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ज़ाकिर हुसैन

 

      

                 *ज़ाकिर हुसैन*  

          (भारत के तिसरे राष्ट्रपती)

            *जन्म : 8 फ़रवरी, 1897*

             (हैदराबाद, आंध्र प्रदेश)

            *मृत्यु : 3 मई, 1969*

                 ( दिल्ली)                                          पिता- फ़िदा हुसैन खान

पत्नी : शाहजेहन बेगम

नागरिकता : भारतीय

प्रसिद्धि : भारत के तीसरे राष्ट्रपति

पार्टी : कांग्रेस

पद : राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, बिहार के राज्यपाल

कार्य काल राष्ट्रपति, भारत- 13 मई 1967 से 3 मई 1969 तक

उपराष्ट्रपति, भारत- 13 मई 1962 से 12 मई 1967 तक

राज्यपाल, बिहार- 6 जुलाई 1957 से 11 मई 1962 तक

शिक्षा : पी.एच.डी

विद्यालय : बर्लिन विश्वविद्यालय

भाषा : हिंदी

पुरस्कार-उपाधि : भारत रत्न (1963), पद्म विभूषण (1954)

अन्य जानकारी : भारतीय प्रेस आयोग, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, यूनेस्को, अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा सेवा तथा केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड से भी जुड़े रहे।

                 डॉ. ज़ाकिर हुसैन भारत के तीसरे राष्ट्रपति थे। उनका राष्ट्रपति कार्यकाल 13 मई 1967 से 3 मई 1969 तक रहा। डॉ. जाकिर हुसैन मशहूर शिक्षाविद् और आधुनिक भारत के द्रष्टाथे। ये बिहार के राज्यपाल (कार्यकाल- 1957 से 1962 तक) और भारत के उपराष्ट्रपति (कार्यकाल- 1962 से 1967 तक) भी रहे। उन्हें वर्ष 1963 मे भारत रत्न से सम्मानित किया गया। 1969 में असमय देहावसान के कारण वे अपना राष्ट्रपति कार्यकाल पूरा नहीं कर सके।

💁🏻‍♂️ *जीवन परिचय*

डॉ. ज़ाकिर हुसैन का जन्म 8 फ़रवरी, 1897 ई. में हैदराबाद, आंध्र प्रदेश के धनाढ्य पठान परिवार में हुआ था। कुछ समय बाद इनके पिता उत्तर प्रदेश में रहने आ गये थे। केवल 23 वर्ष की अवस्था में वे 'जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय' की स्थापना दल के सदस्य बने। वे अर्थशास्त्र में पी.एच.डी की डिग्री के लिए जर्मनी के बर्लिन विश्वविद्यालय गए और लौट कर जामिया के उप कुलपति के पद पर भी आसीन हुए। 1920 में उन्होंने 'जामिया मिलिया इस्लामिया' की स्थापना में योगदान दिया तथा इसके उपकुलपति बने। इनके नेतृत्व में जामिया मिलिया इस्लामिया का राष्ट्रवादी कार्यों तथा स्वाधीनता संग्राम की ओर झुकाव रहा। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् वे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति बने तथा उनकी अध्यक्षता में ‘विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग’ भी गठित किया गया। इसके अलावा वे भारतीय प्रेस आयोग, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, यूनेस्को, अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा सेवा तथा केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड से भी जुड़े रहे। 1962 ई. में वे भारत के उपराष्ट्रपति बने।


🌀 *कार्यक्षेत्र*

डॉ. ज़ाकिर हुसैन भारत के राष्ट्रपति बनने वाले पहले मुसलमान थे। देश के युवाओं से सरकारी संस्थानों का वहिष्कार की गाँधी की अपील का हुसैन ने पालन किया। उन्होंने अलीगढ़ में मुस्लिम नेशनल यूनिवर्सिटी (बाद में दिल्ली ले जायी गई) की स्थापना में मदद की और 1926 से 1948 तक इसके कुलपति रहे। महात्मा गाँधी के निमन्त्रण पर वह प्राथमिक शिक्षा के राष्ट्रीय आयोग के अध्यक्ष भी बने, जिसकी स्थापना 1937 में स्कूलों के लिए गाँधीवादी पाठ्यक्रम बनाने के लिए हुई थी। 1948 में हुसैन अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति बने और चार वर्ष के बाद उन्होंने राज्यसभा में प्रवेश किया। 1956-58 में वह संयुक्त राष्ट्र शिक्षा, विज्ञान और संस्कृति संगठन (यूनेस्को) की कार्यकारी समिति में रहे। 1957 में उन्हें बिहार का राज्यपाल नियुक्त किया गया और 1962 में वह भारत के उपराष्ट्रपति निर्वाचित हुए। 1967 में कांग्रेस पार्टी के आधिकारिक उम्मीदवार के रूप में वह भारत के राष्ट्रपति पद के लिए चुने गये और मृत्यु तक पदासीन रहे।


