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समाजकारण /राजकारण

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चन्दन सिंह गढ़वाली..

                                             

          

           *चन्दन सिंह गढ़वाली*  

                  (क्रांतिकारी)


              *जन्म : 1891*

      (पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखण्ड)

          *मृत्यु : 1 अक्टूबर, 1979*

नागरिकता : भारतीय

आंदोलन : सविनय अवज्ञा आन्दोलन, नमक सत्याग्रह, भारत छोड़ो आन्दोलन

अन्य जानकारी : आन्दोलन के दौरान जब अंग्रेज़ अधिकारियों ने अहिंसक प्रदर्शन कर रहे आन्दोलनकारियों पर गोलियाँ चलाने की आज्ञा दी, तब चन्दन सिंह ने गोली चलाने से इंकार कर दिया।

चन्दन सिंह गढ़वाली  भारत के क्रांतिकारियों में से एक थे। चन्दन सिंह 'गढ़वाल रेजीमेंट' के प्रमुख थे। 'सविनय अवज्ञा आन्दोलन' के दौरान जब उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त में अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ाँ के नेतृत्व में ब्रिटिश विरोधी संघर्ष ज़ोरों पर था, तो उसके दमन हेतु ब्रिटिश सरकार ने चन्दन सिंह की 'गढ़वाल रेजीमेंट' को नियुक्त किया। आन्दोलन के दौरान जब अंग्रेज़ अधिकारियों ने अहिंसक प्रदर्शन कर रहे आन्दोलनकारियों पर गोलियाँ चलाने की आज्ञा दी, तब चन्दन सिंह ने गोली चलाने से इंकार कर दिया। इस पर उन्हें पदच्युत करके दण्डित किया गया।


💁🏻‍♂️ *जन्म तथा शिक्षा*

चन्दन सिंह का जन्म उत्तराखण्ड के पौड़ी गढ़वाल ज़िले में पट्टी चौथन के गाँव रोनशेहरा में सन 1891 में हुआ था। इनके घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। ग़रीबी के कारण वे प्राथमिक स्तर से अधिक शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाये थे। सन 1914 में चन्दन सिंह लैंसडाउन में स्थित गढ़वाली रेजीमेन्ट केन्द्र में भर्ती हो गए।


🎯 *राष्ट्रीयता का भावना*

चन्दन सिंह ने मेसोपोटामिया और फ्राँस में कार्रवाई देखी। उन्होंने 1921 तक उत्तर पश्चिमी प्रान्त की देख-रेख की। चन्दन सिंह में राष्ट्रीय भावना भी कूट-कूट कर भरी थी। उनकी इस देश भक्ति का प्रमाण 1930 के 'नमक सत्याग्रह आन्दोलन' में देखने को मिला। चन्दन सिंह की बटालियन '218वीं रॉयल गढ़वाल राइफल्स' पेशावर पर तैनात कर दी गयी थी। 23 अप्रैल को कैप्टन रिकेट अपने 72 सैनिकों के साथ पेशावर के क़िस्सा ख़ान क्षेत्र तक फैल गये। निहत्थे पठानों की दुकानों को घेर लिया गया। कैप्टेन रिकेट ने भीड़ को तितर-बितर करने का आदेश दिया और बाज़ार ख़ाली करा दिया। लेकिन उसके इस आदेश पर अमल नहीं किया गया।


⛓️ *जेल यात्रा*

कैप्टन रिकेट ने गढ़वालियों पर गोली चलाने का आदेश दिया। चन्दन सिंह ने रिकेट के इस आदेश पर दख़ल दिया और चिल्लाकर कहा कि- "गढ़वाली गोली नहीं चलाएँगें"। गढ़वालियों ने चन्दन सिंह के आदेश का पालन किया, जिस पर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। चन्दन सिंह को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई। सज़ा पूरी करने के बाद चन्दन सिंह को 1941 में रिहा कर दिया गया उन्होंने 1942 के 'भारत छोड़ो आन्दोलन' में हिस्सा लिया। आन्दोलन में सक्रियता के कारण उन्हें गिरफ़्तार कर जेल भेज दिया गया।


🪔 *निधन*

भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात् चन्दन सिंह कम्युनिस्ट बन गये। उन्हें 1948 में जेल हुई। अपनी रिहाई के पश्चात् उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन आम जनता की सेवा में बिता दिया। वे 1 अक्टूबर, 1979 को 88 वर्ष की अवस्था में इस दुनिया से चले गये।

        

गोपाल सेन

 

                                                                                                                                                                          

                *गोपाल सेन*  

(बंगाल वालिंटियर्स के रहस्य बचाने को गोपाल सेन ने दी अंग्रेजों के हाथों जान)

         *मृत्यु : 29 सितंबर, 1944*


अन्य जानकारी : बर्मा में आजाद हिंद फौज सक्रिय थी, गोपाल सेन को उससे संपर्क स्थापित करने में सफलता मिल गई थी।


           गोपाल सेन पश्चिम बंगाल के प्रसिद्ध क्रांतिकारी थे।


💁🏻‍♂️ *परिचय*

गोपाल सेन क्रांतिकारी दल के एक सक्रिय सदस्य थे और जिन दिनों बर्मा में आज़ाद हिन्द फ़ौज सक्रिय थी, गोपाल सेन को उससे संपर्क स्थापित करने में सफलता मिल गई थी। वह किसी बड़े षड़यंत्र की संरचना कर रहे थे; लेकिन पुलिस को उनकी गतिविधियों का पता चल गया।


🪔 *मृत्यु*

एक दिन कलकत्ता स्थित गोपाल सेन के मकान पर छापा मारा गया। वह छत के ऊपर पहुँच गए। पुलिस भी छत पर पहुँच गई। पुलिस ने गोपाल सेन को जीवित गिरफ्तार करना चाहा; पर वह उन लोगों के लिए अकेले ही भारी पड़ रहे थे। आखिर पुलिस के कुछ लोगों ने उन्हे पकड़कर तीन मंजिल मकान की छत से नीचे सड़क पर फेंक दिया। यह घटना 29 सितंबर, 1944 की है। उसी दिन गोपाल सेन की मृत्यु हो गई।

                                                                                                                                                               

      

भूपेंद्रनाथ दत्त

                                               


        

                *भूपेंद्रनाथ दत्त* 

    (क्रांतिकारी, लेखक, समाजशास्त्री) 

           *जन्म : 4 सितंबर 1880*

             ( कोलकाता)

           *मृत्यु : 26 दिसंबर 1961*

            (कोलकाता)

नागरिकता : भारतीय

प्रसिद्धि : क्रांतिकारी, लेखक तथा समाजशास्त्री

धर्म : हिंदू

शिक्षा : एम.ए., पी.एच.डी. की डिग्री

अन्य जानकारी : वे जाति-पांत, छुआछूत और महिलाओं के प्रति भेदभाव के विरोधी थे।


भूपेंद्रनाथ दत्त भारत के स्वतंत्रता संग्राम के प्रसिद्ध क्रांतिकारी, लेखक तथा समाजशास्त्री थे। ये स्वामी विवेकानंद के भाई थे। भूपेंद्रनाथ दत्त युवाकाल में 'युगांतर आन्दोलन' से नजदीकी से जुड़े थे। अपनी गिरफ्तारी (सन 1907) तक वे 'युगांतर पत्रिका' के सम्पादक थे। भूपेंद्रनाथ दो बार 'अखिल भारतीय श्रमिक संघ' के अध्यक्ष भी रहे।


💁🏻‍♂️ *जन्म एवं परिचय*

भूपेंद्रनाथ दत्त का जन्म 4 सितंबर, 1880 ई. को कोलकाता में हुआ था। इनके परिवार का बंगाल के प्रबुद्ध व्यक्तियों से निकट का संबंध था। भूपेंद्रनाथ की आरंभिक शिक्षा ईश्वर चंद्र विद्यासागर द्वारा स्थापित विद्यालय में हुई थी। उन्होंने राजनीतिक गतिविधियों के साथ अपना अध्ययन भी जारी रखा और अमेरिका से एम.ए. और जर्मनी से पी.एच.डी. की डिग्री प्राप्त की।


