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समाजकारण /राजकारण

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आद्य क्रांतिवीर राजे उमाजी नाईक

                                              


      *आद्य क्रांतिवीर*

         *राजे उमाजी नाईक* 🤺


       *जन्म : 7 सप्टेंबर 1791* 

         *(भिवडी, पुरंदर, पुणे)*


       *फाशी : 3 फेब्रुवारी 1832*

                   *(पुणे)*


            सासवडच्या सत्तू नाईकच्या नेतृत्वाखाली सर्वप्रथम रामोशी समाज एकत्रित आला. सत्तू नाईक, साता-याचा चित्तूरसिंग नाईक व पुरंदरचा उमाजी नाईक हे रामोशांचे प्रमुख नेते होते. पुण्याच्या आग्नेय भागात रामोशाची जास्त दहशत होती.

           सत्तू नाईकच्या नेतृत्वाखाली उमाजी नाईक व त्याचा भाऊ अमृता नाईक यांनी पुण्याजवळ भांबुर्ड्याचा लष्करी खजिना 1924 - 25 साली लुटला. पुण्यातून रामोशांच्या  हकालपट्टीसाठी ब्रिटिशांनी जवाहरसिंग रामोशी यास सासवडचा अंमलदार बनविले. पण  उमाजी व सत्तू नाईकाने जवाहरसिंग व त्याच्या मुलाच्या मुसक्या आवळल्याने त्याने इंग्रजांची नोकरी सोडून दिली.

          सत्तू नाईक नंतर रामोशांचे नेतृत्व उमाजी नाईकवडे आले. भूजाजी, कृष्णाजी, येसाजी व अमृता हे उमाजीचे विश्वासू सरदार होते. उमाजी स्वत: ला राजे समजून घेत असे. पुण्यातील पुरंदर तालुक्यातील भिवडी या गावी 1791 साली उमाजीचा जन्म झाला होता.

           ब्रिटिश काळात रामोशांची संख्या 18000 होती. दरम्यानच्या काळात उमाजीने एका यात्रेत तलवारीने कोतवालाचे तुकडे करून पोलिसात दहशत पसरवली. उमाजीला पकडण्यासाठी ब्रिटिशांनी 1826 साली पहिला जाहीरनामा काढला. यानुसार उमाजी व त्याचा साथीदार पांडुजी यांना पकडून देणा-यास 100 रुपये ईनाम जाहीर केले. पण त्याचा काहीच उपयोग झाला नाही. 

          सरकारने पुन्हा जाहीरनामा काढून ईनामाची रक्कम 1200 रूपये कली आणि जाहीरनाम्यात असे म्हटले की, "सरकारला मदत केली नाही तर बंडवाल्यात सामिल झालात, असे समजण्यात येईल." यावेळी उमाजीस पकडून देण्याचा विडा उचलणा-या  शिवनाक यास रामोशांनी ठार केले.

            त्यावेळी उमाजीचा धाक पुणे, सातारा, सांगली, कोल्हापूर, सोलापूर, अहमदनगर, जेजुरी, सासवड व मराठवाड्याच्या काही भागात होता. यावेळी पुण्याचा कलेक्टर एच . डी . रॉबर्टसन  याने वेळोवेळी जाहीरनामा काढून उमाजीला पकडण्याचे ठरविले. कोणीच गददारी न केल्यामुळे त्याच्या हाती काहीच आले नाही.

             रॉबर्टसनने दरम्यान कोकणावर वचक बसविण्याठी बंडखोरांची माहिती देणा-यासाठी खास बक्षिस जाहीर केले. या काळात उमाजीने ठाणे व रत्नागिरी जिल्हयातील लोकांनी ब्रिटिशांकडे महसूल न भरता उमाजीकडे दयावा असे जाहीर केले. याच्या परिणामस्वरूप भोर  संस्थानातील 13 गावानी उमाजीकडे महसुल भरला.

             शेवटी ब्रिटिशांनी उमाजीची बायको, दोन मुले व एक मुलगी यांना अटक केली. त्यामुळे कुटुंबाखातर उमाजी ब्रिटिशांना शरण आला. ब्रिटिशांनी त्याचे सर्व गुन्हे माफ करून त्याला सरकारी नोकरी दिली. पुणे व सातारा जिल्हयात शांतता व सुव्यवरथा राखण्याचे काम उमाजींकडे देण्यात आले. पण पुढे नंतर 13 गावांच्या महसुलावरुन उमाजी व ब्रिटिश यांच्यात वाद सुरू झाला. 

           1831 साली ब्रिटिशांनी जाहीरनामा प्रसिध्द करून उमाजीला पकडण्याची जबाबदारी कॅप्टन अलेक्झांडर व कॅप्टन मैकिन्तोश यांच्याकडे सोपविली. उमाजी, येसाजी, मुंजाजी व कृष्णाजी यांना पकडून देणा-यास 5000 रूपये व 2 बिघा जमीन बक्षीस देण्याचे जाहीर केले. त्यापैकी एकटया उमाजीस पकडून देणा-यास 2500 रूपये व 1 बिघा जमीन जाहीर करण्यात आली. बक्षीसाच्या आमिषाला बळी पडून एकेकाळचे त्याचे जवळचे साथीदार काळू रामोशी, नाना रामोशी यानी गददारी केली. उमाजीचा जुना शत्रु बापूसिंग यानेही त्यांना मदत केली. 15 डिसेंबर 1831 रोजी कॅप्टन मैकिन्तोशने पुण्याच्या मुळशी तालुक्यातील अवळस येथे उमाजीला  अटक केली. पुण्याच्या तहसिलदार कचेरीत 3 फेब्रुवारी 1832 रोजी उमाजीला फाशी देण्यात आली.  त्याठिकाणी आता पुतळा स्वातंत्र्याचा संदेश देत ठामपणे उभा आहे. 

          उमाजीचा पहिला चरित्रकार व उमाजीस पकडण्याच्या मोहीमेचा प्रमुख मैकिन्तोश म्हणतो, “उमाजीच्या नजरेसमोर शिवाजी राजांचे उदाहरण होते. स्वराज्य संस्थापक शिवाजी हे त्याचे श्रध्देय व स्फूर्तीचे स्थान होते. शिवाजीच त्याचा आदर्श होता. मोठमोठया लोकांनी मला स्वतः  सांगितले की, उमाजी हा काही असला तसला भटक्या दरोडेखोर नाही. त्याच्या नजरेसमोर नेहमी शिवाजीचे उदाहरण होते. शिवाजी महाराजांप्रमाणे आपण मोठे राज्य कमवावे, अशी त्याची इच्छा होती." 

          आम्हाला मात्र त्याने स्वातंत्र्यप्राप्तीसाठी इंग्रज सरकारशी दिलेल्या दीर्घकालीन लढ्याची जाणीव नाही हे आपल्या देशाचे दुर्देव होय.


         

कॕप्टन विक्रम बत्रा

 

 

            *कॕप्टन विक्रम बत्रा*

(परमवीर चक्र से सम्मानित पूर्व भारतीय सेना अधिकारी)


*जन्म : 9 सितम्बर 1974*

पालमपुर, हिमाचल प्रदेश, भारत

*विरगती : 7 जुलाई 1999 (उम्र 24)*

(कारगिल, जम्मू और कश्मीर, भारत)

 उपनाम : लव और शेर शाह                                                                  निष्ठा : भारत 

सेवा/शाखा :  भारतीय थलसेना

सेवा वर्ष : 1997–1999

उपाधि :  कैप्टन

सेवा संख्यांक : IC-57556

दस्ता : 13 जम्मू और कश्मीर रायफल्स

युद्ध/झड़पें : कारगिल युद्ध (ऑपेरशन विजय)

सम्मान : 🎖️ परम वीर चक्र🎖️                                 कैप्टन विक्रम बत्रा  भारतीय सेना के एक अधिकारी थे जिन्होंने कारगिल युद्ध में अभूतपूर्व वीरता का परिचय देते हुए वीरगति प्राप्त की। उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च वीरता सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।                ➖➖➖➖➖➖➖➖➖                                             संकलन ~ सुनिल हटवार ब्रम्हपुरी,

                चंद्रपूर, 9403183828                                   ➖➖➖➖➖➖➖➖➖                                 

💁🏻‍♂️ *प्रारंभिक जीवन*

पालमपुर निवासी जी.एल. बत्रा और कमलकांता बत्रा के घर 9 सितंबर 1974 को दो बेटियों के बाद दो जुड़वां बच्चों का जन्म हुआ। माता कमलकांता की श्रीरामचरितमानस में गहरी श्रद्धा थी तो उन्होंने दोनों का नाम लव और कुश रखा। लव यानी विक्रम और कुश यानी विशाल। पहले डीएवी स्कूल, फिर सेंट्रल स्कूल पालमपुर में दाखिल करवाया गया। सेना छावनी में स्कूल होने से सेना के अनुशासन को देख और पिता से देश प्रेम की कहानियां सुनने पर विक्रम में स्कूल के समय से ही देश प्रेम प्रबल हो उठा। स्कूल में विक्रम शिक्षा के क्षेत्र में ही अव्वल नहीं थे, बल्कि टेबल टेनिस में अव्वल दर्जे के खिलाड़ी होने के साथ उनमें सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर भाग लेने का भी जज़्बा था। जमा दो तक की पढ़ाई करने के बाद विक्रम चंडीगढ़ चले गए और डीएवी कॉलेज, चंडीगढ़ में विज्ञान विषय में स्नातक की पढ़ाई शुरू कर दी। इस दौरान वह एनसीसी के सर्वश्रेष्ठ कैडेट चुने गए और उन्होंने गणतंत्र दिवस की परेड में भी भाग लिया। उन्होंने सेना में जाने का पूरा मन बना लिया और सीडीएस (संयुक्त रक्षा सेवा परीक्षा) की भी तैयारी शुरू कर दी। हालांकि विक्रम को इस दौरान हांगकांग में मर्चेन्ट नेवी में भी नौकरी मिल रही थी जिसे इनके द्वारा ठुकरा दिया गया।


👮‍♂️ *सैन्य जीवन*

विज्ञान विषय में स्नातक करने के बाद विक्रम का चयन सीडीएस के जरिए सेना में हो गया। जुलाई 1996 में उन्होंने भारतीय सैन्य अकादमी देहरादून में प्रवेश लिया। दिसंबर 1997 में प्रशिक्षण समाप्त होने पर उन्हें 6 दिसम्बर 1997 को जम्मू के सोपोर नामक स्थान पर सेना की 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली। उन्होंने 1999 में कमांडो ट्रेनिंग के साथ कई प्रशिक्षण भी लिए। पहली जून 1999 को उनकी टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया। हम्प व राकी नाब स्थानों को जीतने के बाद विक्रम को कैप्टन बना दिया गया।


🗻 *5140 चोटी पर जीत* 🏔️

इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्त्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने की ज़िम्मेदारी कैप्टन बत्रा की टुकड़ी को मिली। कैप्टन बत्रा अपनी कंपनी के साथ घूमकर पूर्व दिशा की ओर से इस क्षेत्र की तरफ बडे़ और बिना शत्रु को भनक लगे हुए उसकी मारक दूरी के भीतर तक पहुंच गए। कैप्टेन बत्रा ने अपने दस्ते को पुर्नगठित किया और उन्हें दुश्मन के ठिकानों पर सीधे आक्रमण के लिए प्रेरित किया। सबसे आगे रहकर दस्ते का नेतृत्व करते हुए उन्होनें बड़ी निडरता से शत्रु पर धावा बोल दिया और आमने-सामने के गुतथ्मगुत्था लड़ाई मे उनमें से चार को मार डाला। बेहद दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 को सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को अपने कब्ज़े में ले लिया।कैप्टन विक्रम बत्रा ने जब इस चोटी से रेडियो के जरिए अपना विजय उद्घोष ‘यह दिल मांगे मोर’ कहा तो सेना ही नहीं बल्कि पूरे भारत में उनका नाम छा गया। इसी दौरान विक्रम के कोड नाम शेरशाह के साथ ही उन्हें ‘कारगिल का शेर’ की भी संज्ञा दे दी गई। अगले दिन चोटी 5140 में भारतीय झंडे के साथ विक्रम बत्रा और उनकी टीम का फोटो मीडिया में आ गयी।


 🏔️ *4875 वाली संकरी चोटी पर जीत*

इसके बाद सेना ने चोटी 4875 को भी कब्ज़े में लेने का अभियान शुरू कर दिया और इसके लिए भी कैप्टन विक्रम और उनकी टुकड़ी को जिम्मेदारी दी गयी। उन्हें और उनकी टुकड़ी एक ऐसी संकरी चोटी से दुश्मन के सफ़ाए का कार्य सौंपा गया जिसके दोनों ओर खड़ी ढलान थी और जिसके एकमात्र रास्ते की शत्रु ने भारी संख्या में नाकाबंदी की हुई थी। कार्यवाई को शीग्र पूरा करने के लिए कैप्टन विक्रम बत्रा ने एक संर्कीण पठार के पास से शत्रु ठिकानों पर आक्रमण करने का निर्णय लिया। आक्रमण का नेतृत्व करते हुए आमने-सामने की भीषण गुत्थमगुत्था लड़ाई में अत्यन्त निकट से पांच शत्रु सैनिकों को मार गिराया। इस कार्यवाही के दौरान उन्हें गंभीर ज़ख्म लग गए। गंभीर ज़ख्म लग जाने के बावजूद वे रेंगते हुए शत्रु की ओर बड़े और ग्रेनेड फ़ेके जिससे उस स्थान पर शत्रु का सफ़ाया हो गया। सबसे आगे रहकर उन्होंने अपने साथी जवानों को एकत्र करके आक्रमण के लिए प्रेरित किया और दुश्मन की भारी गोलीबारी के सम्मुख एक लगभग असंभव सैन्य कार्य को पूरा कर दिखाया। उन्होंने जान की परवाह न करते हुए अपने साथियों के साथ, जिनमे लेफ्टिनेंट अनुज नैयर भी शामिल थे, कई पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतारा। किंतु ज़ख्मों के कारण यह अफ़सर वीरगति को प्राप्त हुए।


उनके इस असाधारण नेतृत्व से प्रेरित उनके साथी जवान प्रतिशोध लेने के लिए शत्रु पर टूट पड़े और शत्रु का सफ़ाया करते हुए प्वॉइंट 4875 पर कब्ज़ा कर लिया।