♨️ *अनुशासनप्रिय व्यक्तित्त्व*

डॉ. ज़ाकिर हुसैन बेहद अनुशासनप्रिय व्यक्तित्त्व के धनी थे। उनकी अनुशासनप्रियता नीचे दिये प्रसंग से समझा जा सकता है। यह प्रसंग उस समय का है, जब डॉ. जाकिर हुसैन जामिया मिलिया इस्लामिया के कुलपति थे। जाकिर हुसैन बेहद ही अनुशासनप्रिय व्यक्ति थे। वे चाहते थे कि जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्र अत्यंत अनुशासित रहें, जिनमें साफ-सुथरे कपड़े और पॉलिश से चमकते जूते होना सर्वोपरि था। इसके लिए डॉ. जाकिर हुसैन ने एक लिखित आदेश भी निकाला, किंतु छात्रों ने उस पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। छात्र अपनी मनमर्ज़ी से ही चलते थे, जिसके कारण जामिया विश्वविद्यालय का अनुशासन बिगड़ने लगा। यह देखकर डॉ. हुसैन ने छात्रों को अलग तरीके से सुधारने पर विचार किया। एक दिन वे विश्वविद्यालय के दरवाज़े पर ब्रश और पॉलिश लेकर बैठ गए और हर आने-जाने वाले छात्र के जूते ब्रश करने लगे। यह देखकर सभी छात्र बहुत लज्जित हुए। उन्होंने अपनी भूल मानते हुए डॉ. हुसैन से क्षमा मांगी और अगले दिन से सभी छात्र साफ-सुथरे कपड़ों में और जूतों पर पॉलिश करके आने लगे। इस तरह विश्वविद्यालय में पुन: अनुशासन कायम हो गया।


🎖️ *सम्मान और पुरस्कार*

पद्म विभूषण (1954)

भारत रत्न (1963)

🕯️ *निधन*

राष्ट्रपति बनने पर अपने उद्घाटन भाषण में उन्होंने कहा था कि समूचा भारत मेरा घर है और इसके सभी बाशिन्दे मेरा परिवार हैं। 3 मई 1969 को उनका निधन हो गया। वह देश के ऐसे पहले राष्ट्रपति थे जिनका कार्यालय में निधन हुआ।

                 

        



कल्पना दत्ता

               

                 *कल्पना दत्ता*

          (भारतीय क्रांतिकारक)


      *जन्म : 27 जुलै, 1913*

     (सिरपूर, चितगांव (बांग्लादेश), बंगाल)


     *मृत्यु : 8 फेब्रुवारी 1995*

        (कलकत्ता, पश्चिम बंगाल)


इतर नाव : कल्पना जोशी

पति : पूरन चंद जोशी

नागरिकता : भारतीय

चळवळ : भारतीय स्वातंत्र्य लढा

जेल यात्रा : फेब्रुवारी 1934 मध्ये 21 वर्षाच्या कल्पना दत्त यांना आजीवन कारावासाची शिक्षा झाली.


अन्य माहीती : सप्टेंबर  1979  मध्ये कल्पना दत्त यांना पुण्यात 'वीर महिला' या उपाधि ने सम्मानित  केले गेले.


कल्पना दत्ता  (नंतर कल्पना जोशी) ही एक भारतीय स्वातंत्र्य चळवळीतली कार्यकर्ती होती. ती सूर्य सेनच्या सशस्त्र चळवळीत होती. हे सूर्य सेन १९३० च्या चितगांवला झालेल्या शस्त्रागार धाडेच्या मागे होते. नंतर ती भारतीय कम्युनिस्ट पक्षाची सदस्य झाली, व तिने पुरणचंद जोशीशी विवाह केल. ती १९४३ साली भाकपची अध्यक्ष झाली. 