💥 *क्रांतिकारी गतिविधियां*

भूपेंद्रनाथ दत्त शीघ्र ही क्रांतिकारियों के संपर्क में आ गए और बंगाल क्रांतिकारी दल के मुख्य पत्र 'युगांतर' के संपादक बने। 1902 में उन्हें राजद्रोह के अपराध में गिरफ्तार करके एक वर्ष कैद की सजा दे दी गई। जेल से छूटने पर जब भूपेंद्रनाथ दत्त को 'अलीपुर बम कांड' में फंसाने की तैयारी हो रही थी, वे देश से बाहर अमेरिका चले गए। प्रथम विश्वयुद्ध के समय भूपेंद्रनाथ जर्मनी में थे। उन्होंने अमेरिका में स्थापित 'गदर पार्टी' से भी संबंध रखा। 1925 में वे भारत आए। भूपेंद्रनाथ दत्त को यह देखकर दु:ख हुआ कि स्वयं को मार्क्सवादी कहने वाले लोग भारत के स्वतंत्रता संग्राम का विरोध कर रहे हैं।


♦️ *समाज सुधारक*

भूपेंद्रनाथ दत्त कांग्रेस में सम्मिलित हो गए। 1930 की कराची कांग्रेस में किसानों, मजदूरों के हित संबंधी प्रस्ताव को स्वीकार कराने में उनका बड़ा हाथ था। उसके बाद उन्होंने अपना ध्यान श्रमिकों को संगठित करने पर लगाया। भूपेंद्रनाथ दो बार अखिल भारतीय श्रमिक संघ के अध्यक्ष भी रहे। समाज सुधार के कामों में भी भूपेंद्रनाथ दत्त बराबर भाग लेते रहे। वे जाति-पांत, छुआछूत और महिलाओं के प्रति भेदभाव के विरोधी थे।


✍️ *लेखन कार्य*

भूपेंद्रनाथ दत्त अच्छे लेखक थे। उनकी लिखी हुई कुछ प्रसिद्ध पुस्तकें निम्नलिखित हैं-


'डाइलेक्टिक्स ऑफ़ हिंदू रिच्यूलिज़्म'

'डाइलेक्टिक्स ऑफ़ लैंड-इकॉनामिक्स ऑफ़ इंडिया'

'स्वामी विवेकानंद पैट्रियट-प्रोफॅट'

'सेकंड फ्रीडम स्ट्रॅगल ऑफ़ इंडिया'

'ऑरिजिन एण्ड डेवलपमेंट ऑफ़ इंडियन सोशल पॉलिसी'

🪔 *निधन*

26 दिसंबर, 1961 को भूपेंद्रनाथ दत्त का कोलकाता में देहांत हो गया।          

          



                 

       

अवंतिकाबाई गोखले

 *

          *अवंतिकाबाई गोखले*                        

(स्वातंत्र्य सैनिक, गांधीजींची पट्टशिष्या)

          *जन्म : १७ सप्टेंबर १८८२*                            

           *मृत्यू : २६ मार्च १९४९* मराठीबरोबर इंग्रजी भाषेवरही प्रभुत्व असलेल्या अवंतिकाबाईंनी चंपारण्यातील सत्याग्रहापासून गांधीजींना साथ दिली. स्त्रियांच्या व्यक्तिविकास व सबलीकरणासाठी त्यांनी गिरगावात ‘हिंद महिला समाजा’ची स्थापना केली तसेच गिरणी कामगार स्त्रियांसाठी भारतात प्रथमच पाळणाघरे सुरू केली. याशिवाय अस्पृश्य समाजात सुधारणा घडवून आणण्यासाठी प्रयत्नही केले. १९३० व ३२ सालच्या मिठाच्या सत्याग्रहात मुंबईतून शेकडो स्त्रिया सामील झाल्या. त्याचे श्रेय बाईंनाच जाते. एक नि:स्पृह, स्पष्टवक्ती, अनुशासनप्रिय कार्यकर्ती म्हणून स्वातंत्र्यलढय़ाच्या इतिहासात त्यांना मानाचे पान आहे.

भा रताच्या स्वातंत्र्य आंदोलनाच्या इतिहासात गांधींची पहिली भारतीय शिष्या म्हणून अवंतिकाबाई गोखले ओळखल्या जातात. गांधीजींची व अवंतिकाबाईंची ओळख त्या वेळचे प्रसिद्ध तत्त्वज्ञ व विचारवंत श्रीनिवास शास्त्री यांनी करून दिली होती. ही बाई सामान्य नाही हे गांधीजींनी ओळखले. आपण हिंदुस्थानात दलित व स्त्रिया यांच्याकरिता जे काम करू इच्छितो त्यासाठी हीच कार्यकर्ती आपल्याबरोबर हवी, असे गांधीजींना वाटले.

अवंतिकाबाईंचे लग्न नवव्या वर्षी झाले होते. त्या वेळच्या पद्धतीप्रमाणे त्यांना लिहिता-वाचताही येत नव्हते. सासरी आल्यावर त्या लिहायला-वाचायला शिकल्या. विलायतेला शिकायला गेलेल्या नवऱ्याने अवंतिकाबाईला आपण परत येईपर्यंत इंग्रजीत लिहिणे, वाचणे व बोलणे न आल्यास आपण तुला नांदविणार नाही, अशी धमकी दिली. त्यामुळे घाबरून अवंतिकाबाई आपल्या सासऱ्याजवळ इंग्रजी शिकल्या. १९१९ पर्यंतचे त्यांचे जीवन मध्यमवर्गीय ब्राह्मण स्त्रीचे होते. त्या वर्षी त्यांच्या आयुष्याला कलाटणी मिळाली. इचलकरंजीच्या राणीला इंग्लंडला जायचे होते. तिच्यासोबत जाण्यासाठी समवयस्क, शिक्षित व इंग्रजी जाणणारी स्त्री म्हणून अवंतिकाबाईंची निवड झाली. विलायतेला गेल्यावर त्यांनी अनेक इस्पितळांना भेटी देऊन तिथल्या कार्यपद्धतीची माहिती करून घेतली. श्रीमंत घरातील स्त्रियांना त्यांनी स्वयंसेवी संस्थांतून काम करताना पाहिले. त्यांच्याशी त्यांचे काम व कामातील अडचणींबाबत चर्चा केली. त्यापासून स्फूर्ती घेऊन मायदेशी परतल्यावर गिरणगावात त्याच पद्धतीने त्यांनी काम सुरू केले. या भागात त्यांनी शिक्षणाचे व आरोग्याचे महत्त्व व मुलांचे योग्य पालनपोषण या बाबतीत जाणीवजागृती केली. या भागात गिरणी कामगार स्त्रियांसाठी भारतात प्रथमच पाळणाघरे सुरू केली. बाई स्वत: चित्पावन ब्राह्मण. घरात खूप सोवळेओवळे. पण हे सर्व बाजूला सारत त्या अस्पृश्य समाजात सुधारणा घडवून आणण्यासाठी धडपडू लागल्या.

१९१६ साली लखनौ काँग्रेसमध्ये त्यांची गांधीजींशी गाठ पडली. गांधीजींनी जेव्हा बिहार चंपारण्यातील निळीची शेती करणाऱ्या शेतकऱ्यांचे दु:ख ऐकले तेव्हा त्यांच्याबरोबर अवंतिकाबाईंनीही सत्याग्रहासाठी यावे अशी विनंती केली. चंपारण्याच्या सत्याग्रहामध्ये भाग घेण्यासाठी महाराष्ट्राच्या सत्याग्रही तुकडीत आनंदी वैशंपायन व अवंतिकाबाई गोखले या दोन महिला होत्या. बिहारमध्ये फिरून त्यांनी महिलांना आरोग्याचे धडे दिले. मुलींच्या शिक्षणाकरिता प्रचार केला. बडहरवा गावी मुलींची शाळा काढली. मुलींच्या शाळेला पुरुषांबरोबर स्त्रियांचाही विरोध होता. लिहिणे, वाचणे व त्यांच्यामध्ये स्वदेशप्रेम निर्माण करण्याचे अवघड काम अवंतिकाबाईंनी केले. चंपारण्यात त्यांनी मराठी भाषेतले पहिले गांधींचे चरित्र लिहायला सुरुवात केली. १९१९ मध्ये नाशिकमधल्या एका सभेत अवंतिकाबाईंचे भाषण ऐकून लोकमान्य टिळक प्रभावित झाले आणि ते उत्स्फूर्तपणे म्हणाले, ‘‘महाराष्ट्राची सरोजिनी आता तयार झाली आहे.’’