कैप्टन बत्रा के पिता जी.एल. बत्रा कहते हैं कि उनके बेटे के कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टीनेंट कर्नल वाई.के. जोशी ने विक्रम को शेर शाह उपनाम से नवाजा था।


         🎖️ *सम्मान* 🎖️

इस प्रकार कैप्टन विक्रम बत्रा ने शत्रु के सम्मुख अत्यन्त उतकृष्ट व्यक्तिगत वीरता तथा उच्चतम कोटि के नेतृत्व का प्रदर्शन करते हुए भारतीय सेना की सर्वोच्च परंपराओं के अनुरूप अपना सर्वोच्च बलिदान दिया।


इस अदम्य साहस और पराक्रम के लिए कैप्टन विक्रम बत्रा को 15 अगस्त 1999 को भारत सरकार द्वारा मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया जो 7 जुलाई 1999 से प्रभावी हुआ।       

    

         

डॉ. वर्गीस कुरियन

                                                

 

              *डॉ. वर्गीस कुरियन*

         (दुग्ध/श्वेत क्रांती के जनक)

अन्य नाम : अमूल मैन, मिल्क मैन ऑफ़ इंडिया

          *जन्म : 26 नवंबर, 1921*

              मद्रास (अब चेन्नई)

          *मृत्यु : 9 सितम्बर, 2012*

             (नाडियाड, गुजरात)

पत्नी : मॉली कुरियन

कर्म भूमि : भारत

पुरस्कार-उपाधि : 'पद्म श्री', 'पद्म भूषण', 'पद्म विभूषण', 'रेमन मैग्सेसे पुरस्कार'।

विशेष योगदान : भारत में दुग्ध क्रान्ति, जिसे 'श्वेत क्रान्ति' भी कहा जाता है, के जनक माने जाते हैं।

नागरिकता : भारतीय

अन्य जानकारी : वर्गीज़ कुरियन और श्याम बेनेगल ने मिलकर राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फ़िल्म 'मंथन' की कहानी भी लिखी, जिसे क़रीब 5 लाख किसानों ने वित्तीय सहायता दी। विश्व बैंक ने ग़रीबी उन्मूलन के लिए अमूल मॉडल को चिन्हित किया है। अमूल मॉडल को व्यापक और लोकप्रिय बनाने में वर्गीज़ की बड़ी भूमिका रही है।

               वर्गीज़ कुरियन भारत में दुग्ध क्रान्ति, जिसे 'श्वेत क्रान्ति' भी कहा जाता है, के जनक माने जाते हैं। भारत को दुनिया का सर्वाधिक दुग्ध उत्पादक देश बनाने के लिए श्वेत क्रांति लाने वाले वर्गीज़ कुरियन को देश में सहकारी दुग्ध उद्योग के मॉडल की आधारशिला रखने का श्रेय जाता है।

💁🏻‍♂️ *जीवन परिचय*

देश में 'श्वेत क्रांति के जनक' और 'मिल्कमैन' के नाम से मशहूर वर्गीज़ कुरियन की अथक मेहनत का ही नतीजा था कि दूध की कमी वाला यह देश दुनिया के सबसे बड़े दूध उत्पादक देशों में शुमार हुआ। 'श्वेत क्रांति' और दूध के क्षेत्र में सहकारी मॉडल के ज़रिये लाखों ग़रीब किसानों की ज़िंदगी संवारने वाली शख्सियत डॉ. वर्गीज़ कुरियन का जन्म 26 नवंबर, 1921 को मद्रास (अब चेन्नई) में हुआ। उनके परिवार में पत्नी मॉली कुरियन और एक बेटी है।


📚 *शिक्षा*

जमशेदपुर स्थित 'टिस्को' में कुछ समय काम करने के बाद कुरियन को डेयरी इंजीनियरिंग में अध्ययन करने के लिए भारत सरकार की ओर से छात्रवृत्ति दी गई। बेंगलुरु के 'इंपीरियल इंस्टीट्यूट ऑफ एनिमल हजबेंड्री एंड डेयरिंग' में विशेष प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद कुरियन अमेरिका गए, जहां उन्होंने 'मिशीगन स्टेट यूनिवर्सिटी' से 1948 में मैकेनिकल इंजीनियरिंग में अपनी मास्टर डिग्री हासिल की, जिसमें डेयरी इंजीनियरिंग भी एक विषय था। भारत लौटने पर कुरियन को अपने बांड की अवधि की सेवा पूरी करने के लिए गुजरात के आणंद स्थित सरकारी क्रीमरी में काम करने का मौका मिला। 1949 के अंत तक कुरियन को क्रीमरी से कार्यमुक्त करने का आदेश दे दिया गया।


💦 *श्वेत क्रांति के जनक*

वर्गीज़ कुरियन ने 1949 में 'कैरा ज़िला सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ लिमिटेड' के अध्यक्ष त्रिभुवन दास पटेल के अनुरोध पर डेयरी का काम संभाला। सरदार वल्लभभाई पटेल की पहल पर इस डेयरी की स्थापना की गयी थी। वर्गीज़ कुरियन ने महाराष्ट्र के 60 लाख किसानों की 60 हज़ार कोऑपरेटिव सोसायटियाँ बनाईं, जो प्रतिदिन तीन लाख टन दूध सप्लाई करती हैं। इसी को श्वेत क्रान्ति और ‘ओपरेशन फ़्लड’ के नाम से भी पुकारा जाता है। इस महान् कार्य से जहाँ किसानों का भला हुआ, वहीं पर आम लोगों को दूध की उपलब्धि में भी सुविधा हुई। इन कार्यों के कारण इन्हें अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। डॉ. कुरियन ने साल 1973 में 'गुजरात कोऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन' की स्थापना की और 34 साल तक इसके अध्यक्ष रहे। इसी कारण इन्हें श्वेत क्रांति का जनक कहा जाता है।

👨🏻 *अमूल मैन*

उन्होंने अपनी प्रतिभा के बल पर सरकारी छात्रवृति अर्जित करने के साथ-साथ अमेरिका के 'मिचिगन स्टेट विश्वविद्यालय' से 1948 में विज्ञान में स्नातकोत्तर की उपाद्यि ग्रहण की। इसके बाद अमेरिका से भारत वापस आने के बाद उन्होंने भारत सरकार के डेयरी विभाग में डेयरी इंजीनियर के पद पर गुजरात के आनन्द में 1949 आसीन हुए। 7 माह के सरकारी सेवा के बाद उनका मन वहां नहीं रमा। उनके दिलो-दिमाग में कुछ विशेष करने की लहरें रह रह कर उनको सरकारी बंधन से मुक्त होने के लिए उद्देल्लित कर रही थी। इसके बाद वे 'केडीसीएमपीयूल' के मैनेजर बन गये जो आज अमूल के नाम से विश्वविख्यात है।

🐃 *अमूल की सफलता*

भारत में कुरियन और उनकी टीम ने भैंस के दूध से मिल्क पाउडर और कंडेस्ड मिल्क बनाने की तकनीक विकसित की। इस तकनीक को अमूल की कामयाबी की प्रमुख वजहों में शुमार किया जाता है। कंपनी ने इसके बलबूते 'नेस्ले' जैसी शीर्ष कंपनी को कड़ी टक्कर दी, जो मिल्क पाउडर और कंडेस्ड मिल्क बनाने के लिए सिर्फ गाय के दूध का प्रयोग करती थी। यूरोप में गाय के दूध के विपरीत भारत में भैंस का दूध अधिक उपयोग होता है। अमूल ने वर्ष 2011 में दो अरब डॉलर का कुल कारोबार किया। जबकि उसने अपने 50 साल के इतिहास में कभी किसी सेलेब्रिटी को प्रचार में इस्तेमाल नहीं किया।

🐄 *राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड*

अमूल की सफलता से अभिभूत होकर तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने 'राष्ट्रीय दुग्ध विकास बोर्ड' (एनडीडीबी) का गठन किया। जिससे पूरे देश में अमूल मॉडल को समझा और अपनाया गया। कुरियन को बोर्ड का अध्यक्ष बनाया गया। एनडीडीबी ने 1970 में ‘ऑपरेशन फ्लड’ की शुरूआत की जिससे भारत दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश बन गया। कुरियन ने 1965 से 1998 तक 33 साल एनडीडीबी के अध्यक्ष के तौर पर सेवाएं दीं। वे 'विकसित भारत फाउंडेशन' के प्रमुख रहे। उन्होंने असंगठित ग्रामीण भारत के दुग्ध उत्पादकों को जहां आर्थिक मजबूती दिला कर सम्मान दिलाया वहीं पूरे विश्व को एक दिशा दिखाई।


60 के दशक में भारत में दूध की खपत जहाँ दो करोड़ टन थी वहीं 2011 में यह 12.2 करोड़ टन पहुंच गयी। कुरियन के निजी जीवन से जुड़ी एक रोचक और दिलचस्प बात यह है कि देश में ‘श्वेत क्रांति’ लाने वाला और ‘मिल्कमैन ऑफ इंडिया’ के नाम से मशहूर यह शख़्स खुद दूध नहीं पीता था।

🎖️ *सम्मान और पुरस्कार*

भारत सरकार ने वर्गीज़ कुरियन को पद्म श्री (1965), पद्म भूषण (1966), पद्म विभूषण (1999) से सम्मानित किया था। उन्हें सामुदायिक नेतृत्व के लिए रेमन मैग्सेसे पुरस्कार (1963), 'कार्नेगी वाटलर विश्व शांति पुरस्कार', 'वर्ल्ड फ़ूड प्राइज़' (1989),'विश्व खाद्य पुरस्कार' (1989), 'कृषि रत्न' (1986), और अमेरिका के 'इंटरनेशनल परसन ऑफ द ईयर सम्मान' से भी नवाजा गया। इसके अतिरिक्त 'मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी' और 'तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय' समेत कई संस्थानों ने डॉक्टरेट की उपाधि दी।

वर्गीज़ कुरियन और श्याम बेनेगल ने मिलकर राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फ़िल्म 'मंथन' की कहानी भी लिखी, जिसे क़रीब 5 लाख किसानों ने वित्तीय सहायता दी। विश्व बैंक ने ग़रीबी उन्मूलन के लिए अमूल मॉडल को चिन्हित किया है। अमूल मॉडल को व्यापक और लोकप्रिय बनाने में वर्गीज़ की बड़ी भूमिका रही है। ‘अमूल’ के महत्त्व का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि स्वयं जवाहरलाल नेहरू इसके उद्घाटन के अवसर पर आए थे।

🕯️ *निधन*

अरबों रुपए वाले ब्रांड ‘अमूल’ को जन्म देने वाले कुरियन का 9 सितम्बर 2012 को सुबह 90 वर्ष की आयु में नाडियाड, गुजरात में निधन हो गया।

      

         

शिरीषकुमार मेहता

                                       


               *बालशहीद*

         *शिरीषकुमार मेहता*


          *जन्म : 28 डिसेंबर 1926*

          (नंदुरबार , महाराष्ट्र , भारत)


          *वीरमरण : 9 सप्टेंबर 1942* 

                 *(वय 15)* 

          (नंदुरबार , महाराष्ट्र , भारत)


राष्ट्रीयत्व : भारतीय


साठी प्रसिद्ध : भारतीय स्वातंत्र्य  

                     चळवळ


           पाताळगंगा नदीच्या काठी चार डोंगराच्या कुशीत वसलेल्या नंदनगरी अर्थात नंदुरबार शहराची पूर्वापार ओळख ही व्यापाऱ्यांची वसाहत म्हणूनच. या गावात १९२६ मध्ये एका व्यापाऱ्याच्या घरात शिरीषकुमारांचा जन्म झाला. त्याच्यासह पाच संवगड्यांनी स्वातंत्र्य लढ्यात प्राणाची आहुती दिली. त्यामुळे या गावाचे नाव देशाच्या कानाकोपऱ्यात पोचले. नंदुरबार हे आता कुठे अंदाजे एक लाख लोकसंख्येचे छोटेसे गाव आहे. परस्परांना ओळखणारे आणि स्नेह जाणणारे लोक आहेत. घराघरांतून चालणारा व्यापार आणि देवाणघेवाण हे महत्त्व जाणून पूर्वापार अनेक ज्येष्ठ प्रवाशांनी या गावाला भेटी दिल्या आहेत. प्रसिद्ध प्रवासी ट्‌वेनियरने १६६० ला श्रीमंत आणि समृद्धनगरी असे नंदुरबारचे वर्णन केले आहे, तर नंद नावाच्या गवळी राजाने हे गाव वसविल्याची आख्यायिका आहे. ऐन-ए-अकबरी (इ.स. १५९०) मध्ये नंदुरबारचा उल्लेख किल्ला असलेले आणि सुबक घरांनी सजलेले शहर असा आहे.


         नंदुरबारमध्ये बाळा शंकर इनामदार नावाचे एक व्यापारी होते. त्यांचा तेलाचा व्यापार होता. त्यांना मुलगा नसल्याने ते काहीसे दु:खी होते. त्यांनी पुत्रप्राप्तीसाठी दुसरा विवाह केला. त्यांना कन्याप्राप्ती झाली. ही कन्या त्यांनी पुष्पेंद्र मेहता यांना सोपवली. १९२४ ला पुष्पेंद्र व सविता यांचा विवाह झाला. २८ डिसेंबर १९२६ ला या दांपत्याच्या पोटी, मेहता घराण्यात शिरीषकुमारचा जन्म झाला. या काळात देशातील अन्य गावे व शहरांप्रमाणेच नंदुरबारचेही वातावरण स्वातंत्र्यलढ्याच्या प्रेरणेने भारलेले होते. स्वातंत्र्य प्राप्तीसाठी सामान्यांनी काय करायचे तर हाती तिरंगा झेंडा घेऊन प्रभातफेरी, मशाल मोर्चे काढायचे. देशप्रेमांनी ओतप्रोत घोषणा द्यायच्या! नंदुरबारमधील अशा कामात मेहता परिवाराचा सहभाग होता. शिरीष वयपरत्वे शाळेत जाऊ लागला होता आणि त्याच्यावर महात्मा गांधी व नेताजी सुभाषचंद्र बोस यांचा मोठा प्रभाव होता. त्या काळात "वंदे मातरम्‌' आणि "भारत माता की जय' असा जयघोष करणाऱ्या कोणालाही पोलिस अटक करू शकत होते.


