवाया | टंट्या मामा के रहते कोई गरीब भूखा नहीं सोयेगा, यह विश्वास भीलो में पैदा हो गया था |
           टंट्या ने अपने बागी जीवन में लगभग चार सौ डाके डाले और लुट का माल हजारों परिवारों में वितरित किया | टंट्या अनावश्यक हत्या का प्रबल विरोधी था | जो विश्वासघात करते थे, उनकी नाक काटकर दंड देता था | टंट्या का कोप से कुपित अंग्रेजो और होलकर सरकार ने निमाड में विशेष अधिकारियो को पदस्थ किया | जाबाज, बहादुर साथियों-बिजानिया, दौलिया, मोडिया, हिरिया के न रहने से टंट्या का गिरोह कमजोर हो गया |
                पुलिस द्वारा चारो तरफ से उसकी घेराबंदी की गई | भूखे-प्यासे रहकर उसे जंगलो में भागना पड़ा | कई दिनों तक उसे अन्न का एक दाना भी नहीं मिला | जंगली फलो से गुजर करना पड़ा | टंट्या ने इस स्थिति से उबरने के लिए बनेर के गणपतसिंह से संपर्क साधा जिसने उसकी मुलाकात मेजर ईश्वरी प्रसाद से पातालपानी (महू) के जंगल में कराई, किन्तु कोई बात नहीं बनी |
                 11 अगस्त, 1896 को श्रावणमास की पूर्णिमा के पावन पर्व पर जिस दिन रक्षाबंधन मनाया जाता है, गणपत ने अपनी पत्नी से राखी बंधवाने का टंट्या से आग्रह किया | टंट्या अपने छह साथियों के साथ गणपत के घर बनेर गया | आवभगत करके गणपत साथियों को आँगन में बैठाकर टंट्या को घर में ले गया, जहा पहले से ही मौजूद सिपाहियों ने निहत्थे टंट्या को दबोच लिया | खतरे का आभास पाकर साथी गोलिया चलाकर जंगल में भाग गए | टंट्या को हथकड़ीयो और बेड़ियों में जकड दिया गया | कड़े पहरे में उसे खंडवा से इंदौर होते हुए जबलपुर भेजा गया | जहा-जहा टंट्या को ले जाया गया, उसे देखने के लिए अपार जनसमूह उमडा | 19 अक्टूम्बर, 1889 को टंट्या को फांसी की सजा सुनाई गयी |
                     1857 की क्रांति के बाद टंट्या भील अंग्रेजो को चुनौती देने वाला ऐसा जननायक था, जिसने अंग्रेजी सत्ता को ललकारा | पीडितो-शोषितों का यह मसीहा मालवा-निमाड में लोक देवता की तरह आराध्य बना, जिसकी बहादुरी के किस्से हजारों लोगो की जुबान पर थे | बारह वर्षों तक भीलो के एकछत्र सेनानायक टंट्या के कारनामे उस वक्त के अखबारों की सुर्खिया होते थे | गरीबो को जुल्म से बचाने वाले जननायक टंट्या का शव उसके परिजनों को सौपने से भी अंग्रेज डरते थे | टंट्या को फांसी दी गयी या गोली मारी गई, इसका कोई सरकारी प्रमाण नहीं है, किन्तु जनश्रुति है कि पातालपानी के जंगल में उसे गोली मारकर फेक दिया गया था | जहा पर इस ‘वीर पुरुष’ की समाधि बनी हुई है वहा से गुजरने वाली ट्रेन रूककर सलामी देती है | सैकडो वर्षों बाद भी ‘टंट्या भील’ का नाम श्रद्धा से लिया जाता है | अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ बगावत करने वाले टंट्या का नाम इतिहास के पृष्ठों में स्वर्णाक्षरो से अंकित है |

जय आदिवासी भील नायक टंट्या मामा की ....!!!

      

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