💁‍♀️ *सुरुवातीचे जीवन*


कल्पनाचा जन्म बंगालमधील चितगांव जिल्ह्यातील सिरपूर गावात झाला. १९२९ साली मॅट्रिकची परीक्षा पास झाल्यावर, ती कलकत्त्याला बे्थ्थ्यून काॅलेज येथे विज्ञानात पदवी करण्यसाठी गेली. तेथे असतानाच ती विद्यार्थी संघ या क्रांतिकारी संस्स्थेची सदस्य झाली. त्या संस्थेत वीणा दास, प्रीतिलता वड्डेदार, ह्या पण सक्रिय होत्या.


🔫 *सशस्त्र चळवळ*


चितगांव शस्त्रागार धाड ही १८ एप्रिल १९३० ला पडली. त्यानंतर कल्पना १९३१ सालच्या मे मध्ये सूर्य सेनच्या सशस्त्र गटाच्या 'भारतीय रिपब्लिकन आर्मी’ च्या चितगांव शाखेत भरती झाली. सप्टेंबर १९३१ ला सूर्य सेनने तिला व प्रीतिलता वड्डेदारला चितगांव येथील युरोपियन क्लबवर हल्ला करण्यासाठी नेमले. पण हल्ला करण्याच्या एक आठवडा आधीच तिला हल्ल्याच्या जागेची टेहळणी करताना अटक झाली. जामिनावर सुटका झाल्यावर तिने लपून राहायला सुरुवात केली. १७ फेब्रुवारी १९३३ रोजी पोलिसांनी तिच्या लपण्याच्या जागेला घेरा दिला व सूर्य सेनला पकडले; पण कल्पना तिथून पळून निघाली. पुढे कल्पनाला १९ मे १९३३ रोजी अटक झाली. चितगांव धाडीच्या दुसर्‍या सुनावणीत तिला शिक्षा झाली. १९३९ मध्ये तिची सुटका झाली.


🙍🏻‍♀️ *नंतरचे जीवन*


कल्पना १९४० ला कलकत्ता विद्यापीठातून पद्वीधर झाली, व भाकपची सदस्य झाली. १९४३ च्या बंगालमधील दुष्काळात व बंगालच्या फाळणीच्या वेळेस तिने स्वयंसेवक म्हणून काम केले. तिने तिचे आत्मकथात्मक पुस्तक, चितगांव शस्त्रागार धाडीच्या आठवणी हे १९४५ ला इंग्रजीत प्रकाशीत केले. १९४६ मध्ये ती बंगाल विधान सभेत चितगांव येथून भाकप कडून निवडणूक लढली, पण जिंकू शकली नाही.


नंतर तिने भारतीय संख्याशास्त्रीय संस्था (Indian Statistical Institute) येथे निवृत्त होईपर्यंत नोकरी केली. ८ फेब्रुवारी १९९५ रोजी तिचा म्रुत्यू झाला.


💁‍♀️ *वैयक्तिक जीवन*


कल्पना दत्ताने १९४३ मध्ये भाकपचे अध्यक्ष पुरनचंद जोशी, ह्यांच्याशी विवाह केला.. त्यांना दोन मुले झाली. चंद व सूरज. चंद जोशी हा हिंदुस्तान टाइम्समध्ये पत्रकार होता.


🎞️ *चित्रपट*


चितगांवच्या धाडीवर २०१० मध्ये 'खेले हम जी जान से' हा हिंदी चित्रपट निघाला. त्यात दीपिका पादुकोनने कल्पनाचे काम केले होते. पुन्हा १२ आॅक्टोबर २०१२ ला 'चितगांव' हा आणखी एक चित्रपट निघाला त्याची निर्मिती आणि दिग्दर्शन वेदव्रत पॅन, ह्या नासातील माजी वैज्ञानिकाने केले होते.

         

सुहासिनी गांगुली..

      

         *सुहासिनी गांगुली*

      (भारतीय स्वतंत्रता सेनानी)


*जन्म : 3 फ़रवरी, 1909*

         (खुलना, बंगाल)

*मृत्यु : 23 मार्च, 1965*

                                                                                     अन्य नाम : सुहासिनी दीदी                                                                                         पिता : अविनाश चन्द्र गांगुली, माता : सरलासुन्दरी देवी

नागरिकता : भारतीय

प्रसिद्धि : स्वतंत्रता सेनानी

जेल यात्रा : हिजली जेल में 1930 से 1938 तक रहीं।

अन्य जानकारी : सन 1942 के आन्दोलन में भी सुहासिनी गांगुली ने भाग लिया और फिर जेल गईं। इसके बाद 1945 में छूटीं।