🇮🇳 *नहीं नमशे, नहीं नमशे !*

        महात्मा गांधींनी ९ ऑगस्ट १९४२ ला इंग्रजांना "चले जाव'चा आदेश दिला. त्यानंतर गावोगावी प्रभात फेऱ्या, ब्रिटिशांना इशारे दिले जाऊ लागले. बरोबर महिनाभरानंतर, ९ सप्टेंबर १९४२ ला नंदुरबारमध्ये निघालेल्या प्रभात फेरीत आठवीत शिकत असलेला शिरीष सहभागी झाला होता. गुजराथी मातृभाषा असलेल्या शिरीषने प्रभात फेरीत घोषणा सुरू केल्या, "नहीं नमशे, नहीं नमशे', "निशाण भूमी भारतनु'. भारत मातेचा जयघोष करीत ही फेरी गावातून फिरत होती. मध्यवर्ती ठिकाणी ती फेरी पोलिसांनी अडवली. शिरीषकुमारच्या हातात झेंडा होता. पोलिसांनी ही मिरवणूक विसर्जित करण्याचे आवाहन केले. या बालकांनी ते आवाहन झुगारले आणि "भारत माता की जय', "वंदे मातरम्‌'चा जयघोष सुरूच ठेवला. अखेर पोलिसांनी गोळीबार सुरू केला. एका पोलिस अधिकाऱ्याने मिरवणुकीत सहभागी मुलींच्या दिशेने बंदूक रोखली. तेव्हा त्या अधिकाऱ्याला एका चुणचुणीत मुलाने सुनावले, *"गोळी मारायची तर मला मार!'*. ती वीरश्री संचारलेला मुलगा होता, शिरीषकुमार मेहता! संतापलेल्या पोलिस अधिकाऱ्याच्या बंदुकीतून सुटलेल्या, एक, दोन, तीन गोळ्या शिरीषच्या छातीत बसल्या आणि तो जागीच कोसळला. त्याच्यासोबत पोलिसांच्या गोळीबारात लालदास शहा, धनसुखलाल वाणी, शशिधर केतकर, घनश्‍यामदास शहा हे अन्य चौघेही शहीद झाले.

         

अर्जुन लाल सेठी

 

              *अर्जुन लाल सेठी*  

                (स्वतंत्रता सेनानी)

          *जन्म : 9 सितम्बर 1880*

           (जयपुर, राजस्थान)

          *मृत्यु : 23 दिसम्बर 1941*

नागरिकता : भारतीय

प्रसिद्धि : स्वतंत्रता सेनानी

अन्य जानकारी : अर्जुन लाल सेठी अजमेर में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर मुसलमान बच्चों को अरबी और फ़ारसी पढ़ाते थे, यहीं पर उनका निधन हुआ। दरगाह के लोगों ने उन्हें मुस्लिम समझकर दफना दिया।

          अर्जुन लाल सेठी भारत के स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे। दिल्ली में चाँदनी चौक से जब गवर्नर-जनरल लॉर्ड हार्डिंग का जुलूस गुजर रहा था, तब इस पर बम फेंका गया। बम फेंकने की यह योजना अर्जुन लाल सेठी द्वारा बनाई गई थी। अतः सेठी को गिरफ्तार कर लिया गया। उनके खिलाफ कोई सबूत ना मिलने से उन्हें सजा तो नहीं दी जा सकी, फिर भी बिना मुकदमा चलाए सेठी को जेल में बंद रखा गया। सन 1920 में जब राजनीतिक कैदियों को क्षमा किया गया तो अर्जुन लाल सेठी को भी छोड़ दिया गया। जेल से आने के बाद इनका कार्य स्थल अजमेर हो गया।


अर्जुन लाल सेठी का जन्म 9 सितंबर, 1880 ई. को जयपुर के एक जैन परिवार में हुआ था। 1902 में उन्होंने इलाहाबाद से बीए की परीक्षा पास की। इसके बाद वह चोमूँ के ठाकुर देवी सिंह के शिक्षक नियुक्त हुए। 1960 में उन्होंने लोगों को राजनीतिक शिक्षा देने के लिए जयपुर में वर्धमान विद्यालय की स्थापना की। प्रत्यक्ष रुप से वह एक धार्मिक विद्यालय था, किंतु वास्तव में यहां क्रांतिकारियों को प्रशिक्षण दिया जाता था। इस विद्यालय में न केवल राजस्थान से बल्कि देश के अन्य भागों से भी क्रांतिकारी प्रशिक्षण लेने आते थे। धीरे-धीरे अर्जुन लाल सेठी का स्कूल राजस्थान में क्रांतिकारियों की गतिविधियों का अड्डा बन गया।


💥 *क्रांतिकारी गतिविधियाँ*

क्रांतिकारी आंदोलन को चलाने के लिए धन की आवश्यकता थी। अतः अर्जुन लाल सेठी ने मुग़लसराय स्थित एक धनी महंत की हत्या कर उसका धन प्राप्त करने की योजना बनाई। सेठी ने वर्धमान विद्यालय के शिक्षक विष्णुदत्त के नेतृत्व में 4 विद्यार्थियों को बनारस भेजा। इस दल ने 20 मार्च, 1913 को महंत और उसके नौकर की हत्या कर दी, लेकिन दुर्भाग्य से उनके हाथ कुछ भी नहीं लगा। हत्याकांड में भाग लेने वाले सभी क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया और उनमें से एक छात्र मोतीचंद को फांसी दे दी गई और विष्णुदत्त को आजीवन कारावास की सजा दी गई। सबूत के अभाव में अर्जुन लाल सेठी को गिरफ्तार नहीं किया जा सका।


⛓️ *गिरफ़्तारी*

23 दिसंबर को भारत के गवर्नर-जनरल लॉर्ड हार्डिंग का जुलूस दिल्ली में जब चाँदनी चौक से गुजरा, तभी उस पर बम फेंका गया। सामान्यतः यह माना जाता है कि बम फेंकने वाले प्रसिद्ध क्रांतिकारी रास बिहारी बोस थे, किंतु वास्तव में यह बम राजस्थान के क्रांतिकारी ठाकुर जोरावर सिंह बारहठ ने बुर्का ओढ़कर चांदनी चौक में स्थित मारवाड़ी लाइब्रेरी से फेंका था। हार्डिंग बम कांड के सिलसिले में जो व्यक्ति बंदी बनाए गए, उनमें राजस्थान के प्रमुख क्रांतिकारी बालमुकुंद, मोतीचंद और विष्णुदत्त भी थे। इस मुकदमे के मुखबिर अमीरचंद ने अपनी गवाही देते समय यह रहस्य उद्घाटन किया कि षड्यंत्र की योजना अर्जुन लाल सेठी के द्वारा तैयार की गई थी। अतः सेठी को गिरफ्तार कर लिया गया।


⛓️ *सज़ा*

अर्जुन लाल सेठी के खिलाफ कोई सबूत ना मिलने से उन्हें सजा तो नहीं दी जा सकी, फिर भी बिना मुकदमा चलाए सेठी को जेल में बंद रखा गया। बाद में 5 अगस्त, 1914 को जयपुर के महाराज के आदेश से उन्हें 5 वर्ष का कारावास मिला। सरकार को भय था कि जयपुर जेल में अर्जुन लाल सेठी की उपस्थिति से जयपुर की शांति और व्यवस्था खतरे में पड़ सकती है, इसलिए सेठी को वेल्लोर (मद्रास) जेल में भेज दिया गया।


♦️ *रिहाई*

वेल्लोर में अर्जुन लाल सेठी ने राजनीतिक कैदियों के साथ किए जाने वाले दुर्व्यवहार के खिलाफ 70 दिन की भूख हड़ताल रखी। सन 1920 में जब राजनीतिक कैदियों को क्षमा किया गया तो सेठी को भी छोड़ दिया गया।


💥 *क्रांतिकारियों से सम्बंध*

जेल से आने के बाद अर्जुन लाल सेठी का कार्य स्थल अजमेर हो गया। उनके पास प्रसिद्ध क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद और उनके दल के लोग मार्गदर्शन के लिए आते थे। उन्होंने मेरठ षड्यंत्र कांड के अभियुक्त शौकत उस्मानी और काकोरी कांड के फरार अभियुक्त अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ को अपने घर में शरण दी थी।


🪔 *मृत्यु*

गांधीवादी कांग्रेसियों के षड्यंत्र के कारण अर्जुन लाल सेठी कांग्रेस से अलग हो गए। उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। उन्होंने अपना जीवन निर्वाह करने के लिए अजमेर में ही ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर मुसलमान बच्चों को अरबी और फ़ारसी पढ़ाना शुरू कर दिया था और यहीं पर 23 दिसंबर, 1941 को उनका निधन हो गया। दरगाह के लोगों ने उन्हें मुस्लिम समझकर दफना दिया। राजस्थान की राजनीतिक चेतना जागृत करने वाले नायकों में अर्जुन लाल सेठी अग्रणीय हैं।

      

         

भारतरत्न आचार्य विनोबा भावे


          

      *भारतरत्न आचार्य विनोबा भावे*

(अहिंसा आणि मानवाधिकाराचे भारतीय पुरस्कर्ता, भूदान चळवळीचे प्रवर्तक)


पुर्ण नाव : विनायक नरहरी भावे

        *जन्म : ११ सप्टेंबर १८९५*

         (गागोदे, पेण , जि. रायगड)

        *मृत्यू : १५ नोव्हेंबर १९८२*                                             (लक्ष्मीपूजन -दिवाळी)

        (पवनार, वर्धा, महाराष्ट्र, भारत)

चळवळ : भारतीय स्वातंत्र्यलढा,

भूदान चळवळ

पुरस्कार : भारतरत्न पुरस्कार (१९८३)

धर्म : हिंदू

प्रभाव : महात्मा गांधी

वडील : नरहर शंभूराव भावे

आई : रखुमाबाई नरहर भावे

                विनायक नरहरी भावे (आचार्य विनोबा भावे नावाने प्रसिद्ध)  हे भारतीय स्वातंत्र्यसैनिक व भूदान चळवळीचे प्रणेते होते. महात्मा गांधींनी १९४० मध्ये 'वैयक्तिक सत्याग्रह' पुकारला, त्यावेळीही पहिले सत्याग्रही म्हणून त्यांनी आचार्य विनोबा भावे यांची निवड केली. ब्रिटिश राजविरोधी या आंदोलनाचे पर्यवसान १९४२ मध्ये 'छोडो भारत' आंदोलनात झाले. भावे पुढे सर्वोदयी नेते म्हणून प्रसिद्ध झाले.

💁🏻‍♂️ *सुरुवातीचे जीवन*

(११ सप्टेंबर १८९५ - १५ नोव्हेंबर १९८२). थोर गांधीवादी आचार्य व भूदान चळवळीचे प्रवर्तक. कोकणातील रायगड जिल्ह्यातील पेण तहसिलातील गागोदे या गावी विनोबा तथा विनायक नरहर भावे यांचा जन्‍म झाला. आजोबांचे नाव शंभुराव भावे. शंभुराव भावे यांचे जन्मगाव वाई. त्यांच्या अनेक पिढ्यांचे वास्तव्य वाई येथे होते. वाईच्या ब्राम्हणशाही या मोहल्ल्यात कोटेश्वर मंदिर आहे. हे भावे यांच्या मालकीचे असून तेथे शंभुरावांनी अग्‍निहोत्र स्वीकारून अग्‍निहोत्र शाळा स्थापली होती. आजोबा आणि मातुश्रींपासून धर्मपरायणतेचे संस्कार विनोबांना मिळाले. त्यांचे वडील नरहरी शंभुराव भावे व आई रखुमाबाई. वडील नोकरीच्या निमित्ताने बडोदे येथे गेले. विनोबांचे माध्यमिक आणि उच्च शिक्षण बडोदे येथेच झाले. १९१६ साली महाविद्यालयीन इंटरची परीक्षा देण्यासाठी ते मुंबईस जाण्यास निघाले; परंतु वाटेतच सुरतेस उतरून आईवडिलांना न कळविताच वाराणसी येथे रवाना झाले. त्यांना दोन गोष्टींचे आकर्षण होते. एक हिमालय व दुसरे बंगालचे सशस्त्र क्रांतिकारक, वाराणसी येथे हिंदु विश्वविद्यालयातील एका समारंभात महात्मा गांधीचे भाषण झाले. त्याचा त्यांच्या मनावर खोल परिणाम झाला. हिमालयातील अध्यात्‍म आणि बंगालमधील क्रांती यांच्या दोन्ही प्रेरणा महात्मा गांधीच्या उक्तीत आणि व्यक्तिमत्त्वात त्यांना आढळल्या. त्यांनी महात्मा गांधींशी पत्रव्यवहार केला व गांधींची कोचरब आश्रमात ७ जून १९१६ रोजी भेट घेतली आणि तेथेच त्या सत्याग्रहश्रमात नैष्ठिक ब्रह्मचर्याची प्रतिज्ञा करून जीवनसाधना सुरू केली. ऑक्टोबर १९१६ रोजी महात्मा गांधींची एक वर्षांची रजा घेऊन ते वाई येथे प्राज्ञपाठशाळेत वेदान्ताच्या अध्ययनाकरिता उपस्थित झाले. ब्रह्यविद्येची साधना त्यांचा जीवनोद्देश होता.


*जीवन कार्य*

🇮🇳 *स्वातंत्र्य लढा*

                     महात्मा गांधींसोबत

ते भारतीय स्वातंत्र्य लढ्यामध्ये महात्मा गांधींसोबत होते. स्वातंत्र्य लढ्यातील सहभागाबद्दल सन १९३२ मध्ये त्यांना तुरुंगवास घडला.