स्त्रियांची सर्वागीण उन्नती होण्यासाठी त्यांना एकत्र आणून त्यांचा व्यक्तिविकास व सबलीकरण व्हावे यासाठी शिक्षण देणे बाईंना आवश्यक वाटले. त्यासाठी त्यांनी गिरगावात ‘हिंद महिला समाजा’ची स्थापना केली. या समाजाच्या त्या स्वत: ३१ वर्षे अध्यक्ष होत्या. अवंतिकाबाईंनी या समाजात सूतकताईचे वर्ग सुरू केले. यशोदाबाई भट यांच्यातील कीर्तनाचे अंग ओळखून त्यांच्याकडून चाळीचाळीत फिरून राष्ट्रीय कीर्तने घडवून आणली. ‘स्त्रिया व राष्ट्र’ या विषयावर बोलण्यासाठी अखिल भारतीय पातळीवरचे बरेच नेते त्यांनी समाजात बोलावले. १९३० व ३२ सालच्या मिठाच्या सत्याग्रहात मुंबईतून शेकडो स्त्रिया सामील झाल्या. त्याचे श्रेय बाईंनाच जाते. ‘हिंद महिला’ नावाचे एक साप्ताहिक सुरू केले. फैजपूरच्या काँग्रेसला हिंद महिला समाजाच्या महिलांचा मोठा गट बाईंच्या नेतृत्वाखाली गेला. या अधिवेशनात खादी विक्रीची जबाबदारी बाईंनी उचलली व अधिवेशन काळात हजारो रुपयांची खादी विक्री चार-पाच दिवसांत करण्याचा विक्रम त्यांनी केला. त्यांनी स्वत: आमरण खादीच वापरली. स्वत: सूत कातून व विणून दरवर्षी त्या गांधींना धोतरजोडीची भेट पाठवीत. गांधीजी त्याबाबत गमतीने म्हणत, की अविबेनने मला धोतरजोडी दिली नाही तर मला लंगोटीच नेसावी लागेल.

१९२२ मध्ये मुंबई महानगरपालिकेने स्त्रियांचा मताधिकार व निवडणुका लढविण्याचा अधिकार मान्य केला. त्या कायद्याप्रमाणे झालेल्या निवडणुकीत सरोजिनी नायडू, बच्चूबेन लोटवाला, हॅडगिव्हसन व अवंतिकाबाई अशा चार स्त्रिया निवडून आल्या. त्यात अवंतिकाबाईंना प्रचंड मते मिळाली. परंतु काही तांत्रिक कारणामुळे त्यांची निवड रद्द झाली. बाईंना असलेला प्रचंड पाठिंबा व त्यांचे सामाजिक कार्य लक्षात घेऊन त्यांना १ एप्रिल १९२३ रोजी महानगरपालिकेत स्वीकृत सदस्यत्व मिळाले. १९३१ पर्यंत त्या सातत्याने स्वीकृत सदस्य होत्या. आपल्या मतदारसंघातील प्रश्न व ठराव मांडून त्यांनी महापालिका दणाणून सोडली.

आरोग्य व शिक्षण ही दोन खाती बाईंच्या जिव्हाळय़ाची. शाळेच्या आसपास अनारोग्यकारक खाद्यपेये विकली जाऊ नयेत, चौपाटीवर बसून हवा खावी, पदार्थ खाऊन कागद, द्रोण वगैरे टाकून वाळू खराब करू नये, अशा प्रकारचे ठराव त्यांनी मांडले. त्या सभागृहात मराठीतूनच बोलत. त्यांची भाषणे व युक्तिवाद विचारप्रवृत्त करणारे असत म्हणून त्यांना अध्यक्षांनी इंग्रजीत बोलायची विनंती केली. मराठीइतकेच त्यांचे इंग्रजी भाषणही प्रभावी होई. इंग्रजीच काय, पण मराठीही घरातल्या वडीलधाऱ्यांकडेच बाई शिकल्या होत्या. आपल्या कुशाग्र बुद्धीच्या जोरावर त्यांनी दोन्ही भाषांवर प्रभुत्व मिळविले होते.

१९२६मध्ये बाई महापालिकेच्या स्थायी समितीवर नियुक्त झाल्या. ही समिती अत्यंत महत्त्वाची असते. त्या वेळी बैठकीला हजर राहिल्यावर ३० रुपये भत्ता मिळे. ३० रुपयांचा चेक त्यांनी विठ्ठलभाई पटेलांकडे परत पाठविला. त्यांचे म्हणणे असे की निवडून आल्यावर बैठकीला हजर राहणे हे समिती सदस्याचे कर्तव्य आहे. त्यामुळे आपण बैठकीला हजर राहिल्याचा भत्ता घेणार नाही असे बजावले. यातील काही तांत्रिक गोष्टी विठ्ठलभाई पटेलांनी दाखवून देऊन हा भत्ता त्यांच्या आवडीच्या कार्यासाठी दान करण्याचा मार्ग दाखवला होता.

महानगरपालिकेच्या दवाखान्यात स्त्रियांची वैद्यकीय तपासणी व उपचाराची सोय त्यांनी करून घेतली. आठवडय़ात संपूर्ण एक दिवस स्त्रियांसाठी राखून ठेवला. स्त्रीरोगतज्ज्ञांची नेमणूक करून आयाबायांचा दुवा घेतला. आरोग्यासाठी असलेल्या सर्व सेवासंस्थामधून त्यातील अंदाधुंदी कारभारावर नियंत्रण ठेवण्यासाठी या सर्व सेवासंस्थांवर महानगरपालिकेचा प्रतिनिधी असल्याशिवाय व त्यांनी मान्यता दिल्याशिवाय त्या संस्थांना आर्थिक साहाय्य देऊ नये, असा ठराव पास करून घेतला. हे बाईंचे महत्त्वाचे कार्य.

१९२८मध्ये महापौरपदासाठी त्यांचे नाव सुचविले गेले. दुसरे नाव होते मुंबईतील प्रसिद्ध डॉ. गोपाळराव देशमुख यांचे. बाईंच्या मते डॉक्टर सर्वतोपरी योग्य उमेदवार होते. त्यामुळे त्यांनी आपण या पदासाठी इच्छुक नसल्याचे सांगितले. नाहीतर १९२८ सालीच मुंबईला पहिली महिला महापौर मिळाली असती. महानगरपालिकेत कर्मचारी व सदस्य यांना खादी घालणे काही कारणाने शक्य नसेल तर त्यांनी स्वदेशी कपडे वापरावे हा ठराव त्यांनी पास करून घेतला. हे त्यांचे महापालिकेचे शेवटचे योगदान. २६ ऑक्टोबर १९३० ला पोलीस कमिशनरचा हुकूम मोडून बाईंनी मुंबईच्या आझाद मैदानावर झेंडावंदन केले. या झेंडावंदनापूर्वी अवंतिकाबाई महिलांचा मोर्चा घेऊन मिरवणुकीने गेल्या. कृष्णाकुमारी सरदेसाई नावाच्या १३-१४ वर्षांच्या परकरी मुलीच्या हातात झेंडा होता. पोलिसांनी तिच्या हातावर लाठय़ा मारल्यामुळे ती खाली पडली. पण तिने झेंडा सोडला नाही. या महिलांवर घोडेस्वार सोडल्यामुळे महिला पांगल्या. अवंतिकाबाईंना दुसऱ्या दिवशी पालिका सदनात अटक होऊन सहा महिन्यांची शिक्षा झाली व त्यांचे नगरसेविकापद रद्द झाले. क्लेटन म्युनिसिपल कमिशनर असताना आपल्या भाषणात एकदा म्हणाले, की या सभागृहातील अवंतिकाबाईंचा अपवाद सोडता प्रत्येक जण माझ्याकडे शिफारशीसाठी आला आहे. अवंतिकाबाईंमुळे सभागृहातील चर्चेचे वातावरण व पातळी उंच राहते. त्यांची कामावरील निष्ठा, प्रामाणिकपणा व विचारांची स्पष्टता वाखाणण्यासारखी आहे. त्या निरनिराळय़ा कामात व्यग्र असूनही कधी सभागृहात गैरहजर नाहीत. निरनिराळय़ा वॉर्डात फिरून जनतेच्या सोयी, गैरसोयीची त्या दखल घेऊन सभागृहात वाचा फोडत. बाईंचे महानगरपालिकेतील काम उत्तुंग होते. नंतरच्या नगरसेविकांत हे स्थान फक्त मृणाल गोरे मिळवू शकल्या. बाईंचे हे काम लक्षात घेऊनच त्यांच्या घरावरून जाणाऱ्या रस्त्याला ‘अवंतिकाबाई गोखले रोड’ हे नाव महानगरपालिकेने दिले.