                                                                          सुहासिनी गांगुली भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थीं। भारतवर्ष की आज़ादी उनके जीवन का सबसे बड़ा सपना था, जिसको पूरा करने में उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया। उनके इस त्यागमय जीवन और साहसिक कार्य को सम्मान देने के लिए कोलकाता की एक सड़क का नाम 'सुहासिनी गांगुली सरनी' रखा गया है। रचना भोला यामिनी ने अपनी पुस्तक 'स्वतंत्रता संग्राम की क्रांतिकारी महिलाएँ' में उनके जीवन चरित्र का वर्णन किया है।


💁‍♂️ *परिचय*

सुहासिनी गांगुली का जन्म 3 फ़रवरी सन 1909 में खुलना, बंगाल में हुआ था। उनका पैत्रिक घर ढाका, ज़िला विक्रमपुर के बाघिया नामक गाँव में था। पिता अविनाश चन्द्र गांगुली और माता सरलासुन्दरी देवी की बेटी सुहासिनी 1924 में ढाका ईडन हाईस्कूल से मैट्रिक पास करके ईडन कालेज से स्नातक बनीं। एक तैराकी स्कूल में वे कल्याणी दास और कमला दासगुप्ता के सम्पर्क में आईं और क्रांतिकारी दल का साथ देने के लिए प्रशिक्षण लेने लगीं। 1929 में विप्लवी दल के नेता रसिक लाल दास से परिचय होने के बाद तो वह पूरी तरह से दल में सक्रिय हो गईं। हेमन्त तरफदार ने भी उन्हें इस ओर प्रोत्साहित किया।                                                                   ✏️ *अध्यापन कार्य*

सन 1930 के 'चटगांव शस्त्रागार कांड' के बाद बहुत से क्रांतिकारी ब्रिटिश पुलिस की धर-पकड़ से बचने के लिए चन्द्रनगर चले गये थे। सुहासिनी गांगुली इन क्रांतिकारियों को सुरक्षा देने के लिए कलकत्ता से चंद्रनगर पहुँचीं। इसके पहले वह कलकत्ता में गूंगे-बहरे बच्चों के एक स्कूल में कार्य कर रहीं थीं। चन्द्रनगर पहुँचकर उन्होंने वहीं के एक स्कूल में अध्यापन-कार्य ले लिया। शाम से सुबह तक वह क्रांतिकारियों की सहायक उनकी प्रिय सुहासिनी दीदी थीं। दिन भर एक समान्य अध्यापिका के रूप में काम पर जाती थीं और घर में शशिधर आचार्य की छद्म पत्नी बनकर रहती थीं ताकि किसी को संदेह न हो और यह घर एक सामान्य गृहस्थ का घर लगे और वह क्रांतिकारियों को सुरक्षा भी दे सकें। गणेश घोष, लोकनाथ बल, जीवन घोषाल, हेमन्त तरफदार आदि क्रांतिकारी बारी-बारी से यहीं आकर ठहरते थे।


⛓️⛓️ *गिरफ़्तारी*

यह सब करने पर भी ब्रिटिश अधिकारियों को सुहासिनी गांगुली पर संदेह हो गया। उस घर पर चौबीसों घंटे निगाह रखी जाने लगी। फिर 1 सितम्बर, 1930 को उस मकान पर घेरा डाल दिया गया। आमने-सामने की मुठभेड़ में जीवन घोषाल गोली से मारे गए। अनन्त सिंह पहले ही पुलिस को आत्म समर्पण कर चुके थे। शेष साथी और सुहासिनी गांगुली अपने तथाकथित पति शशिधर आचार्य के साथ गिरफ्तार हो गईं। उन्हें हिजली जेल भेज दिया गया, जहाँ इन्दुमति सिंह भी थीं। आठ साल की लम्बी अवधि के बाद वे 1938 में रिहा की गईं।                                           🇮🇳 *स्वतंत्रता संग्राम में योगदान*

सन 1942 के आन्दोलन में उन्होंने फिर से स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया फिर जेल गईं और 1945 में छूटीं। हेमन्त तरफदार तब धनबाद के एक आश्रम में संन्यासी भेष में रह रहे थे। रिहाई के बाद सुहासिनी गांगुली भी उसी आश्रम में पहुँच गईं और आश्रम की ममतामयी सुहासिनी दीदी बनकर वहीं रहने लगीं। बाकी का अपना जीवन उन्होंने इसी आश्रम में बिताया।                    🇮🇳 *जयहिंद* 🇮🇳   