🔮 *सामाजिक व धार्मिक कार्य*

            वाई येथील प्राज्ञपाठशाळा मंडळाचे संस्थापक व मुख्याध्यापक स्वामी केवलानंद सरस्वती (पूर्वाश्रमीचे नारायणशास्त्री मराठे) यांच्यापाशी विनोबांनी उपनिषदे, ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य, पांतजलयोगसूत्रे इ. विषयांचे अध्ययन केले. माहुली येथील स्वामी कृष्णानंद यांच्या आश्रमातील काही प्रौढ विद्यार्थी-शिवनामे, वि. का. सहस्रबुद्धे इत्यादी मंडळीही त्यांच्याबरोबर सहाध्यायी होती. दिनकरशास्त्री कानडे व महादेवशास्त्री दिवेकर हे प्राज्ञपाठशाळेची व्यवस्थापनाची व अन्य प्रकारची कामे पाहत होते. प्रत्येक सोमवार हा या पाठशाळेचा सुटीचा म्हणजे अनध्ययनाचा दिवस असे. त्या दिवशी पाठशाळेची अंगमेहनतीची कामे शिक्षक-विद्यार्थी उरकत असत आणि प्रज्ञानंदस्वामींच्या समाधिस्थानाच्या सभागृहात विद्यार्थी व शिक्षक यांच्या शास्त्रार्थ चर्चेकरता साप्ताहिक सभा भरत. चर्चेचे विषय सामाजिक, धार्मिक, तात्‍त्‍विक हे असतच; परंतु त्याबरोबर प्रचलित राजकारणाची अनेक बाजूंनी मीमांसाही चालत असे. दिनकरशास्त्री कानडे हे सेनापती बापट, स्वातंत्र्यवीर सावरकर, योगी अरविंद घोष इत्यादी सशस्त्र क्रांतीकारकांच्या मार्गाने चालणाऱ्या एका गुप्त कटाचे सदस्य होते. सशस्त्र क्रांतीच्या तत्त्वज्ञानाचा ते पुरस्कार करीत. विनोबांच्याप्रमाणेच त्यांचेही वक्‍तृत्व अमोघ होते. अहिंसक क्रांताची वैचारिक भूमिका विनोबा मोठ्या परिणामकारक रीतीने या साप्ताहिक सभांमध्ये मांडीत असत. १९१७ साली हिवाळ्यात वाई येथे प्लेगची साथ उद्‍‌भवली. कृष्णेच्या दक्षिण तीरावर राहुट्या आणि पर्णशाला उभारून त्यांत प्राज्ञपाठशाळेचे विद्यार्थी व शिक्षक जवळजवळ ४ महिने राहिले. वेदान्ताचे व इतर शास्त्रांचे पाठ त्यांतील एका विस्तृत पर्णशालेमध्ये चालत असत. विनोबा पर्णशालेबाहेरच्या कृष्णाकाठच्या आम्रवृक्षाच्या छायेखाली उपनिषदांचे व शांकरभाष्याचे उच्च स्वरात वाचन करीत, हळूहळू सावकाश फेऱ्या मारीत असत. त्यांचे ते प्रसन्न वाचन ऐकून स्वामी केवलनंदांच्या मनावर विनोबाजींच्या व्यक्तिमत्त्वाची खूप खोल छाप पडली, विनोबांनी वेदान्ताविषयामध्ये खूप वेगाने १० महिन्यांत प्रगती केली. आपण कोणकोणत्या ग्रंथांचे व विषयांचे अध्ययन केले याचा सविस्तर वृतान्त त्यांनी महात्मा गांधींना कळवला. गांधीं हे वृत्तान्तपत्र वाचून अत्यंत विस्मित झाले. त्या पत्राच्या उत्तरात म. गांधींनी अखेर म्हटले की, " ए गोरख, तूने मच्छिंदरको भी जीत लिया है !".


                    विनोबा वाईहून परत अहमदाबादला फेब्रुवारी १९१८ मध्ये परतले. १९१८ साली एन्फ्ल्यूएंझाची साथ देशभर पसरली. लक्षावधी लोक त्या साथीला बळी पडले. त्यात विनोबांचे वडील, मातुश्री आणि सगळ्यात धाकटा भाऊ दत्तात्रय हे आजारी पडले. ही गोष्ट महात्मा गांधीना कळल्यावर त्यांनी विनोबांना मातुश्रींच्या शुश्रूषेकरता बडोद्यास जाण्याचा आग्रह धरला. विनोबा तयार नव्हते. गांधीनी त्यांचे मन वळवले. आई आणि धाकटा भाऊ या रोगाला बळी पडले. वडील बरे झाले. विनोबा सर्वांत ज्येष्ठ पुत्र, म्हणून आईचा अंत्यविधी त्यांनीच करणे प्राप्त होते. पुरोहिताकडून अंत्यविधीचा संस्कार करवून घेणे विनोबांना मान्य नव्हते. म्हणून ते स्मशानात गेले नाहीत. वडिलांनी पद्धतीप्रमाणे अंत्यविधी उरकून घेतला.


१९२१ साली गांधींचे भक्त शेठ जमनालाल बजाज यांनी साबरमतीच्या सत्याग्रह आश्रमाची शाखा वर्ध्याला काढली. त्या शाखेचे संचालक म्हणून महात्मा गांधीनी विनोबांची रवानगी वर्ध्यास केली. ८ एप्रिल १९२१ रोजी विनोबा वर्ध्याला पोहोचले. आतापर्यंत संबंध आयुष्य -१९५१ ते ७३ पर्यंतची भूदानयात्रा सोडल्यास या वर्ध्याच्या आश्रमातच राहून विनोबांनी तपश्चर्या करीत जीवन घालविले. हा वर्ध्याचा आश्रम क्रमाने मगनवाडी, बजाजवाडी, महिलाश्रम, सेवाग्राम व पवनार ह्या ठिकाणी फिरत राहिला. ही सर्व ठिकाणे वर्ध्याच्या ८ किमी. परिसरातच आहेत. दिवसातले सात-आठ तास सूत कातणे, विणणे आणि शेतकाम यांमध्ये त्यांनी घालविले. रोज नेमाने शरीरश्रम प्रत्येक माणसाने करावे, असा त्यांचा सिद्धान्त होता. 'शरीरश्रमनिष्ठा' हे त्यांच्या जीवन-तत्त्वज्ञानाप्रमाणे महत्त्वाचे व्रत होते. शरीरश्रमांबरोबरच त्यांनी मानसिक, आधात्मिक साधनाही प्रखरतेने केली. १९३० व ३२ च्या सविनय कायदेभंगाच्या चळवळीत त्यांनी कारागृहवास भोगला. १९४० साली महात्मा गांधीनी स्वराज्याकरिता वैयक्तिक सत्याग्रहाचे आंदोलन आरंभले. त्यात पहिला सत्याग्रही म्हणून विनोबांची निवड केली. जवाहरलाल नेहरू हे दुसरे निवडले. आध्यात्मिक साधनेला वाहून घेतलला शत्रुमित्रसमभावी तपस्वी मनुष्य सत्याग्रहाला अत्यंत आवश्यक, म्हणून त्यांनी विनोबांची निवड केली. कारण सत्याग्रह हे शत्रूच्या हृदयपरिवर्तनाचे नैतिक शुद्ध साधन होत, अशी महत्मा गांधीची मूलभूत राजकीय भूमिका होती. उच्चतम आध्यात्मिक जीवनसाधनेस वाहिलेला शत्रुमित्रभाव विसरलेला माणूसच असे हृदय-परिवर्तन करू शकतो, अशी गांधींची धारणा होती. २० ऑक्टोबर १९४० रोजी स्वसंपादित हरिजन साप्ताहिकात गांधींनी आपल्या या शिष्याची ओळख करून दिली आहे.


१९३२ सालच्या सविनय कायदेभंगाच्या सामुदायिक आंदोलनात विनोबांनी भाग घेतला. त्यांनी धुळे कारागृहामध्ये शिक्षा भोगली. सुप्रसिद्ध गीताप्रवचने या कारागृहात त्यांनी दिली. शंभरापेक्षा अधिक सत्याग्रही कैदी आणि इतर गुन्ह्यांसाठी शिक्षा झालेले कैदी या प्रवचनांच्या रविवारच्या सभेत उपस्थित असत. त्यांमध्ये शेठ जमनालाल वजाज, गुलजारीलाल नंदा, अण्णासाहेब दास्ताने, साने गुरूजी इ. मंडळी उपस्थित असत.


या प्रवचनांचा मुख्य दृष्टिकोन 'गीता ही साक्षात भगवंताची उक्ति होय', असा होता. त्या उक्तीला पूर्ण प्रमाण मानूनच, त्यासंबंधी कसलीही साधकबाधक चर्चा न करताच त्यांनी ती १८ प्रवचने दिली. लो. टिळकांच्या गीतारहस्याचा मुख्य दृष्टिकोन त्यांनी मानला नाही. आद्य शंकराचार्याचाच मुख्य दृष्टिकोन मान्य केला, असे दिसून येते. मोहनिरास म्हणजे अज्ञाननाश हे गीतेचे मुख्य उद्दिष्ट त्यांनी मानले. अर्जुनाला युद्धास प्रवृत्त करणे हा उद्देश गृहीत धरून केलेला कर्मयोगाचाच उपदेश गीतेत आहे, हा टिळकांचा दृष्टिकोन विनोबांनी स्वीकारली नाही. विनोबांनी निष्काम कर्मयोग मान्य केला; परंतु युद्धोपदेशाकडे कानाडोळा केला. महात्मा गांधींच्या मताने गीतेमध्ये युद्धाचा आदेश हा भौतिक सशस्त्र युद्धाचा आदेश नाही. मानवी हृदयात चाललेल्या सद्‍भावना व असद्‍भावना यांच्या संघर्षाला काव्यमय बनवण्साठी योजलेले मानवी सशस्त्र युद्धाचे कविकल्पित रूपक गीतेने योजिलेले आहे; महाभारत हा इतिहासग्रंथ नाही म्हणून त्यातील योद्धे आणि युद्धात गुंतलेले शत्रुमित्रपक्ष हे केवळ कविकल्पित होत; असे महत्मा गांधी अनासक्ति योग या पुस्तकात प्रतिपादितात. विनोबा आणि गांधी हे दोघेही निरपवाद अहिंसा तत्त्वाचे पुरस्कर्ते. भगवद्‍गीता वाचत असताना विनोबा भगवद्‍गीता हा युद्धोपदेश नाही असे सांगतात आणि महत्मा. गांधी ते आध्यात्मिक भावनांचे युद्ध होय, असे सांगतात. हा युद्धाचा मुद्दा सोडला, तर सगळ्या एकेश्वरवादी धार्मिकांना प्रेरणा देणारे अत्युच्च जीवनविषयक व विश्वविषयक तत्त्वज्ञान अतिशय सुंदर रीतीने गीतेमध्ये सांगितले असल्यामुळे गीता हा हिंदूंनाच नव्हे तर जगातील अध्यात्मवाद्यांना मोहून टाकणारा ग्रंथ आहे, यात शंका नाही. म्हणूनच, गीता जरी सशस्त्र हिंसात्मक युद्धाचा पुरस्कार करत असली, तरी गांधींना आणि विनोबांना या गीतेने कायम मोहून टाकले आहे. म्हणून गांधींनी आणि विनोबांनी जन्मभर सकाळ-संध्याकाळ चालविलेल्या प्रार्थनासंगीतात भगवद्‍गीता ही कायमची अंतर्भूत केली होती.


वैयक्तिक सत्याग्रहानंतर ७ मार्च १९५१ पर्यंत पवनार येथील परंधाम आश्रमातच विनोबांनी शारीरिक आणि मानसिक तपश्चर्येत जीवन व्यतीत केले. १९३६ पासून म. गांधी साबरमतीचा आश्रम सोडून सेवाग्रामला म्हणजे पवनारजवळच येऊन राहिले. त्यामुळे गांधी आणि विनोबा यांचा चिरकाल संवाद चालू राहिला. गांधीच्या देहान्तानंतर सर्वसेवासंघ व सर्वोदय समाज या संस्थांची स्थापना झाली. मार्च १९४८ मध्ये विनोबा दिल्ली येथे जवाहरलाल नेहरू यांच्या विनंतीवरून गेले. भारत-पाक फाळणी झाल्यानंतर परागंदा झालेले लक्षावधी शरणार्थी (सर्व बाजूंनी जीवन उद्‍ध्वस्त झालेले) दिल्ली, पंजाब, राजस्थान यांमध्ये आले. त्यांना धीर देण्याकरता विनोबांना पंडितजींनी बोलावून घेतले. या दौऱ्यात सर्वधर्मसमभावाचा आदेश देऊन प्रेम आणि सद्‍भावना निर्माण करण्याचा प्रयत्‍न विनोबांनी केला.


दिनांक १५ नोव्हेंबर १९८२ रोजी सकाळी ९.४० वाजता पवनार येथे परंधाम आश्रमात सतत सात दिवस प्रायोपवेशन करून भूदाननेते आचार्य विनोबा भावे यांनी वयाच्या ८७ व्या वर्षी प्राणत्याग केला. त्यांच्या निधनाची वार्ता त्यांनी प्रायोपवेशन सुरू केल्यानंतर केव्हाही अपेक्षित होती. ५ नोव्हेंबर रोजी विनोबांना ताप आला, त्याबरोबरच हृदयविकारही उद्‍भवला आणि प्रकृती चिंताजनक झाली. उपचार त्वरित सुरू झाले. वैद्यकीय महाविद्यालयाच्या रूग्‍णालयात उपचार करण्याकरता नेण्याचा विचार तज्‍ज्ञ डॉक्‍टरांनी विनोबांना सांगितला; परंतु त्यांनी परंधाम आश्रम सोडण्यास नकार दिला व तेथेच उपचार सुरू झाले. मुंबई येथील जसलोक हॉस्पिटलचे तज्‍ज्ञ डॉ. मेहता मुंबईहून आले. हळूहळू प्रकृती सुधारेल अशी आशा उत्पन्न झाली. अ‍ॅलोपथीचे उपचारही विनोबांनी स्वीकारले, परंतु ८ नोव्हेंबर रोजी रात्री अन्नपाणी आणि औषधे या तिन्ही गोष्टी घेण्यास त्यांनी नकार दिला. आचार्यांचे बंधू शिवाजीराव भावे, मित्र दादा धर्माधिकारी इत्यादी मंडळींनी व आश्रमस्थ भक्तजनांनी आचार्यांना परोपरीने काकुळतीस येऊन, अन्नपाणी व औषधे घेण्याची विनंती केली. ती त्यांनी नाकारली. इंदिरा गांधी विनोबाजींना १० नोव्हेंबर रोजी भेटल्या. अन्नपाणी, औषधे घेण्याची विनंती त्यांनीही केली. प्रायोपवेशनाचा संकल्प करण्याचे कारण आचार्यांनी श्री. त्र्यं. गो. देशमुख व इतर भक्तांना स्पष्ट करून सांगितले. ते म्हणाले- " आता देह आत्म्याला साथ देत नाही. रखडत जगण्यात अर्थ नाही. जराजर्जर शरीर टाकणेच ठीक !"