१९३० साली सविनय कायदेभंगाच्या वेळी ७ एप्रिल रोजी झालेल्या प्रचंड सभेत बाईंचे भाषण फारच प्रभावी झाले. त्यांनी महाराष्ट्रातील वीरवृत्तीला आवाहन करून सांगितले, की या आंदोलनात भाग घेऊन महाराष्ट्राचे नाव उज्ज्वल केले पाहिजे. आपण गांधीजींच्या मागे उभे राहिले पाहिजे. विलायती वस्तूंवर बहिष्कार, दारूबंदी व आगामी कायदेमंडळाच्या निवडणुकीवर बहिष्कार घातला पाहिजे.

युद्ध समिती नावाची एक समिती सत्याग्रहाची योजना व अंमलबजावणी करण्यासाठी नेमली होती. या समितीच्या तेराव्या तुकडीच्या प्रमुख अवंतिकाबाई होत्या. पहिल्या बारा तुकडय़ा गजाआड गेल्या. बाईंचे पती बबनराव यांचे दोन्ही हात निकामी होते. त्यांचे सर्व काम करावे लागे. म्हणून बाईंना गांधीजींनी सत्याग्रह करण्याऐवजी बाहेर राहून कार्यकर्त्यांना मार्गदर्शन करावे, असे सुचविले. पण युद्ध समितीच्या प्रमुखाने सत्याग्रह न करणे हे नैतिकतेला धरून होणार नाही, असे सांगून त्यांनी सत्याग्रह करायचे ठरविले. त्यापूर्वी जमलेल्या स्त्रियांनी आपल्या हातात झेंडे घेऊन उंच फडकावले म्हणून पोलिसांनी त्यांना पकडून भांडुपच्या जंगलात सोडले व अपमानास्पद वागणूक दिली. त्याचा निषेध करणारे एक पत्रक २७ ऑक्टोबरला काढले. त्यांच्यावर या कृत्याबद्दल खटला होऊन सहा महिने कैद व ४०० रुपये दंड झाला. १९३२ साली त्यांना पुन्हा दोन महिने तुरुंगवास झाला.

पती बबनराव यांना १९३३ साली हृदयविकाराचा झटका आला. गांधीजींनी बाईंना आपल्या अपंग व नाजूक हृदय झालेल्या पतीकडे संपूर्ण लक्ष देण्यास सांगितले. १९३७ च्या प्रांतिक स्वायत्ततेच्या कायद्यानुसार होणाऱ्या निवडणुकीला उभे राहण्यासाठी सरोजिनीदेवींनी खूप पाठपुरावा केला. पण अपंग पतीसाठी त्यांनी घरी राहायचे ठरविले. १९४० किंवा १९४२च्या आंदोलनातही त्या भाग घेऊ शकल्या नाहीत. १९३३ पासून स्वत:च्या मृत्यूपर्यंत त्यांचे विधायक कार्य चालूच राहिले. १९४७च्या आसपास त्यांना कर्करोग झाल्याचे कळले. त्याच वेळी स्वातंत्र्य मिळाले. गांधीजींना पट्टशिष्येच्या या आजाराचे अतीव दु:ख झाले. त्यांनी बाईंना उल्हसित करणारे एक पत्र लिहिले. हे पत्र गांधीजींनी अवंतिकाबाईंना लिहिलेले शेवटचे पत्र.

३० जानेवारी १९४८ ला गांधीजींची नथुराम गोडसेने हत्या केली. त्याचा धक्का अवंतिकाबाईंना बसला. त्यांना भास होऊ लागले. बापू मला बोलवीत आहेत, तुम्हीही चला, असे त्या बबनरावांना सांगू लागल्या. गांधीजींपाठोपाठ सव्वा वर्षांनी त्यांच्या या पहिल्या भारतीय शिष्येने २६ मार्च १९४९ ला मुंबईत राहत्या घरी देह ठेवला. एक नि:स्पृह, स्पष्टवक्ती, अनुशासनप्रिय कार्यकर्ती म्हणून स्वातंत्र्यलढय़ाच्या इतिहासात त्यांना मानाचे पान आहे.     

                                 

         

मोहम्मद हिदायतुल्लाह

 


        *मोहम्मद हिदायतुल्लाह*                                                             (भारताचे ११वे सरन्यायाधीश, सहावे उपराष्ट्रपती व १९६९ साली एक महिन्याकरिता कार्यवाहू राष्ट्रपती होते)

      *जन्म : १७ डिसेंबर १९०५*

          (जन्मस्थळ: लखनौ)

      *मृत्यू : १८ सप्टेंबर १९९२*

           (मृत्यूस्थळ: मुंबई)

पुस्तके : माय ओन बॉसवेल, A Judge's Miscellany, 

शिक्षण : ट्रिनिटी कॉलेज, वसंतराव नाईक शासकीय संस्था

पदे : भारताचे उपराष्ट्रपती (१९७९–१९८४)                                          भारताचे कार्यवाहू राष्ट्रपती (१९६९–१९६९)                               भारताचे उपराष्ट्रपती

१९७९–१९८४

भारताचे सरन्यायाधीश

१९६८–१९७०


                    आंतरराष्ट्रीय कीर्तीचे कायदेपंडित, भारताचे भूतपूर्व उपराष्ट्रपती व सर्वोच्च न्यायालयाचे माजी सरन्यायाधीश. त्यांचा जन्म मध्य प्रदेश राज्यातील बैतुल येथे खानबहाद्दूर हाफिज मो ह म्म द विलायतुल्ला आणि मोहम्मदी बेगम या दांपत्यापोटी झाला. त्यांचे वडील विलायतुल्ला हे मध्य प्रांतात शासकीय सेवेत होते आणि भंडारा येथून जिल्हा दंडाधिकारी म्हणून निवृत्त झाले (१९२८). त्यांच्या वारंवार बदल्या होत असल्याने हिदायतुल्लांचे सुरुवातीचे शिक्षण अकोला, सिहोर, रायपूर, नागपूर अशा विविध ठिकाणी झाले. पुढे रायपुरातून ते मॅट्रिकची परीक्षा उत्तीर्ण झाले (१९२२). पुढील उच्च शिक्षण केंब्रिजच्या ट्रिनिटी महाविद्यालयात झाले व लंडन येथील लिंकन्स इनमधून ते बॅरिस्टर झाले (१९३०). भारतात परतल्यावर त्यांनी नागपूर येथे वकिलीस प्रारंभ केला (१९३०–३६). नागपूर विद्यापीठात थोडा काळ कायद्याचे प्राध्यापक म्हणूनही त्यांनी काम केले. त्यानंतर सरकारी वकील म्हणूनही काम केले. पुढे नागपूरला १९३६ मध्ये उच्च न्यायालय स्थापन झाले. त्यात ते वकिली करू लागले. नंतर त्यांनी सरकारी वकीलम्हणून (१९४२-४३) काम केले आणि त्यांची महाधिवक्ता (अ‍ॅडव्होकेट जनरल) म्हणून मध्य प्रांतात नियुक्ती झाली (१९४३–४६). वकिली करीत असताना नागपूर विद्यापीठाच्या विधी महाविद्यालयात ते अध्यापन करीत असत (१९३५–४३). त्यांची नागपूर उच्च न्यायालयाचे न्यायाधीश म्हणून नेमणूक झाली (१९४६). या काळात नागपूर उच्च न्यायालयात मुख्य न्यायाधीश (१९५४–५६) असताना जबलपूर येथील मध्य प्रदेश राज्याच्या उच्च न्यायालयात (१९५६–५८) ते मुख्य न्यायाधीश होते. त्यांची सर्वोच्च न्यायालयाचे न्यायमूर्ती म्हणून १ डिसेंबर १९५८ रोजी नियुक्ती झाली. १९६८ मध्ये ते सरन्यायाधीश झाले आणि १९७० मध्ये निवृत्त झाले. भारताचे हंगामी राष्ट्रपती म्हणून त्यांनी दोन वेळा कार्यभार सांभाळला (१९६९ व १९८२). ते सर्वोच्च न्यायालयाचे न्यायाधीश व सरन्यायाधीश असताना काही लक्षणीय व दूरगामी परिणाम करणारे खटले न्यायालयापुढे आले. त्यांपैकी सज्जनसिंह, गोलकनाथ आणि माजी संस्थानिकांची मान्यता व तनखे रद्द करण्याचा खटला हे विशेष उल्लेखनीय होत. या तीनही खटल्यांत त्यांनी स्वतः विचारप्रवर्तक निकालपत्रे लिहिली. निवृत्तीनंतर ते वाचन, लेखन, गोल्फ, ब्रिज या छंदांत उर्वरित जीवन व्यतीत करीत असताना त्यांना उपराष्ट्रपती पदासाठी विचारणा झाली आणि भारताचे उपराष्ट्रपती म्हणून ते बिनविरोध निवडून आले (१९७९–८४).