🏛️ *विनोबांची समाधी, परंधाम आश्रम, पवनार, वर्धा*

                 आचार्यांच्या निधनाची वार्ता भारतभर व जगभर सर्व प्रचारमाध्यमांतून विद्युतवेगाने पसरली. या निधनाला कोणी महानिर्वाण म्‍हणाले, कोणी युगपुरुषाची समाधी म्‍हणाले. महात्‍मा गांधींच्या आध्यात्मिक परंपरेचे ते एक श्रेष्ठ वारस होते. त्यांचे हे प्रायोपवेशनाचे तंत्र हिंदू धर्म, बौद्ध व विशेषतः जैन धर्म या तिन्ही धर्मांना प्राचीन कालापासून मान्य असलेले तंत्र आहे. जैन धर्मात या तंत्रास 'सल्लेखना' अशी संस्कृत संज्ञा आणि 'संथारा' ही प्राकृत संज्ञा आहे. हिंदु धर्मात यास 'प्रायोपवेशन' म्हणतात. प्राय म्हणजे तप. तपाचा एक मुख्य अर्थ ' अनशन ' असा आहे. देहाचे दुर्घर व्याधी बरे होऊ शकत नाहीत, असे निश्चित झाल्यावर रूग्णाला जलप्रवेशाने, अग्‍निप्रवेशाने, भृगुपतनाने (उंच कड्यावरून उडी मारून), अनशनाने (अन्नपाणी वर्ज्य करून) किंवा अन्य कोणत्याही इष्ट मार्गाने देहविसर्जन करण्याची हिंदुधर्मशास्त्राने अनुमती दिली आहे. ज्ञानदेवादी संतांनी योगमार्गाने देहत्याग केला आहे. हा योगमार्ग गुरूगम्यच आहे. त्याचे वर्णन गीतेच्या आठव्या अध्यायात केले आहे. तात्पर्य, प्रायोपवेशन किंवा योगशास्त्रातील देहत्यागाची युक्ती हिंदुधर्मशास्त्राने मान्य केली आहे. विनोबांनी प्रायोपवेशनाच्या द्वारे देहत्याग केला. अनेक जैन साधू आणि साध्वी स्त्रिया आजही प्रतिवर्षी अशा प्रकारे देहत्याग करीत असतात आणि त्याची वार्ता वृत्तपत्रांतही केव्हा केव्हा येते. स्वातंत्र्यवीर सावरकर, धर्मानंद कोसंबी यांनी अशाच प्रकारे देहत्याग केला आहे.


⛲ *विनोबांचे विचार*

१) वर्तमानाला बंधन असावे म्हणजे वृत्ति मोकळी राहते. २) सत्य, संयम, सेवा ही पारमार्थिक जीवनाची त्रिसूत्री आहे . [१] ३) आध्यात्मिक व्यवहार म्हणजे स्वाभाविक व्यवहार म्हणजे शुद्ध व्यवहार . ४) हिंदुधर्माचे स्वरूप : आचार-सहिष्णुता, विचारस्वातंत्र्य, नीति- धर्माविषयी दृढता. ५) प्राप्तांची सेवा, संतांची सेवा, द्वेष कर्त्याची सेवा ही सर्वोत्तम सेवा. ६) असत्यात शक्ति नाही. आपल्या अस्तित्वासाठी हि त्याला सत्याचा आश्रय घेणे भाग आहे. ७) सत्य , संयम, सेवा ही पारमार्थिक जीवनाची त्रिसूत्री आहे. ८) ईश्वर, गुरु ,आत्मा, धर्म, आणि संत ही पाच पूजास्थाने . ९) इतिहास म्हणजे अनदिकालापासून आत्तापर्यंत चे सर्व जीवन. पुराण म्हणजे अनदिकालापासून आत्तापर्यंत टिकलेला अनुभवाचा अमर अंश.


🗽 *विनोबांचे स्मारक*

          विनोबांसह नरहर कुरुंदकर, वसंतदादा पटील, बालगंधर्व, जी.डी. बापू लाड, नागनाथ‍अण्णा नायकवाडी, बाळासाहेब देसाई (सातारा), भाई सावंत, बाळासाहेब सावंत (रत्‍नागिरी), चिंतामणराव देशमुख, संताजी घोरपडे, मारोतराव कन्नमवार, आदी व्यक्तीची स्मारके उभारण्याचे महाराष्ट्रातील काँग्रेस सरकारने ठरवले होते, पण यांतील एकही स्मारक पूर्णत्वास गेले नाही.


📙✍️ *पुस्तके*

अष्टादशी (सार्थ)

ईशावास्यवृत्ति

उपनिषदांचा अभ्यास

गीताई

गीताई-चिंतनिका

गीता प्रवचने

गुरुबोध सार (सार्थ)

जीवनदृष्टी

भागवत धर्म-सार

मधुकर

मनुशासनम्‌ (निवडक मनुस्मृती - मराठी)

लोकनीती

विचार पोथी

साम्यसूत्र वृत्ति

साम्यसूत्रे

स्थितप्रज्ञ-दर्शन

📚 *चरित्रग्रंथ*

आमचे विनोबा (राम शेवाळकर आणि इतर)

गांधी, विनोबा आणि जयप्रकाश (मिलिंद बोकील)

दर्शन विनोबांचे (राम शेवाळकर)

ब्रह्मर्षी विनोबा (बालसाहित्य, लेखक - विठ्ठल लांजेवार)

महर्षी विनोवा (राम शेवाळकर)

महाराष्‍ट्राचे शिल्‍पकार विनोबा भावे (लेखक : किसन चोपडे.) (महाराष्ट्र सरकारचे प्रकाशन)

विनोबांचे धर्मसंकीर्तन (राम शेवाळकर आणि इतर))

विनोबासारस्वत (राम शेवाळकर आणि इतर)

साम्ययोगी विनोबा (राम शेवाळकर)

         

पितामह दादाभाई नौरोजी..

 


       *भारतीय राजकारणातील* 

             *भीष्माचार्य*

       *पितामह दादाभाई नौरोजी*        

                   


       *जन्म : ४ सप्टेंबर १८२५*

    (वर्सोवा, मुंबई, महाराष्ट्र, भारत)

       *मृत्यू : ३० जून १९१७*

        (महालक्ष्मी,मुंबई, भारत)

दादाभाई नौरोजी : ब्रिटनमधील 

                           खासदार

कार्यकाळ : १८९२ – १८९५

मागील : फ्रेडरिक थॉमस पेंटोन

पुढील : विल्यम फ्रेडरिक बार्टन 

             मस्से-मेंवरिंग


राजकीय पक्ष : भारतीय राष्ट्रीय 

                      काँग्रेस

आई : माणकबाई नौरोजी दोर्डी

वडील : नौरोजी पालनजी दोर्डी

पत्नी : गुलबाई

निवास : लंडन युनायटेड किंग्डम

व्यवसाय : बॅरिस्टर

धर्म : पारशी

                        दादाभाई  नौरोजी भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेसचे एक संस्थापक, थोर नेते व अर्थशास्त्रज्ञ.जन्म मुंबईत एका पारशी कुटुंबात. वडील नवरोजी पालनजी दोर्दी आणि आई माणेकबाई. दादाभाई चार वर्षांचे असतानाच त्यांच्या वडिलांचे निधन झाले प्रतिकूल परिस्थितीतही माणेकबाईंनी दादाभाईंचे संगोपन केले आणि शिक्षण पार पाडले. वयाच्या अकराव्या वर्षी दादाभाईंचे शोराबजी श्रॉफ यांच्या सात वर्षांच्या गुलाबीनामक कन्येबरोबर लग्न झाले. दादाभाईंना एक मुलगा आणि दोन मुली अशी तीन अपत्ये झाली.

           एल्‌फिन्स्टन इन्स्टिट्यूशन आणि एल्‌फिन्स्टन महाविद्यालय यांमधून शिक्षण घेऊन १८४५ मध्ये ते पदवीधर झाले. १८५० साली एल्‌फिन्स्टन महाविद्यालयात दादाभाईंची गणित व तत्त्वज्ञान या विषयांचे साहाय्यक प्राध्यापक म्हणून नेमणूक झाली. या महाविद्यालयात प्राध्यापकपदावर नेमलेले दादाभाई हे पहिले भारतीय होत.

            दादाभाई १८५५–५६ च्या सुमारास कामा यांच्या लंडनमधील व्यवसायातील एक भागीदार म्हणून लंडनला गेले तेथे त्यांचा ‘मँचेस्टर कॉटन सप्लाय असोसिएशन’, ‘कौन्सिल ऑफ लिव्हरपूल’, ‘अथेनियम’, ‘नॅशनल इंडियन असोसिएशन’ इ. संस्थांशी जवळचा संबंध आला. १८६५–६६ पर्यंत त्यांनी लंडनच्या युनिव्हर्सिटी कॉलेजमध्ये गुजरातीचे प्राध्यापक म्हणून काम केले. १८६५–७६ या काळात व्यवसायानिमित्त दादाभाईंच्या इंग्लंडला अनेकदा वाऱ्या झाल्या. १८६५ साली लंडनमध्ये डब्ल्यू. सी. बॅनर्जी यांच्यासमवेत दादाभाईंनी ‘लंडन इंडिया सोसायटी’ ही संस्था स्थापली. १९०७ पर्यंत ते तिचे अध्यक्ष होते. १८६२ मध्ये दादाभाई ‘कामा अँड कंपनी’ तून बाहेर पडले आणि त्यांनी ‘दादाभाई नवरोजी अँड कंपनी’ अशी स्वतःचीच कंपनी उभारली. १८६६ मध्ये त्यांनी लंडनमध्ये ‘ईस्ट इंडिया असोसिएशन’ या संस्थेची स्थापना केली ते तिचे सचिवही होते. १८७३ मध्ये भारतीय अर्थकारणाविषयी नेमलेल्या संसदीय समितीपुढे (फॉसेट कमिटी) दादाभाईंनी साक्ष दिली. ही समितीदेखील त्यांच्या परिश्रमांचेच फलित होते. या समितीपुढे दिलेल्या साक्षीत दादाभाईंनी भारतातील करभारप्रमाण सर्वाधिक असून भारतीयांचे सरासरी वार्षिक उत्पन्न केवळ २० रुपयेच असल्याची,  पुराव्यांनिशी सिद्ध करून दाखविले.

              दादाभाईंची १८७४ मध्ये बडोदे संस्थानचे दिवाण म्हणून नियुक्ती झाली तथापि एका वर्षातच महाराज आणि रेसिडेंट यांच्याशी उद्‌भवलेल्या मतभेदांमुळे त्यांनी दिवाणपदाचा राजीनामा दिला. जुलै १८७५ मध्ये ते मुंबई नगरपालिकेचे सभासद म्हणून व नगरपालिकेच्या शहरपरिषदेवरही निवडून आले. १८७६ मध्ये या दोन्ही पदांचा राजीनामा देऊन ते लंडनला गेले. १८८३ मध्ये ते ‘जस्टिस ऑफ द पीस’ झाले आणि दुसऱ्यांदा मुंबई नगरपालिकेवर निवडून आले. ऑगस्ट १८८५ मध्ये गव्हर्नर लॉर्ड रे यांच्या निमंत्रणावरून दादाभाईंनी मुंबई विधानपरिषदेचे सदस्यत्व पत्करले. त्या वर्षाच्या अखेरीस, दादाभाईंनी भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेसच्या संस्थापनेत महत्त्वाचा वाटा उचलला. काँग्रेसच्या अध्यक्षपदाचा बहुमान त्यांना तीन वेळा (१८८६, १८९३, १९०६) लाभला. १९०२ साली दादाभाई लंडनच्या हाउस ऑफ कॉमन्समध्ये लिबरल पक्षातर्फे सदस्य म्हणून सेंट्रल फिन्झबरीमधून निवडून आले. ब्रिटिश संसदेचे सदस्यत्व मिळविणारे आणि भारताच्या स्वातंत्र्यास्तव संसदेमध्ये आवाज उठविणारे दादाभाई हे पहिले भारतीय होत.

               दादाभाईंची १८९७ मध्ये ‘रॉयल कमिशन ऑन इंडियन एक्स्पेंडिचर’ ह्या सेल्बी यांच्या अध्यक्षतेखाली नेमलेल्या आयोगावर एक सदस्य म्हणून नियुक्ती झाली. या आयोगापुढे त्यांनी साक्षही दिली. १८९८ मध्ये ‘इंडियन करन्सी कमिशन’ ला त्यांनी आपली दोन निवेदने सादर केली. ॲम्स्टरडॅम येथे १९०५ साली भरलेल्या आंतरराष्ट्रीय समाजवादी महासभेसाठी (इंटरनॅशनल सोशलिस्ट काँग्रेस) दादाभाईंनी भारताचे प्रतिनिधित्व केले. १९०६ च्या कलकत्ता काँग्रेसमध्ये भारताच्या समस्यांवर ‘स्वराज्य’ हा एकमेव उपाय असल्याचे त्यांनी घोषित केले.

                   इंग्लंडमधील कॉमर्स, इंडिया, कंटेंपररी रिव्ह्यू, द डेली न्यूज, द मँचेस्टर गार्डियन, पिअर्सन्स मॅगझीन  ह्यांसारख्या महत्त्वाच्या नियतकालिकांमधून दादाभाईंचे अनेक लेख व निबंध प्रसिद्ध झाले. १८४८ साली स्थापन झालेल्या ‘स्ट्यूडंट्स लिटररी अँड सायंटिफिक सोसायटी’ या संस्थेच्या स्ट्यूडंट्स लिटररी मिसेलनी या मासिकामधून (१८५०) त्यांचे नियमित लेख येत असत. ज्ञानप्रकाश नावाचे एक गुजराती नियतकालिक त्यांच्या संपादकत्वाखाली प्रसिद्ध होई. १८८९ मध्ये आपल्या काही सहकाऱ्यांच्या मदतीने दादाभाईंनी रास्त गोफ्तार (ट्रूथ टेलर) नावाचे एक गुजराती साप्ताहिक सुरू करून त्याचे दोन वर्षे संपादन केले. हे साप्ताहिक पुरोगामी विचारांसाठी प्रसिद्ध होते.

               दादाभाईंनी १८७८ मध्ये पॉव्हर्टी ऑफ इंडिया नावाची एक पत्रिका प्रसिद्ध केली तिचेच पुढे पुनर्मुद्रित व विस्तारित अशा एका ग्रंथात रूपांतर करण्यात येऊन तो ग्रंथ लंडनमध्ये पॉव्हर्टी अँड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया ह्या शीर्षकाने प्रथम १९०१ व नंतर १९११ मध्ये प्रकाशित करण्यात आला. हा ग्रंथ अतिशय गाजला. पॉव्हर्टी इन इंडिया, द कंडिशन ऑफ इंडिया ह्यांसारखे निवडक निबंध, हाउस ऑफ कॉमन्समधील भाषणे, ‘रॉयल कमिशन ऑन द ॲडमिनिस्ट्रेशन ऑफ एक्स्पेंडिचर इन इंडिया’ या आयोगाशी केलेला पत्रव्यवहार, इतर निवडक भाषणे इत्यादींचा उपर्युक्त ग्रंथात अंतर्भाव होतो. या ग्रंथातून दादाभाईंनी (१) भारताचे राष्ट्रीय उत्पन्न, (२) भारताचे दारिद्र्य, (३) करनीती, (४) भारताचे आर्थिक शोषण हा सिद्धांत (ड्रेन थिअरी) इ. मौलिक समस्यांचा ऊहापोह केलेला आहे.

                   भारतीय अर्थशास्त्रीय विचारधारे मधील दादाभाईंचे मौलिक कार्य म्हणजे त्यांनी केलेले भारताच्या राष्ट्रीय उत्पन्नाचे निर्धारण. निरनिराळी मंडळे, समित्या व संस्था ह्यांमधून त्यांनी दिलेली व्याख्याने दादाभाई नवरोजीज स्पीचेस अँड रायटिंग्ज ह्या शीर्षकाने ग्रंथनिविष्ट झाली आहेत. द राइट ऑफ लेबर या शीर्षकाने दादाभाईंनी औद्योगिक आयुक्तांची नेमणूक आणि कामगारांना संरक्षणाचा हक्क या दोहोंसंबंधी एक योजना प्रसिद्ध केली होती. जर या योजनेचे अधिनियमात रूपांतर झाले असते, तर सर्व वेतनधारकांना न्याय मिळाला असता आणि औद्योगिक शांतता प्रस्थापित होण्यास मदत झाली असती. ब्रिटिशांनी चालविलेल्या हिंदुस्थानच्या आर्थिक प्रशासनाबाबत दादाभाई कठोर टीकाकाराची भूमिका घेत असत. ह्या प्रशासनावर करण्यात यावयाच्या खर्चाचे सुयोग्य वितरण होत नसल्याची त्यांची तक्रार होती. प्लेग, दुष्काळ, यांसारख्या संकटांचे निवारण करण्याच्या अथवा त्यांबाबत प्रतिबंधक उपाय योजण्याच्या कामी सरकार फार कमी पैसे खर्च करते, असे दादाभाईंचे मत होते. दादाभाईंचा आर्थिक स्वयंपूर्णतेवर तसेच कुटिरोद्योगांच्या महत्त्वपूर्ण स्थानावर विश्वास होता. अनैसर्गिक आर्थिक गोंधळात रुतलेल्या भारताला स्वदेशी उद्योगधंद्यांवाचून पर्याय नाही, असे त्यांचे ठाम मत होते. असे असूनही देशातील महत्त्वाच्या आणि मूलभूत उद्योगांच्या उभारणीसाठी प्रगत यंत्रसामग्रीचा वापर करण्यास त्यांचा विरोध नव्हता. दादाभाईंनी जमशेटजी टाटांना लोखंड आणि पोलाद कारखाना उभारण्याच्या समयी भारतीय जनतेकडून भांडवल गोळा करण्याचे आवर्जून आवाहन केले होते.

     परदेशी प्रवासाचा दादाभाईंच्या व्यक्तीमत्त्वावर व चारित्र्यावर सखोल परिणाम झाला. स्वतः उदारमतवादी पश्चिमी शिक्षण घेतल्यामुळे, दादाभाईंना त्या शिक्षणपद्धतीबद्दल आदर होता. ब्रिटिशांनी पाश्चिमात्य शिक्षणपद्धती भारतात आणून तिचा प्रसार केल्याबद्दल भारताने नेहमीच इंग्लंडशी कृतज्ञ राहिले पाहिजे, अशी दादाभाईंची भावना होती आणि तिच्या पोटीच त्यांनी अनेक हिंदी तरुणांना उच्च शिक्षणार्थ परदेशी जाण्यास साहाय्य केले होते. दादाभाईंचे व्यक्तीमत्त्व विकसित करण्यामध्ये ग्रंथ व मित्र यांचा वाटा मोठा असल्याचे दिसून येते. फिर्दौसीचा शाहनामा, वॉटचे इंप्रूव्हमेंट ऑफ माइंड तसेच कार्लाइल, मिल व स्पेन्सर ह्यांच्या ग्रंथांनी दादाभाईंवर मोठा ठसा उमटविला. विशुद्ध विचार, आचार व उच्चार ह्यांचे महत्त्व विशद करणारा द ड्यूटीज ऑफ द झोरोस्ट्रिअन्स हा स्वतः लिहिलेला ग्रंथ ते नेहमी जवळ बाळगीत. दादाभाईंना अगणित देशी-परदेशी स्नेही होते. आपल्या खाजगी जीवनामध्ये दादाभाईंचे वर्तन साधे परंतु भारदस्त होते. त्यांच्या पत्रांमधून त्यांच्या सत्यप्रिय व कनवाळू स्वभावाची आणि चारित्र्याची ओळख पटते. त्यांना ग्रंथांचे अतिशय वेड होते. आपला मोठा ग्रंथसंग्रह त्यांनी ‘बॉम्बे प्रेसिडेन्सी असोसिएशन’ या संस्थेस अर्पण केला. ‘फ्रामजी इन्स्टिट्यूट’, ‘इराणी फंड’, ‘पारसी जिम्नॅशियम’, ‘विडो रीमॅरेज असोसिएशन’, ‘व्हिक्टोरिया अँड ॲल्बर्ट म्यूझीयम’, ‘रॉयल एशियाटिक सोसायटी’ यांसारख्या अनेक संस्थासंघटनांची त्यांनी स्थापना केली.

           एक समाजसुधारक म्हणून दादाभाईंचा लौकिक होता. जातिनिष्ठ मर्यादा पाळणे त्यांना मान्य नव्हते. स्त्रीपुरुष-समानता, स्त्रीशिक्षण यांचा त्यांनी सतत पुरस्कार केला. ‘द स्ट्यूडंट्स लिटररी अँड सायंटिफिक सोसायटी’ ह्या संस्थेच्या वतीने त्यांनी मुलींसाठी तीन मराठी व चार गुजराती शाळा उघडल्या. दादाभाईंच्या ह्या समाजकार्याला जगन्नाथ शंकरशेट यांसारख्यांनी मोठा हातभार लावला.

                        दादाभाई हे प्रखर राष्ट्रवादी वृत्तीचे होते. कलकत्ता काँग्रेसमधील केलेल्या आपल्या भाषणास त्यांनी सर हेन्‍री कँपबेल बॅनरमनच्या पुढील वाक्याने प्रारंभ केला होता : “चांगले सरकार हे काही जनताप्रणीत सरकारला पर्याय ठरू शकत नाही”. याच भाषणात त्यांनी असे घोषित केले, की “आम्ही कोणत्याही कृपेची याचना करीत नाही, आम्हाला फक्त न्याय हवा. सर्व गोष्टी सारांशरूपाने ‘स्वराज्य’ या एकाच शब्दाने सांगता येतील. ते स्वराज्य कसे, तर युनायटेड किंग्डमचे किंवा वसाहतींचे”. दादाभाई हे मवाळ पक्षाचे असून घटनात्मक राज्यपद्धतीवर त्यांचा दृढ विश्वास होता. दादाभाई हे प्रभावी वक्ते होते. इंग्रजी व गुजराती या दोन्ही भाषांवर त्यांचे प्रभुत्व होते.

              सर दिनशा वाच्छा यांनी म्हटल्याप्रमाणे दादाभाई नवरोजी हे भारतीय राज्याशास्त्र आणि अर्थशास्त्र यांचे जनकच मानले जातात. परकीयांच्या वर्चस्वाखालील भारतातील आर्थिक घटनांच्या विशदीकरणाची किती नितांत आवश्यकता आहे, ते दादाभाईंनी आपल्यानंतरच्या अर्थशास्त्रज्ञांना दाखवून दिले. आर्थिक प्रक्रियेचे वास्तव व परिपूर्ण चित्र त्यांनी उभे केले. न्यायमूर्ती रानडे व नामदार गोपाळ कृष्ण गोखले ह्या आर्थिक विचारवंतांनी दादाभाईंच्या परिपूर्ण चित्रातील काही भाग जरी सुधारले, तरीही त्या चित्राचा मूळचा आकृतिबंध अढळच राहिला. ‘भारताचे श्रेष्ठ पितामह’ हे सार्थ बिरुद त्यांना लावण्यात येते. भारताच्या राष्ट्रीय आंदोलनाच्या इतिहासात त्यांचे नाव आणि कार्य चिरंजीव स्वरूपाचे आहे. दादाभाईंचे मुंबई येथे निधन झाले.


💎 *बाह्य दुवे*


"डॉ. दादाभाई नौरोजी, 'द ग्रँड ओल्ड मॅन ऑफ इंडिया', वोहुमन.ऑर्ग - दादाभाई नौरोजींचा समग्र जीवनपट" (इंग्रजी मजकूर).


📚 *दादाभाई नौरोजींवरील पुस्तके*


दादाभाई नौरोजी (चरित्र, गंगाधर गाडगीळ)

दादाभाई नौरोजी : भारतीय राजकारणातील भीष्माचार्य (व्यक्तिचित्रण, निंबाजीराव पवार)

नवरोजी ते नेहरू (गोविंद तळवलकर)

भारताचा स्वातंत्र्य संघर्ष (बिपीनचंद्र)


             

बनारसी दास गुप्ता

 

                  

             *बनारसी दास गुप्ता*  

        (स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार)

          *जन्म : 5 नवम्बर, 1917*

            ( भिवानी, हरियाणा)

          *मृत्यु : 29 अगस्त, 2007*

नागरिकता : भारतीय

प्रसिद्धि : स्वतंत्रता सेनानी

धर्म : हिन्दू

जेल यात्रा : 'भारत छोड़ो आंदोलन' के दौरान बनारसीदास गुप्ता 1942 से 1944 तक जेल में बंद रहे।

*कार्य काल : हरियाणा के मुख्यमंत्री- 1 दिसम्बर, 1975 से 30 अप्रॅल, 1977 तक*

विद्यालय : 'बिड़ला कॉलेज', पिलानी

पार्टी : भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस

अन्य जानकारी : आपने 'अपना देश', 'हरियाणा केसरी' और 'हरियाणा कांग्रेस पत्रिका' के द्वारा राजनैतिक जागृति तथा समाज सुधार के क्षेत्र में योगदान किया।

            बनारसी दास गुप्ता हरियाणा राज्य के भूतपूर्व मुख्यमंत्री थे। उन्होंने स्वतंत्रता सेनानी होते हुए सामाजिक, राजनीतिक एवं सार्वजनिक जीवन को अपने अंदाज़ में जिया। बनारसी दास गुप्ता हिन्दी भाषा के पक्षधर और यथार्थवादी आदर्श जननायक थे। उन्होंने राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को मजबूत बनाकर हरियाणा की प्रगति में अपना बहुमूल्य योगदान दिया था।


💁🏻‍♂️ *परिचय*

बनारसी दास गुप्ता का जन्म 5 नवम्बर, 1917 ई. में हरियाणा के भिवानी नामक स्थान पर हुआ था। उन्होंने 'बिड़ला कॉलेज', पिलानी में शिक्षा प्राप्त की थी। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी और पण्डित जवाहरलाल नेहरू के प्रभाव से वे देशी रियासतों की दमनकारी नीति का विरोध करने के लिए प्रजामंडल आंदोलन में भाग लेने लगे थे। बनारसी दास गुप्ता जी की गतिविधियां देखकर जींद रियासत में उन्हें 1941 ई. में गिरफ्तार करके फरीदकोट जेल में बंद कर दिया था। 'भारत छोड़ो आंदोलन' में भी बनारसी दास गुप्ता ने भाग लिया और 1942 से 1944 ई. तक जेल में बंद रहे।


🔥 *आंदोलन*

आज़ादी के पश्चात् ही बनारसी दास ने जींद को भारत में शामिल करने के लिए आंदोलन प्रारम्भ कर दिये थे और वहां समानंतर सरकार बनाई। तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल द्वारा जींद को पंजाब में सम्मिलित करने के समझौते के बाद ही यह आंदोलन समाप्त हुआ था।


⚜️ *राजनीतिक जीवन*

बनारसी दास गुप्ता

1968 के मध्यावधि चुनावों में भिवानी विधानसभा क्षेत्र से निर्वाचित हुए। 1972 में फिर से विधायक बने एवं सर्वसम्मति से विधान सभा के अध्यक्ष चुने गए। गुप्ता जी बिजली एवं सिंचाई, कृषि, स्वास्थ्य आदि विभिन्न विभागों के मंत्री रहे। 1975 में इन्हें हरियाणा का मुख्यमंत्री बनाया गया। 1987 में एक बार फिर भिवानी से विधायक बने और उप-मुख्यमंत्री चुने गए। 1989 में एक बार फिर हरियाणा के उपमुख्यमंत्री रहे। सितम्बर 1990 में आप पर एक जानलेवा हमला भी हुआ था। 1996 में आप राज्य सभा के लिये चुने गए थे।


✍️ *पत्रकार तथा लेखक*

बनारसी दास जी द्वारा अनेक धार्मिक संस्थाओं की स्थापना की गई। आप अस्पृश्यता के घोर विरोधी थे। आपके योग प्रेम एवं प्रकृति प्रेम के फलस्वरूप ही भिवानी में प्राकृतिक चिकित्सालय की स्थापना हुई। आपके सहयोग से भिवानी में कई शैक्षणिक संस्थाएं अस्तित्व में आईं। एक जननेता, समाजसेवी और शिक्षाविद होने के साथ ही आपका एक रूप पत्रकार का भी रहा, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं। आप कई वर्षों तक साप्ताहिक 'अपना देश', 'हरियाणा केसरी' तथा 'हरियाणा कांग्रेस पत्रिका' के सम्पादक रहे। ‘पंचायती राज – क्यों और केसे‘ के नाम से आपने एक पुस्तक लिखी थी, जो बहुत लोकप्रिय हुई। विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं से भी आप जुड़े रहे। आपकी अध्यक्षता में 'हरियाणा प्रदेश साहित्य समिति' ने कई ऊल्लेखनीय कार्य किये।

      

            

भारतरत्न प्रणव मुखर्जी..