हिदायतुल्ला यांचे व्यक्तिमत्त्व बहुआयामी, उमदे व प्रसन्न होते. त्यांनी देशात व परदेशांत काही महत्त्वाच्या संस्थांवर सदस्य, उपाध्यक्ष व अध्यक्ष या नात्याने काम केले. नागपूर विद्यापीठाच्या कार्यकारी व शैक्षणिक मंडळाचे ते एकोणीस वर्षे (१९३४–५३) सदस्य होते. दिल्ली व पंजाब विद्यापीठाचे कुलगुरू (१९७९–८४) व जमियत मीडिया हुसनलियत विद्यापीठाचे कुलगुरू (१९६९–८५) म्हणून त्यांनी काम पाहिले. तसेच बाँबे नॅचरल हिस्ट्री सोसायटीचे अध्यक्ष म्हणून त्यांनी कार्यभार सांभाळला. इंटरनॅशनल लॉ असोसिएशन या संस्थेत त्यांनी भारतीय शाखेचे अध्यक्ष म्हणून काम केले. तसेच भारतीय रेडक्रॉस संघटनेचे अध्यक्षपदही त्यांनी भूषविले. त्यांनी अनेक आंतरराष्ट्रीय परिषदांमध्ये भारताचे प्रतिनिधित्व केले. त्यांना अनेक मानसन्मान व पुरस्कार मिळाले. जमनालाल बजाज प्रतिष्ठानचे ते अखेरपर्यंत अध्यक्ष होते.


राज्यसभेचे अध्यक्ष असताना (१९७९–८४) हिदायतुल्लांची कारकीर्द विशेष संस्मरणीय ठरली. न्यायक्षेत्रात काम करताना त्यांनी दिलेलेमहत्त्वाचे निवाडे व व्यक्त केलेली मते हा विधी व न्यायक्षेत्रातील चिरंतन मौलिक ठेवा आहे.


काव्यशास्त्राचे, विशेषतः उर्दू शायरीचे, हिदायतुल्ला गाढे अभ्यासक होते. बहारदार शैलीत उर्दू काव्यवाचन करणे, हे त्यांचे खास वैशिष्ट्य होते. भारतीय लोकशाही, कायदा, न्यायदान पद्धती इ. विषयांवर त्यांनी विपुल लेखन केले असून आपली मते परखडपणे व्यक्त केली आहेत. डेमॉक्रसी इन इंडिया अँड द जूडिशल प्रोसेस (१९६६), जूडिशल मेथड्स : यूएस्ए अँड इंडिया (१९७७), द फिफ्थ अँड सिक्स्थ शेड्यूल्स टू द कॉन्स्टि-ट्यूशन ऑफ इंडिया (१९८४) इ. त्यांची पुस्तके विशेष उल्लेखनीयआहेत. यांशिवाय त्यांनी भारतात व परदेशांत प्रसंगोपात्त केलेली भाषणे ‘ए जज्स मिसलेनी’ या शीर्षकार्थाने संग्रहित केलेली आहेत. शिवाय त्यांनी मुल्लाज मोहमेडन लॉ या पुस्तकाचे संपादन केले. त्यांचे आत्मवृत्त मायओन बॉसवेल (१९८०) त्यांच्या व्यक्तिमत्त्वावर प्रकाश टाकते.


हिदायतुल्ला यांनी हिंदू मुलीशी विवाह केला होता (१९४८). त्यांना एक मुलगा व एक मुलगी झाली. मुलीचे अकाली निधन झाले. मुलगा अर्शाद वकिली व्यवसाय करतो.


मुंबई येथे त्यांचे हृदयविकाराने निधन झाले.                                                     

         

सारंगधर दास

         

             चंद्रपूर 9403183828                                           

   

              *सारंगधर दास*  

             (स्वतंत्रता सेनानी)

            *जन्म : 19 अक्टूबर, 1887*

(धेनकनाल रियासत ब्रिटिश भारत)

           *मृत्यु : 18 सितंबर, 1957*

स्मारक : बी.ए.

नागरिकता : भारतीय

धर्म : हिन्दू

आंदोलन : भारत छोड़ो आंदोलन

शिक्षा : रसायन और कृषि में उच्च डिग्री

पार्टी समाजवादी

अन्य जानकारी : 7 1948 में वे समाजवादी पार्टी में सम्मिलित हो गए और लोकसभा के लिए चुन कर वहाँ अपने पार्टी के नेता रहे थे।


          सारंगधर दास स्वतंत्रता सेनानी थे। इन्होंने उड़ीसा में उद्योग स्थापित किया था। सारंगधर दास 'भारत छोड़ो आन्दोलन' में गिरफ्तार हुए थे और 1946 तक जेल में बंद रहे। सारंगधर दास उड़ीसा असेम्बली के सदस्य चुने गए थे। 1948 में वे समाजवादी पार्टी में सम्मिलित हो गए और लोकसभा के सदस्य रहे थे। उन्होंने केंद्र सरकार के कर्मचारियों के संघ की अध्यक्षता भी की।


💁🏻‍♂️ *जन्म एवं शिक्षा*

सारंगधर दास का उड़ीसा की देशी रियासत धेनकनाल में 19 अक्टूबर, 1887 को जन्म हुआ था। इनका जीवन शिक्षा, उद्योग और राजनीति तीनों क्षेत्रों में बड़ा संघर्ष पूर्ण था। कटक से बी.ए. पास करने के बाद आगे के अध्ययन के लिए छात्रवृत्ति लेकर सारंगधर दास जापान गए। वे वर्ष भर टोक्यो के टेकनिकल इंस्टीट्यूट में रह कर अमरीका पहुँचे और कैलिफॉर्निया यूनिवर्सिटी से रसायन और कृषि में उच्च डिग्री प्राप्त की। कुछ वर्षों तक अमेरिका और बर्मा की चीनी मिलों में काम करने के बाद सारंगधर दास भारत वापस आ गए।


🏭 *चीनी मिल की स्थापना*

भारत आकर सारंगधर दास ने अपने गाँव हरिकृष्णपुर के निकट एक चीनी मिल की स्थापना की। उस आदिवासी क्षेत्र की उन्नति के लिए यह वरदान सिद्ध हुई। इससे आदिवासियों की आर्थिक हालत सुधरी और उसके बीच सारंगधर दास का प्रभाव भी बढ़ा। उनके बढ़ते प्रभाव से रियासत धेनकलाल का शासक संकित हो उठा।


♨️ *ब्रिटिश अत्याचारों के ख़िलाफ आवाज़*

1928 में जब सारंगधर दास इलाज के लिए कलकत्ता गए थे, रियासत के शासक ने झूठे अभियोग लगाकर उनकी चीनी मिल के गन्ने के खेतों को जब्त कर के नीलाम करा दिया। लौटने पर इस अन्याय की शिकायत जब उन्होंने रियासत के ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेंट और बिहार-उड़ीसा के गवर्नर से की तो वहाँ भी कोई सुनवाई नहीं हुई थी। इस पर सारंगधर दास ने जनता को संगठित करके रियासत के अत्याचारों का सामना करने का निश्चय किया।


उन्होंने उड़ीसा राज्य में 'प्रजामंडल' बनाया जिस का पहला सम्मेलन 1931 ई. में पट्टाभि सीतारामय्या की अध्यक्षता में हुआ था। इसके बाद प्रांत की अन्य रियासतों पर भी इसका प्रभाव पड़ा और लोग अपने अधिकारों के लिए संगठित होने लगे। कई जगह खुला संघर्ष हुआ और लोगों को पुलिस की गोलियाँ झेलनी पड़ीं। इस प्रकार सारंगधर दास जिन्होंने उड़ीसा में उद्योग स्थापित करने का काम आरंभ किया था, विदेशी सरकार और उसके समर्थक देशी रजवाड़ों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम में सम्मिलित हो गए। 'भारत छोड़ो आन्दोलन' में वे गिरफ्तार हुए और 1946 तक जेल में बंद रहे थे।


⚜️ *राजनैतिक जीवन*

जेल से छूटने पर सारंगधर दास उड़ीसा असेम्बली के सदस्य चुने गए। 1948 में वे समाजवादी पार्टी में सम्मिलित हो गए और लोकसभा के लिए चुन कर वहाँ अपने पार्टी के नेता रहे। सारंगधर दास ने केंद्र सरकार के कर्मचारियों के संघ की अध्यक्षता भी की थी।


🪔 *निधन*

18 सितंबर, 1957 को सारंगधर दास का देहांत हो गया।

   

         

भारतरत्न डॉ. भगवान दास



       *भारतरत्न डॉ. भगवान दास*  

              ( स्वतंत्रता सेनानी)

          *जन्म : 12 जनवरी, 1869*

             (वाराणसी)

          *मृत्यु : 18 सितम्बर, 1972*

अभिभावक : श्री साह माधव दास

नागरिकता : भारतीय

प्रसिद्धि : स्वतन्त्रता सेनानी, क्रान्तिकारी, लेखक, शिक्षा विशेषज्ञ

शिक्षा : एम.ए (दर्शन शास्त्र)

विद्यालय : क्वींस कॉलेज वाराणसी

भाषा : हिन्दी, अरबी, उर्दू, संस्कृत, फ़ारसी आदि।

पुरस्कार : भारत रत्न

               भगवान दास को विभिन्न भाषाओं के प्रकांड पंडित, स्वतंत्रता सेनानी, समाज सेवी और शिक्षा शास्त्री के रूप में, देश की भाषा, संस्कृति को सुदृढ़ बनने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले, स्वतंत्र और शिक्षित भारत के मुख्य संस्थापकों में गिना जाता है।


💁🏻‍♂️ *जन्म*

डॉ. भगवान दास का जन्म 12 जनवरी, 1869 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर में हुआ था। उनके पिता का नाम साह माधव दास था। वे वाराणसी के सर्वाधिक प्रतिष्ठित और धनी व्यक्तियों में गिने जाते थे। धन और प्रतिष्ठा से डॉ. भगवान दास का संबंध उनके पूर्वजों के समय से ही था। कहा जाता है कि डॉ. भगवान दास के पूर्वज बड़े ही दानी और देशभक्त थे। इन सभी गुणों के साथ साथ वह कुशल व्यापारी भी थे। उन्होंने अंग्रेज़ों के साथ मिलकर अथाह सम्पत्ति एकत्र कर ली थी। धनी और प्रतिष्ठित पतिवार में जन्म लेने के बाद भी डॉ. भगवान दास बचपन से ही भारतीय सभ्यता और संस्कृति के सांचे में ढले थे।

📖 *शिक्षा*

उनकी प्रारम्भिक शिक्षा वाराणसी में ही हुई। उस समय अंग्रेज़ी, शिक्षा, भाषा और संस्कृति का बहुत प्रसार था किंतु डॉ. भगवान दास ने अंग्रेज़ी के साथ साथ हिन्दी, अरबी, उर्दू, संस्कृत, फ़ारसी, भाषाओं का भी गहन अध्ययन किया। शेख सादी द्वारा रची गयीं 'बोस्तां' और 'गुलिस्तां' इन्हें बहुत ही प्रिय थीं। बचपन से ही डॉ. भगवान दास बहुत ही कुशाग्र बुद्धि थे। वे पढ़ने लिखने में बहुत तेज़ थे। डॉ. भगवान दास ने 12 वर्ष की आयु में ही हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। इसके पश्चात् वाराणसी के ही 'क्वींस कॉलेज' से इण्टरमीडिएट और बी.ए. की परीक्षा संस्कृत, दर्शन शास्त्र, मनोविज्ञान और अंग्रेज़ी विषयों के साथ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इसके बाद आगे की शिक्षा प्राप्त करने के लिए उन्हें कोलकाता भेजा गया। वहाँ से उन्होंने दर्शन शास्त्र में एम.ए. किया। सन् 1887 में उन्होंने 18 वर्ष की अवस्था में ही पाश्चात्य दर्शन में एम. ए. की उपाधि प्राप्त कर ली थी। एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करके पिता के कहने से उन्होंने अनिच्छा पूर्वक डिप्टी कलेक्टर के पद पर सरकारी नौकरी की। नौकरी करते हुए भी उनका ध्यान अध्ययन और लेखन कार्य में ही लगा रहा।


🌀 *कार्यक्षेत्र*

23 -24 वर्ष की आयु में ही उन्होंने 'साइंस ऑफ पीस' और 'साइंस ऑफ इमोशन' नामक पुस्तकों की रचना कर ली थी। लगभग 8 -10 वर्ष तक उन्होंने सरकारी नौकरी की और पिता की मृत्यु होने पर नौकरी छोड़ दी। इस समय एक ओर देश की स्वतंत्रता के लिए आन्दोलन हो रहे थे, वहीं दूसरी ओर अंग्रेज़ों के शासन के कारण भारतीय भाषा, सभ्यता और संस्कृति नष्ट भ्रष्ट हो रही थी और उसे बचाने के गंभीर प्रयास किये जा रहे थे। प्रसिद्ध समाज सेविका एनी बेसेंट ऐसे ही प्रयासों के अंतर्गत वाराणसी में कॉलेज की स्थापना करना चाह रही थीं। वह ऐसा कॉलेज स्थापित करना चाहतीं थीं जो अंग्रेज़ी प्रभाव से पूर्णतया मुक्त हो। जैसे ही डॉ. भगवान दास को इसका पता चला उन्होंने तन मन धन से इस महान् उद्देश्य पूरा करने का प्रयत्न किया। उन्हीं के सार्थक प्रयासों के फलस्वरूप वाराणसी में 'सैंट्रल हिन्दू कॉलेज' की स्थापना की जा सकी। इसके बाद पं. मदनमोहन मालवीय ने वाराणसी में 'हिन्दू विश्वविद्यालय' स्थापित करने का विचार किया, तब डॉ. भगवान दास ने उनके साथ मिलकर 'काशी हिन्दू विद्यापीठ' की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया और पूर्व में स्थापित 'सैंट्रल हिन्दू कॉलेज' का उसमें विलय कर दिया। डॉ. भगवान दास काशी विद्यापीठ के संस्थापक सदस्य ही नहीं, उसके प्रथम कुलपति भी बने।


✍️ *लेखन*

डॉ. भगवान दास ने हिन्दी और संस्कृत भाषा में 30 से भी अधिक पुस्तकों पर लेखन किया। सन् 1953 में भारतीय दर्शन पर उनकी अंतिम पुस्तक प्रकाशित हुई।