                                                           


           *भारतरत्न  प्रणव मुखर्जी*

           (भारताचे १३वे राष्ट्रपती)

         *जन्म : ११ डिसेंबर १९३५*

               (वय : ८५)

          (वीरभूम जिल्हा, ब्रिटीश भारत)  

               (आजचा पश्चिम बंगाल)

           *मृत्यू : ३१ ऑगस्ट २०२०*

                (नवी दिल्ली)

राजकीय पक्ष : भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस (१९८६ पूर्वी, १९८९ - चालू), राष्ट्रीय समाजवादी काँग्रेस (१९८६ - १९८९)

मागील : इतर राजकीय पक्ष

संयुक्त पुरोगामी आघाडी (२००४ - चालू)

*भारताचे १३वे राष्ट्रपती कार्यकाळ*

२५ जुलै २०१२ – २५ जुलै २०१७

पंतप्रधान - मनमोहन सिंग

मागील - प्रतिभा पाटील

पुढील - रामनाथ कोविंद

*भारताचे अर्थमंत्री कार्यकाळ*

२४ जानेवारी २००९ – २६ जून २०१२

पंतप्रधान - मनमोहन सिंग

मागील - मनमोहन सिंग

पुढील - मनमोहन सिंग

           *कार्यकाळ*

१५ जानेवारी १९८२ – ३१ डिसेंबर १९८४

पंतप्रधान - इंदिरा गांधी, राजीव गांधी

मागील - रामस्वामी वेंकटरमण

पुढील - विश्वनाथ प्रताप सिंग

*भारताचे परराष्ट्रमंत्री कार्यकाळ*

१० फेब्रुवारी १९९५ – १६ मे १९९६

पंतप्रधान - नरसिंह राव

मागील - दिनेश सिंग

पुढील - अटल बिहारी वाजपेयी

*भारताचे संरक्षणमंत्री कार्यकाळ*

२२ मे २००४ – २६ ऑक्टोबर २००६

पंतप्रधान - मनमोहन सिंग

मागील - जॉर्ज फर्नान्डिस

पुढील - ए.के. ॲंटनी

             प्रणव मुखर्जी हे  भारतीय प्रजासत्ताकाचे १३वे राष्ट्रपती होते. राष्ट्रीय राजकारणात इ.स. १९६९ पासून सक्रिय असणारे मुखर्जी ह्यापूर्वी अनेक भारतीय केंद्र शासनांमध्ये कॅबिनेट मंत्री होते. राष्ट्रपतीपदाच्या निवडणुकीस उभे राहण्याअगोदर यांनी काँग्रेस पक्षामधून राजीनामा दिला.  भारतीय राजकारणामधील अमूल्य सेवेसाठी त्यांना भारत सरकारने इ.स. २००८ साली पद्मविभूषण पुरस्कार दिला. भारत सरकारने ८ ऑगस्ट २०१९ रोजी त्यांना राष्ट्रपती रामनाथ कोविंद यांच्या हस्ते भारतरत्न पुरस्कार प्रदान केला.                                            💁🏻‍♂️ *जन्म*

भारताचे तेरावे राष्ट्रपती प्रणव मुखर्जी यांचा जन्म पश्चिम बंगाल मधील वीरभूम जिल्ह्यातील मीराती गावामध्ये बंगाली कुळाच्या परिवारात झाला. ११ डिसेंबर १९३५ अशी प्रणव मुखर्जी यांची जन्मतारीख आहे. प्रणव मुखर्जी यांच्या घरामध्ये राजनैतिक माहोल होता. त्यांचे वडील कामदा किंकर मुखर्जी देखील राजकारणात होते. ते बंगालच्या विधानसभेत एक सदस्य म्हणून कार्यरत होते. ते ब्रिटिशांविरुद्ध लढा देत होते त्यासाठी त्यांना दहा वर्षाची सजा देखील झाली होती.

             त्यांचे वडील १९२० मध्ये काँग्रेस मध्ये कार्यरत होते. त्यांची आई देखील एका गृहिणी सोबतच एक भारतीय स्वतंत्रता सैनिक होत्या. त्यामुळे प्रणव यांना लहानपणापासूनच राजकारणाचे बाळकडू पाजले गेले. आई-वडिलांच राजकारणात असल्यामुळे कदाचित प्रणव मुखर्जी यांना देखील राजकारणात जाण्याची आवड निर्माण झाली असावी.


📙 *शिक्षण*

         प्रणव मुखर्जी यांचे प्राथमिक शिक्षण त्यांच्याजवळील स्थानिक विद्यालयातूनच पार पडले. परंतु पुढचं शिक्षण प्रणव जी यांनी वीरभूमी येथील सुरी महाविद्यालय कॉलेज येथून पूर्ण केलं. त्यांनी इतिहास आणि राज्यशास्त्र मध्ये उच्च पदवी देखील मिळवली. प्रणव मुखर्जी यांनी वकिलीचा अभ्यास अध्ययन करण्यासाठी कोलकत्ता इथे प्रवेश केला. त्याच्या पुढचं शिक्षण देखील त्यांनी कोलकाता युनिव्हर्सिटी मधूनच पूर्ण केलं.


💁🏻‍♂️ *वैयक्तिक आयुष्य*

             प्रणव मुखर्जी यांचा जन्म एका राजकीय घराण्यात झाला. लहानपणापासूनच त्यांचे आई-वडील त्यांना राजकारणाचे धडे द्यायचे त्यामुळे लहानपणापासूनच मुखर्जी यांच्या मनामध्ये राजकारणाविषयी आवड निर्माण झाली असावी. राजकारणात जाण्यासाठी गरजेचे असलेले शिक्षण देखील प्रणव मुखर्जी यांनी घेतलं पुढे त्यांनी वकील आणि महाविद्यालयाचे प्राध्यापक म्हणून काम करायचे.

                     त्यांची सुरुवात एक प्राध्यापक म्हणून झाली आणि पुढे जाऊन ते पत्रकार क्षेत्रात आले. प्रणव मुखर्जी यांना मानद डिलीट ही पदवी देखील मिळाली आहे. राजकारणात येण्याआधी प्रणव मुखर्जी पोस्ट अँड टेलिग्राफ या ऑफिस मध्ये एक क्लर्क च्या पदवी वर होते. १९६३ मध्ये विद्यानगर कॉलेजमध्ये ते राजनीती-शास्त्राचे प्रोफेसर बनून मुलांची शिकवणी घ्यायचे.

                 इतकेच नव्हे तर त्यांनी बांगला प्रकाशन संस्थान देशर डाक या ठिकाणीही काम केले आहे. २१ जुलै १९५७ मध्ये प्रणव मुखर्जी २२ वर्षांचे असताना त्यांचा विवाह सोहळा शुभ्र मुखर्जींशी पार पडला. या दोघांना दोन मुले आणि एक मुलगी देखील झाली.


🔰 *राजकीय आयुष्य*

         प्रणव मुखर्जी यांचे राजकीय आयुष्य १९६९ मधे सुरू झालं. त्यावेळी त्यांनी काँग्रेसचे तिकीट मिळवून राज्यसभेचे सदस्य बनले. त्यांनी खूप मेहनत करून चार वेळा हे पद मिळवलं. त्यांची कामगिरी बघून इंदिरा गांधींच्या डोळ्यांमध्ये त्यांच्याबद्दल आदर वाढत गेला. १९७३ मध्ये प्रणव जी औद्योगिक विकासामध्ये उपमंत्री होते.

                  पुढील वर्षी ऑक्टोबर महिन्यापर्यंत त्यांनी उप मंत्री बनून नौकावाहन आणि परिवहन ही दोन खाती सांभाळली. १९७४ मध्ये ऑक्टोबर महिन्यापासून ते डिसेंबर महिन्यापर्यंत ते अर्थ राज्यमंत्री होते. १९७५ – १९७७ या काळामध्ये झालेल्या आपत्कालीन परिस्थितीमध्ये प्रणव मुखर्जी यांच्या वरती काही आरोप लावण्यात आले त्यावरून वादविवाद चालू होते.


परंतु इंदिरा गांधींचे प्रणव मुखर्जी यांच्याशी संबंध चांगले असल्यामुळे इंदिरा गांधी यांची यांची सत्ता आल्यावर प्रणव मुखर्जी या सगळ्या वादातून अगदी सुखरूपपणे बाहेर पडले. इंदिरा गांधी जेव्हा प्रधानमंत्री होत्या त्यावेळी सन १९८२ – १९८४ मध्ये प्रणव मुखर्जी वित्त मंत्री होते. १९७५-१९७७ या दोन वर्षांच्या काळामध्ये ते महसूल आणि बँकिंग मंत्री देखील होते.


१९८०-१९८२ मध्ये ते कॅबिनेट मंत्री झाले.‌ इंदिरा गांधींच्या मृत्यूनंतर राजीव गांधी यांच्यासोबत काही मतभेद झाले त्यानंतर प्रणव मुखर्जी हे वेगळे झाले. १९८५ मध्ये प्रणव मुखर्जी पश्चिम बंगाल काँग्रेस समितीचे अध्यक्ष पदावर होते. प्रणव मुखर्जी यांच्या राजकीय कारकिर्दीमध्ये पी व्ही नरसिम्हा राव यांची खूप साथ प्रणव मुखर्जी यांना मिळाली.


            पी व्ही नरसिंह राव यांच्या पंतप्रधान कार्य काळामध्ये त्यांनी प्रणव मुखर्जी यांना योजना आयोग प्रमुख बनवलं होतं थोड्याच दिवसांनी त्यांना केंद्रीय कॅबिनेट मंत्री आणि विदेश मंत्रालय देखील सांभाळायला दिलं. १९७९ मध्ये प्रणव मुखर्जी भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेसचे राज्यसभेतील उपनेते होते. १९८० मध्ये राज्यसभा सभागृहनेते.


१९८६ मध्ये त्यांनी पश्चिम बंगालमध्ये राष्ट्रीय समाजवादी काँग्रेस पक्षाची स्थापना केली. १९९५-१९९६ मध्ये त्यांच्याकडे परराष्ट्र मंत्रीपद आलं.१९८९-१९९० पश्चिम बंगालमध्ये भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस समितीचे जनरल सेक्रेटरी होते.२००१-२०१० पश्चिम बंगालचे काँग्रेस अध्यक्ष होते. आणि २०१२-२०१७ आपल्या भारताचे १३ वे‌ राष्ट्रपती म्हणून कार्यरत होते.


⚜️ *प्रणब मुखर्जी कधी पासून राष्ट्रपति आहेत*

प्रणव मुखर्जी यांच्या सारख थोर व्यक्तिमत्व भारताचे राष्ट्रपती होते ही गोष्ट खूपच गर्व वाटावी अशी आहे. प्रणव मुखर्जी यांना त्यांच्या राजकीय आयुष्यामध्ये फार चढ आणि उतार मिळाले त्यांनी त्यांच्या आयुष्यातील चाळीस वर्ष भारतासाठी एक राजकीय नेता म्हणून अर्पण केली. आणि त्याच प्रमाणे देशात विकास देखील घडवून आणला.


प्रणव मुखर्जी यांचा राष्ट्रपती बनण्याचा प्रवास २५ जुलै २०१२ पासून ते २५ जुलै २०१७ पर्यंतचा होता. प्रणव मुखर्जी यांनी स्वातंत्र्य लढ्यापासून एक एक गोष्ट अनुभवली आहे त्यामुळे त्यांचा अनुभव खूपच दांडगा आहे. एक सामान्य माणूस ते राष्ट्रपती असा प्रणव मुखर्जी यांचा प्रवास होता.


प्रणब मुखर्जीचा भारत रत्न

प्रणव मुखर्जी यांना त्यांच्या उल्लेखनीय कार्यामुळे आज पर्यंत अनेक अवॉर्ड मिळाले. त्यातील दोन असे मुख्य अवॉर्ड जे खूप कमी लोकांना मिळतात ते म्हणजेच “भारतरत्न” आणि पद्म भूषण अवॉर्ड. भारत रत्न हा अवॉर्ड २०१९ मध्ये प्रणव मुखर्जी यांना देऊन त्यांना सन्मानित करण्यात आले. २००८ मध्ये त्यांना “पद्मश्री” हा पुरस्कार देखील मिळाला.

            २०१० मध्ये प्रणव मुखर्जी यांना त्यांनी वित्तमंत्री हे पद अतिशय उत्तम प्रकारे सांभाळले त्यामुळे त्यांना “फायनान्स मिनिस्टर ऑफ द इयर फॉर एशिया” या पुरस्काराने सन्मानित करण्यात आलं होतं. प्रणव यांनी फक्त भारतातच नाही तर विदेशामध्ये देखील त्यांची ख्याती पसरवली. बांगलादेशातील सरकारनेदेखील प्रणव मुखर्जी यांना बांगलादेशात सर्वोच्च असणारा “बांगलादेश लिब्रेशन वॉर ओनर” हा पुरस्कार देऊन प्रणव मुखर्जी यांचा सन्मान केला.


♦️ *द टर्बुलेंट इयर्स*

1980 -1996 प्रणब मुखर्जी: प्रणव मुखर्जी यांनी त्यांचा राजकीय सफर एका पुस्तकांमध्ये उतरवून काढला. या पुस्तकाला त्यांनी द टर्बुलेंट इयर्स: 1980 -1996‌ असे नाव दिले. या पुस्तकांमध्ये प्रणव मुखर्जी यांनी त्यांच्या राजकीय कारकिर्दीत घडलेल्या खूप काही गोष्टींचा खुलासा केला. ज्यामध्ये त्यांनी त्यांचे इंदिरा गांधी आणि राजीव गांधी यांच्याशी असलेले संबंध यांच्यावर देखील लेखन केलं आहे.


                 प्रणव मुखर्जी यांनी या पुस्तकामध्ये त्यांच्यात आणि राजीव गांधी यांच्यामध्ये झालेला गैरसमज देखील स्पष्ट करून दाखवला आहे. जेव्हा इंदिरा गांधी यांच्यावर गोळीबार झाला होता त्यावेळी प्रणव मुखर्जी आणि राजीव गांधी हे एका रॅलीचे नेतृत्व करत होते. तेव्हा राजीव गांधी यांना इंदिरा गांधी यांच्या हत्येच बद्दल कळालं तेव्हा ते लगेच दिल्लीला रवाना झाले.


त्यानंतर सगळ्यांनी राजीव गांधी यांना पीएम या पदावर बसण्यासाठी सांगितलं त्यावेळी राजीव गांधींनी आधी प्रणव मुखर्जी यांना विचारलं की तुम्हाला काय वाटतं? मी हे पद सांभाळू शकेल का? त्या वेळी प्रणव मुखर्जी म्हणाले की हो आम्ही सगळे तुमच्या सोबत आहोत. पण काही लोकांनी प्रणव मुखर्जी यांच्या काही गोष्टी राजीव गांधी यांच्यासमोर अशाप्रकारे दर्शवल्या की राजीव गांधी यांना वाटला प्रणव मुखर्जी यांना त्यांचे नेतृत्व पसंत नाही.


त्यावरून काही गैरसमज निर्माण झाले आणि प्रणव मुखर्जी यांनी काँग्रेस पक्ष सोडला. परंतु दोन वर्षांनी प्रणव मुखर्जी यांनी पुन्हा काँग्रेसमध्ये प्रवेश केला त्यावेळी त्यांचा आणि राजीव गांधी यांच्या मधील वाद मिटले होते. गैरसमजुत दूर झाली होती. या पुस्तकांमध्ये प्रणव मुखर्जी यांनी असेच त्यांच्याबद्दल होणाऱ्या अफवा तसेच काही तथ्य देखील सांगितले आहेत. इंदिरा गांधी यांच्या मृत्यूनंतर प्रणव मुखर्जी यांना पीएम बनायचं होतं ह्या अफवेवर देखील त्यांनी स्पष्टीकरण दिल आहे.


🪔 *मृत्यू*

            प्रणव मुखर्जी यांची तब्येत काही दिवस झाले बिघडली होती. दिल्लीतील आर्मी हॉस्पिटलमध्ये त्यांच्यावर उपचार चालू होते. प्रणव मुखर्जी यांच्यावर सर्जरी देखील झाली होती. त्यासोबतच कोरोना ने देखील त्यांच्या शरीरात शिरकाव केला होता. त्यांची कोरोना टेस्ट पॉझिटिव्ह आली होती. तब्येत दिवसेंदिवस खराब होत चाललेली आणि शेवटी ३१ ऑगस्ट २०२० या दिवशी त्यांचं निधन झालं.


   

विठ्ठलराव एकनाथराव विखे पाटील

                                    


                   *पदमश्री*

*विठ्ठलराव एकनाथराव विखे पाटील*


*जन्म : 29 आॕगष्ट 1897*

(लोणी, अहमदनगर , महाराष्ट्र, भारत)

*निधन : 27 एप्रिल 1980*


व्यवसाय : उद्योगपती

पुरस्कार : पद्मश्री


विठ्ठलराव एकनाथराव विखे पाटील हे  महाराष्ट्रतील सहकारी साखर कारखानदारीचे आद्य प्रवर्तक. अहमदनगर जिल्ह्यातील लोणी बुद्रुक (ता. श्रीरामपूर) या खेड्यात एका शेतकरी कुटुंबात जन्म. लोणी खुर्दच्या प्राथमिक शाळेत चौथीपर्यंत शिक्षण. नंतर त्यांनी लहान वयातच शेतीला सुरुवात केली. त्याकाळी शेतकऱ्यांच्या जमिनी कर्जबाजारीपणामुळे सावकारांच्या घशात गेल्यामुळे ते कंगाल बनले होते, हे नेमके हेरून त्यांनी व्हवहारबुद्धी, चातुर्य व काटकसरीने शेती केली. १९२३ मध्ये ‘लोणी बुद्रुक सहकारी पतपेढी’ ची स्थापना करून ते सार्वजनिक जीवनातील सहकारी क्षेत्राकडे वळले. त्यांनी जिल्ह्यात सहकारी संस्थांचे जाळे निर्माण केले, तसेच गावातील पाथरवट-वडार मंडळींना एकत्र आणून ‘मजूर सहकारी सोसायटी’ची स्थापना केली.


इंग्रज सरकारने मुंबई कौन्सिलमध्ये ‘तुकडे बंदी आणि तुकडे जोड’ हे विधेयक आणले, या विधेयकामुळे शेतकऱ्यांच्या जमिनीचे तुकडे सावकाऱ्यांच्या घशात जाऊन ते जमिनीला मुकणार होते. अशा वेळी इस्लामपूर येथे शाहू महाराजांनी घेतलेल्या शेतकरी परिषदेला विखे−पाटील नगर जिल्ह्यातील अनेक शेतकऱ्यांसह गेले व तेथे हजारो शेतकऱ्यापुढे भाषण देऊन शेतकऱ्यांच्या प्रश्नांना वाचा फोडली. त्यातूनच त्यांच्या शेतकरी नेतृत्वाचा जन्म झाला.


पुढे महाराष्ट्राच्या एक लाख शेतकऱ्यांनी याच प्रश्नासाठी पुण्याच्या कौन्सिल हॉलला वेढा घातला, त्यात विखे−पाटील आघाडीवर, त्यात विखे−पाटील आघाडीवर होते. त्यांनी शेतकऱ्यांना त्यांच्या दैन्यावस्थेची जाणीव करून देऊन, संघटित होण्याचे व त्यातून व्यक्तिगत व सामुदायिक विकास साधण्याचे महत्त्व पटवून दिले. विखे−पाटील यांच्यावर सत्यशोधक चळवळीचा व डाव्या विचारसरणीचा प्रभाव होता.


प्रसिद्ध अर्थशास्त्रज्ञ धनंजयराव गाडगीळ यांच्या अध्यक्षतेखाली बेलापूर रोड (श्रीरामपूर) येथे १९४५ मध्ये पार पडलेल्या ‘द डेक्कन कॅनॉल्स बागायतदार परिषदेत विखे-पाटील’ यांनी सर्व शेतकऱ्यांनी एकत्र येऊन सहकारी पद्धतीने साखर कारखाना काढण्याचा ठराव मांडला.


या परिषदेचे अध्यक्ष डॉ. धनंजयराव गाडगीळ यांनी व उपस्थित शेतकऱ्यांनी या कारखान्याचे मुख्य प्रवर्तक म्हणूक विखे-पाटील यांच्यावरच जबाबदारी टाकली. त्यांनी ही जबाबदारी पार पाडण्यासाठी १९४५ ते १९५० या कालखंडात अतोनात कष्ट घेऊन, गावोगावी व दारोदारी भटकंती करून भागभांडवल जमविले, तसेच कारखान्याला शासनाकडून मंजूरी मिळविली. कारखान्याच्या उभारणीसाठी त्यांनी केलेल्या भटकंतीकरिता शेतकऱ्यांचा एकही पैसा खर्च केला नाही. ‘परान्न घेणार नाही’ अशी त्यांची प्रतिज्ञा होती, त्यामुळे आपली भाकरी ते नेहमी आपल्या कोटाच्या खिशात बाळगीत असत. विखे−पाटील यांची साखर कारखाना काढण्याची कल्पना त्यावेळी हास्यास्पद ठरविली गेली.


अशा सर्वस्वी प्रतिकूल परिस्थीतीला तोंड देत विखे-पाटील यांनी प्रवरानगर येथे शेतकऱ्यांच्या पहिल्या ‘प्रवरा सहकारी कारखान्या’ची ३१ डिसेंबर १९५० या दिवशी स्थापना केली आणि या कारखान्यातून साखर उत्पादन सुरू झाले. त्यावेळचे मुंबई राज्याचे वित्त व सहकार मंत्री वैकुंठभाई मेहता यांनी या कारखान्यास शासनाची मान्यता मिळवून देऊन सर्वतोपरीने सहकार्य केले. प्रवरानगराचा हा कारखाना आशिया खंडातील सहकारी तत्त्वावरील अग्रगण्य साखर कारखाना मानला जातो.


पहिली अकरा वर्षे विखे−पाटील यांच्या आग्रहामुळेच डॉ. धनंजयराव गाडगीळ कारखान्याचे अध्यक्ष झाले. तर ते स्वतः उपाध्यक्ष म्हणून काम पहात असत. पुढे ते ‘विखे−पाटील प्रवरा सहकारी साखर कारखान्या’चे अध्यक्ष (१९६०) व ‘संगमनेर सहकारी साखर कारखान्या’चे मुख्य प्रवर्तक व अध्यक्ष (१९६६) झाले.


शेतकऱ्यांच्या सहकारी साखर कारखान्यांची योजना विखे−पाटील यांनी यशस्वी रीत्या राबविल्यामुळे भारत सरकारने त्याचा लाभ आणि माहिती भारतातील विविध प्रतिनिधी आणि अभ्यासू शेतकरी यांना व्हावी, म्हणून अखिल भारतीय सहकारी साखर कारखान्यांची पहिली परिषद १९५६ साली प्रवरानगर येथे भरविली.


प्रवरानगरचा सहकारी साखर कारखाना व विखे−पाटील हे भारतातील सहकारी चळवळीतील कार्यकर्त्यांचे प्रेरणास्थान बनले. अशा प्रकारचे आणखी कारखाने उभे राहण्यासाठी विखे−पाटील यांनी अनेक शेतकरी नेत्यांनी प्रोत्साहन दिले. उदा., सांगलीचे वसंतदादा पाटील, वारणानगरचे तात्यासाहेब कोरे, पोहेगावचे गणपतराव ओंताडे, राहुरीचे वाबूराब तनपुरे, अकलूजचे शंकरराव मोहिते, पंचगंगेचे रत्नाप्पा कुंभार, परभणीचे शिवाजीराव देशमुख, इत्यादी. भारताचे पहिले पंतप्रधान पं. जवाहरलाल नेहरू यांनी स्वतः प्रवरानगरला येऊन विखे-पाटील यांच्या कार्याची प्रशंसा केली (१५ मे १९६१).


विखे−पाटील यांनी शेतकऱ्यांना बचतीचे महत्त्वही पटवून दिले. शासनाची अल्पबचत योजना यशस्वी रीत्या राबविल्याबद्दल १९६५ मद्ये भारताचे तत्कालीन अर्थमंत्री टी. टी. कृष्णम्माचारी यांनी खास मानपत्र देऊन गौरविले. त्याचप्रमाणे कुटुंबनियोजनाची योजनाही १९५९ पासून त्यांनी परिसरात राबविली. या योजनेचे फलित म्हणजे, १९७६ साली ऑक्टोंबर महिन्यात प्रवरा हॉस्पिटलमध्ये चार दिवस भरविलेल्या कुटुंबनियोजन शिबिरात ६,२३१ शस्त्रक्रिया यशस्वी रीत्या पूर्ण करण्यात आल्या व त्यातून शस्त्रक्रियांचा जागतिक विक्रम प्रस्थापित झाला.


विखे−पाटील यांनी पुढील सामाजिक. शैक्षणिक संस्थांवर विविध नात्यांनी काम केले : प्रवरा शिक्षणोत्तेजक सहकारी पतपेढीचे संस्थापक व अध्यक्ष (१९५३), अहमदनगर जिल्हा मराठा विद्याप्रसारक समाजाचे अध्यक्ष (१९५३−५६), कोपरगाव व कारेगाव सह. साखर कारख्यान्यांचे सन्मानीय संचालक (१९५४), प्रवरा ग्रामीण शिक्षणसंस्थेचे आद्य प्रवर्तक (१९६४), साखर कामगार हॉस्पिटलचे (श्रीरामपूर) अध्यक्ष (१९६८), अहमदनगर जिल्हा सहकारी बँकेचे संचालक (१९५८) व अध्यक्ष (१९६८), गोदावरी विकास मंडळाचे सदस्य (१९७१) इत्यादी.


कर्मवीर भाऊराव पाटील यांच्या शैक्षणिक कार्याने ते प्रभावित झाले व त्यांनी कर्मवीरांना नगर जिल्ह्यात शैक्षणिक संस्था उभारण्यास पाचारण केले. तसेच सर्वतोपरीने साहाय्य केले. विखे−पाटील हे रयत शिक्षण संस्थेचे संचालक व उपाध्यक्ष (१९७८) होते. ग्रामीण भागातील आरोग्याचे प्रश्न सुटावेत; म्हणून त्यांनी ‘प्रवरा मेडिकल ट्रस्ट’ ची स्थापना (१९७४) करून अत्याधुनिक सुविधा असलेले भव्य इस्पितळ लोणीत सुरू केले. त्यांच्या पश्चात् त्यांनी स्थापन केलेल्या विविध संस्थांच्या माध्यमांतून अनेक शिक्षणसंस्था-उदा., वैद्यकीय, दंत, परिचालिका, अभियांत्रिकी, तंत्रनिकेतन (मुलांचे व मुलींचे), औद्योगिक प्रशिक्षण संस्था, कला अकादमी तसेच गावोगावी अनेक माध्यमिक विद्यालये इ. संस्था उभ्या राहिल्या. त्यांचे चिरंजीव बाळासाहेब विखे−पाटील व नातू राधाकृष्ण विखे-पाटील यांनी समर्थपणे पुढे चालविले आहे.


विखे−पाटील यांनी सहकार, कृषी, औद्योगिक व शैक्षणिक क्षेत्रांत केलेल्या मौलिक कामगिरीबद्दल भारत सरकारने त्यांना १९६१ मध्ये ‘पद्मश्री’ हा किताब दिला, तर पुणे विद्यापीठाने ‘डी. लिट्.’ (१९७८) व राहुरी येथील महात्मा फुले कृषी विद्यापीठाने ‘डॉक्टर ऑफ सायन्स’ (१९७९) या पदव्या प्रदान केल्या. लोणी बुद्रुक येथे त्याचे निधन झाले.