💥  *स्वतंत्रता में भाग*

डॉ. भगवान दास ने देश के प्रति अपने कर्त्तव्यों को भी उसी भाव से निभाया। 1921 के 'सविनय अवज्ञा आन्दोलन' में भाग लेने पर वह गिरफ्तार होकर जेल गये। इसके बाद 'असहयोग आन्दोलन' में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाकर प्रमुख कांग्रेसी नेता के रूप में उभरे। शिक्षा शास्त्री तो वह थे ही, स्वतंत्रता सेनानी के रूप में भी उभर कर सामने आये। असहयोग आन्दोलन के समय डॉ. भगवान दास काशी विश्वविद्यालय के कुलपति थे। उसी समय देश के भावी नेता श्री लालबहादुर शास्त्री भी वहां पर शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। इस समय वह कांग्रेस और गांधी जी से पूर्णत: जुड़ गये थे। 1922 में वाराणसी के म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन के चुनावों में कांग्रेस को भारी विजय दिलायी और म्यूनिसिपल कमेटी के अध्यक्ष चुने गये। इस पद पर रहते हुए उन्होंने अनेक सुधार कार्य कराये। साथ ही वह अध्ययन और अध्यापन कार्य से भी जुड़े रहे, विशेष रूप से हिन्दी भाषा के उत्थान और विकास में उनका योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय है। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने महत्त्वपूर्ण कार्य किये। इन महत्त्वपूर्ण कार्यों के कारण उन्हें अनेक विश्वविद्यालयों से डॉक्टरेट की मानद उपाधियों से अलंकृत किया गया। सन् 1935 के कौंसिल के चुनाव में वे कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए। कालांतर में वे सक्रिय राजनीति से दूर रहने लगे और भारतीय दर्शन और धर्म अध्ययन और लेखन कार्य में व्यस्त रहने लगे। इन विषयों में उनकी विद्वत्ता, प्रकांडता और ज्ञान से महान् भारतीय दार्शनिक श्री सर्वपल्ली राधाकृष्णन भी बहुत प्रभावित थे और डॉ. भगवान दास उनके लिए आदर्श व्यक्तित्व बने।


🔰 *योगदान*

डॉ. भगवान दास का योगदान जितना भारतीय शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ और विकसित करने में मानाजाता है, उतना ही योगदान देश के स्वतंत्रता आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण माना जाता है, और जितना योगदान देश के स्वतंत्रता आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण माना जाता है, उतना ही योगदान भारतीय दर्शन और धर्मशास्त्र को विश्वस्तर पर प्रतिष्ठित करने में माना जाता है। 'वसुदैव कुटंबकम' अर्थात् 'सारा विश्व एक ही परिवार है' की भावना रखने वाले डॉ. भगवान दास ने सम्पूर्ण विश्व के दर्शन और धर्म को प्राचीन और सामयिक परिस्थितियों के अनुरूप एक नया दृष्टिकोण प्रदान किया।

🧔🏻 *व्यक्तित्व*

अपने जीवनकाल में ही अपार धन और सम्मान पाने के बाद भी डॉ. भगवान दास का जीवन भारतीय संस्कृति और महर्षियों की परम्परा का ही प्रतिनिधित्व करता है। वह गृहस्थ थे, फिर भी वह संयासियों की भांति साधारण खान पान और वेशभूषा में रहते थे। वह आजीवन प्रत्येक स्तर पर प्राचीन भारतीय संस्कृति के पुरोधा बने। सन् 1947 में जब देश स्वतंत्र हुआ, तब डॉ. भगवान दास की देशसेवा और विद्वत्ता को देखते हुए उनसे सरकार में महत्त्वपूर्ण पद संभालने का अनुरोध किया गया, किंतु प्रबल गाँधीवादी विचारों के डॉ. भगवान दास ने विनयपूर्वक अस्वीकार कर दर्शन, धर्म और शिक्षा के क्षेत्र को ही प्राथमिकता दी और वह आजीवन इसी क्षेत्र में सक्रिय रहे।


🎖️ *पुरस्कार*

सन 1955 में भारत सरकार की ओर से तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने उन्हें भारत रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया।


🪔 *निधन*

भारत रत्न मिलने के कुछ वर्षों बाद 18 सितम्बर 1958 में लगभग 90 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। आज भले ही डॉ. भगवान दास हमारे बीच नहीं हैं, किंतु भारतीय दर्शन, धर्म और शिक्षा पर किया गया कार्य सदैव हमारे साथ रहेगा।

                                                  🇮🇳 *जयहिंद* 🇮🇳                                                                                

राजा शंकर शाह

                                      

               *राजा शंकर शाह*

                (राजगोंड राजवंश)

शासनावधि : 1818 - 1825

पूर्ववर्ती : सुमेद शाह

संतान : कुंवर रघुनाथ शाह

राजवंश : राजगोंड वंश

धर्म : हिन्दू धर्म                                                       शंकर शाह गोंडवाना साम्राज्य के राजा थे जिन्हें अंग्रेजों ने अपने पुत्र सहित 18 सितम्बर 1857 को विप्लव भड़काने के अपराध में तोप के मुँह से बांधकर उड़ा दिया था। ये दोनों गोंड समाज से हैं। उनके पुत्र का नाम कुंवर रघुनाथ शाह था।                                                     1857 के विद्रोह की ज्वाला सम्पूर्ण भारत में धधक रही थी। अपनी मातृभूमि को अंग्रेजों से स्वतंत्र कराने के लिए उन्होंने युद्ध का आह्वान किया था। इस संग्राम में रघुनाथ शाह ने अपने पिता का बढ़-चढ़कर सहयोग किया था। राजा शंकर शाह, निजाम शाह के प्रपौत्र तथा सुमेर शाह के एकमात्र पुत्र थे। उनके पुत्र का नाम रघुनाथ शाह था। राजा शंकर शाह जमींदारों तथा आम जनता के बीच काफी लोकप्रिय थे।


जबलपुर में तैनात अंग्रेजों की 52वीं रेजीमेन्ट का कमांडर ले॰ज॰ क्लार्क बड़ा अत्याचारी था। उसने छोटे-छोटे राजाओं और आम जनता को बहुत परेशान कर रखा था। चारों ओर अनाचार और व्यभिचार का बोलबाला था। जनता में हाहाकार मचा हुआ था। राजा शंकर शाह ने जनता और जमींदारों को साथ लेकर क्लार्क के अत्याचारों को खत्म करने के लिए संघर्ष का ऐलान किया। उधर क्लार्क ने अपने गुप्तचरों को साधु वेश में शंकर शाह की तैयारी की खबर लेने गढ़पुरबा महल में भेजा। चूंकि राजा शंकर शाह धर्मप्रेमी थे, इसलिए उन्होंने साधुवेश में आए गुप्तचरों का न केवल स्वागत-सत्कार किया बल्कि उनसे निवेदन किया कि वे स्वतंत्रता संग्राम में योगदान करें। राजा ने युद्ध की योजना भी उन गुप्तचरों के सामने रख दी।


राजा शंकर शाह के सम्मान में सन २०२२ में मध्य प्रदेश शासन ने 'छिन्दवाड़ा विश्वविद्यालय' का नाम बदलकर 'राजा शंकर शाह विश्वविद्यालय' कर दिया।

                                                                                                                           

मदनलाल धिंग्रा

                                        


             *मदनलाल धिंग्रा*

                ( क्रांतिकारक )

    *जन्म : १८ सप्टेंबर १८८३*

(अमृतसर, पंजाब, ब्रिटिश भारत)


    *फाशी : १७ ऑगस्ट १९०९*

(पेन्टोनव्हिल तुरुंग, लंडन, इंग्लंड)


चळवळ : भारतीय स्वातंत्र्यलढा

संघटना : अभिनव भारत,

                होमरूल लीग

धर्म : हिंदू

प्रभाव : विनायक दामोदर सावरकर


                  मदनलाल धिंग्रा  हे भारतीय स्वातंत्र्यलढ्यातील एक क्रांतिकारक होते. इंग्लंडमध्ये शिकत असताना त्यांनी सर विलियम हट कर्झन वायली या ब्रिटिश अधिकाऱ्याची हत्या केली. या घटनेचा २०व्या शतकातील भारतीय स्वातंत्र्य चळवळीतील पहिल्या क्रांतीकारी घटनांपैकी एक म्हणून उल्लेख केला जातो.


🕺 *सुरुवातीचे जीवन*

            त्यांचा जन्म अमृतसर येथे उच्च मध्यमवर्गीय कुटुंबात झाला. त्यांचे वडील एक ख्यातनाम डॉक्टर होते आणि बंधू बॅरिस्टर होते. मदनलालांचे शिक्षण अमृतसरला झाले. ते पंजाब विद्यापीठातून बी. ए. झाले व १९०६ मध्ये उच्च शिक्षणासाठी इंग्लंडला गेले. तत्पूर्वी विद्यार्थिदशेतच त्यांचा विवाह झाला. इंग्लंडमध्ये त्यांनी स्थापत्य अभियांत्रिकीचा अभ्यास केला. तेथील वास्तव्यात त्यांचा स्वातंत्र्यवीर सावरकर, श्यामजी कृष्णवर्मा, हरदयाळ शर्मा वगैरे क्रांतिकारकांशी स्नेह जमला.


👬 *सावरकरांशी संबंध*

           मदनलाल धिंग्रा हे उच्च शिक्षणासाठी लंडन येथे राहत होते. सावरकर जेव्हा तिथे होते तेव्हा त्यांना एका भोजनप्रसंगी वर्णद्वेषाचा अनुभव आला. त्यांना वेगळ्या टेबलावर बसण्यास सांगितले. जाज्वल्य देशाभिमान आणि अत्यंत स्वाभिमानी सावरकरांना ही गोष्ट सहन झाली नाही आणि ते तिथून बाहेर पडले. त्या वेळी मदनलाल आणि त्यांचे एक मित्र तिथे उपस्थित होते. मदनलालांनी सावरकरांना समजवण्याचा प्रयत्न केला की ही अशी वागणूक त्यांना अंगवळणी करून घ्यायला हवी. मदनलाल आणि सावरकर यांची ही पहिली भेट!!! मदनलाल तसे श्रीमंत घराण्यातले होते. त्यांच्यात देशभक्तीची भावना निर्माण झाली ते सावरकरांच्या विचारांमुळे. हा प्रभाव इतका प्रचंड होता की पुढे स्वतःच्या जीवाची पर्वा न करता ते कर्झन वायलीचा खून करण्यास तयार झाले.


🔫 *कर्झन वायलीचा खून*

                   ते होमरूल लीग व सावरकरांच्या अभिनव भारत या संस्थांचे सभासद झाले. त्यांच्या भावनाप्रधान मनावर खुदिराम बोस व कन्हैयालाल या क्रांतिवीरांच्या बलिदानाचा फार मोठा परिणाम झाला. त्यांनी सशस्त्र क्रांतिवीरास साजेसे शिक्षण घेतले. पुढे त्यांनी भारताच्या मंत्र्याचा स्वीय सहाय्यक कर्नल विल्यम कर्झन वायली याच्या खुनाचा कट केला. त्यांचा पहिला बेत फसला. पुढे १ जुलै १९०९ रोजी इंपीरियल इन्स्टिट्यूटच्या जहांगीर हाऊसमध्ये इंडियन नॅशनल असोसिएशनच्या सभेच्या वेळी त्यांनी कर्झन वायली यावर गोळ्या झाडल्या; त्या वेळी कोवास लालाकाका हाही मध्ये आला. दोघेही मरण पावले. कर्झन वायली खरेतर मदनलाल यांच्या वडिलांचा स्नेही होता. या खुनाबद्दल मदनलाल यांना फाशीची शिक्षा देण्यात आली. पेन्टोनव्हिल (लंडन) तुरुंगात ते ‘भारत माता की जय’च्या उद्‌घोषात फाशी गेले.


🕯 *शेवटचे वक्तव्य*

           फाशीवर जाण्यापूर्वीच्या शेवटच्या वक्तव्यात धिंग्रानी असे म्हटले आहे "आत्म बलिदान कसे करावे ही एकच शिकवण सध्या हिंदुस्थानात देण्यायोग्य आहे.ही शिकवण देण्याचा एकच मार्ग म्हणजे स्वत:चे बलिदान करून मोकळे होणे होय. या जाणिवेने प्रेरित होऊन मी प्राणार्पण करत आहे व माझ्या हौतात्म्याचा मला अभिमान वाटत आहे.याच भारतभूचे संतान म्हणून मला पुनर्जन्म प्राप्त होवो व याच पवित्र कार्यात माझा देह पुन्हा पडो इतकीच ईश्वरचरणी माझी प्रार्थना आहे.भारतीय स्वातंत्र्याचा पक्ष विजयी होऊन, मानवजातीचे कल्याण व ईश्वराचे वैभव यांचा पुरस्कार करणारा स्वतंत्र भारतवर्ष जगात आत्मतेजाने तळपू लागेपर्यंत माझ्या जन्ममृत्यूचे हे चक्र असेच चालू राहावे अशी माझी परमेश्वराला प्रार्थना आहे."


💎 *नाटक*

            मदनलाल धिंग्रा आणि सावरकर यांच्या जीवनावर मराठीत 'चॅलेंज' नावाचे नाटक आले आहे. पहिल्या दहा प्रयोगांना मोफत किंवा 'नाटक पाहा आणि आवडेल तेवढे पैसे द्या' अशी सवलत आहे. नाटकाचे लेखक-दिग्दर्शक-वेशभूषा : दिग्पाल लांजेकर; सादरकर्त्या : मुक्ता बर्वे.


 

शहीद बलवंत सिंह..

                         


               *शहीद बलवंत सिंह*

    *जन्म : 16 सितंबर 1882*

             (खुर्दपूर, जालंधर)

    *फाँसी : 29 मार्च 1917*

                (लाहौर जेल)


नागरिकता : भारतीय

अन्य जानकारी : बलवंत सिंह 1915 में गिरफ्तार हुए और ब्रिटिश सरकार को सौंप दिए गए। दूसरे ‘लाहौर षड्यंत्र केस’ में उन पर भी मुकदमा चला और 29 मार्च, 1917 में लाहौर जेल में फाँसी दे दी गई।

शहीद बलवंत सिंह  स्वतंत्रता सेनानी थे और वह 10 वर्ष तक अंग्रेजों की सेना में थे।


💁🏻‍♂️ *जीवन परिचय*

            1905 में सेना से त्यागपत्र दे दिया और धार्मिक क्रियाकलापों में लग गए। कुछ समय बाद बलवंत सिंह अमेरिका होते हुए कनाडा पहुंचे। वहां उन्होंने देखा कि भारत की दासता के कारण और जातीय भेदभाव से भारत से गए लोगों के साथ बहुत बुरा बर्ताव किया जाता है। उन्होंने इसके विरोध में आवाज़ उठाई, किन्तु उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अब उनको विश्वास हो गया कि भारत से अंग्रेजों की सत्ता समाप्त होने पर ही इस भेदभाव का अंत संभव है। बलवंत सिंह ‘ग़दर पार्टी’ के संपर्क में आए। ‘कामागाटा मारु’ जहाज से भारत के लोगों को कनाडा के तट पर उतारने का प्रयत्न करने वालों में वे भी सम्मिलित थे। भारत आकर उन्होंने पंजाब में लोगों को विदेशी सरकार के विरुद्ध संगठित करने का प्रयत्न किया। वहां के लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल डायर ने लिखा कि बलवंत सिंह पंजाब में राजद्रोह फैला रहे थे।                                     🪔 *मृत्यु*

                     बलवंत सिंह बैंकाक गए हुए थे कि उन पर कनाडा के सिखों के विरुद्ध काम करने वाले हॉपकिन्सन की हत्या में सम्मिलित होने का आरोप लगाया गया। 1915 में गिरफ्तार हुए और ब्रिटिश सरकार को सौंप दिए गए। दूसरे ‘लाहौर षड्यंत्र केस’ में उन पर भी मुकदमा चला और 29 मार्च, 1917 में लाहौर जेल में फाँसी दे दी गई।                                               🇮🇳 *जयहिंद* 🇮🇳