   🙏 *विनम्र अभिवादन*🙏


           

ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान

 ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान*


    *जन्म : 6 फ़रवरी 1890*

उतमंजाई, भारत (आज़ादी से पूर्व)

  *मृत्यु : 20 जनवरी 1988*

          (पेशावर, पाकिस्तान)


पूरा नाम : ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार  

                 ख़ान

अन्य नाम : 'सीमांत गांधी', 'बाचा 

                 ख़ान', 'बादशाह ख़ान'

अभिभावक : अब्दुल्ला ख़ान (परदादा), बैरम ख़ान (पिता)

नागरिकता : भारतीय

पार्टी : कांग्रेस

विद्यालय : मिशनरी स्कूल

जेल यात्रा : 1919 ई., 1930 ई. और 1942 ई. में जेल यात्रा की।


पुरस्कार-उपाधि : भारत रत्न


रचना : 'माई लाइफ़ ऐंड स्ट्रगल'


अन्य जानकारी : गांधी जी के कट्टर अनुयायी होने के कारण ही उनकी 'सीमांत गांधी' की छवि बनी। विनम्र ग़फ़्फ़ार ने सदैव स्वयं को एक 'स्वतंत्रता संघर्ष का सैनिक' मात्र कहा, परन्तु उनके प्रसंशकों ने उन्हें 'बादशाह ख़ान' कह कर पुकारा।


ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान सीमाप्रांत और बलूचिस्तान के एक महान राजनेता थे जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया और अपने कार्य और निष्ठा के कारण "सरहदी गांधी" (सीमान्त गांधी), "बच्चा खाँ" तथा "बादशाह खान" के नाम से पुकारे जाने लगे। वे भारतीय उपमहाद्वीप में अंग्रेज शासन के विरुद्ध अहिंसा के प्रयोग के लिए जाने जाते है। एक समय उनका लक्ष्य संयुक्त, स्वतन्त्र और धर्मनिरपेक्ष भारत था। इसके लिये उन्होने 1920 में खुदाई खिदमतगार नाम के संग्ठन की स्थापना की। यह संगठन "सुर्ख पोश" के नाम से भी जाने जाता है।


💁‍♂ *जीवनी*


खान अब्दुल गफ्फार खान का जन्म पेशावर, पाकिस्तान में हुआ था। उनके परदादा आबेदुल्ला खान सत्यवादी होने के साथ ही साथ लड़ाकू स्वभाव के थे। पठानी कबीलियों के लिए और भारतीय आजादी के लिए उन्होंने बड़ी बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी थी। आजादी की लड़ाई के लिए उन्हें प्राणदंड दिया गया था। वे जैसे बलशाली थे वैसे ही समझदार और चतुर भी। इसी प्रकार बादशाह खाँ के दादा सैफुल्ला खान भी लड़ाकू स्वभाव के थे। उन्होंने सारी जिंदगी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। जहाँ भी पठानों के ऊपर अंग्रेज हमला करते रहे, वहाँ सैफुल्ला खान मदद में जाते रहे।


आजादी की लड़ाई का यही सबक अब्दुल गफ्फार खान ने अपने दादा से सीखा था। उनके पिता बैराम खान का स्वभाव कुछ भिन्न था। वे शांत स्वभाव के थे और ईश्वरभक्ति में लीन रहा करते थे। उन्होंने अपने लड़के अब्दुल गफ्फार खान को शिक्षित बनाने के लिए मिशन स्कूल में भरती कराया यद्यपि पठानों ने उनका बड़ा विरोध किया। मिशनरी स्कूल की पढ़ाई समाप्त करने के पश्चात् वे अलीगढ़ गए किंतु वहाँ रहने की कठिनाई के कारण गाँव में ही रहना पसंद किया। गर्मी की छुट्टियाँ में खाली रहने पर समाजसेवा का कार्य करना उनका मुख्य काम था। शिक्षा समाप्त होने के बाद यह देशसेवा में लग गए।


पेशावर में जब 1919 ई. में फौजी कानून (मार्शल ला) लागू किया गया उस समय उन्होंने शांति का प्रस्ताव उपस्थित किया, फिर भी वे गिरफ्तार किए गए। अंग्रेज सरकार उनपर विद्रोह का आरोप लगाकर जेल में बंद रखना चाहती थी अत: उसकी ओर से इस प्रकार के गवाह तैयार करने के प्रयत्न किए गए जो यह कहें कि बादशाह खान के भड़काने पर जनता ने तार तोड़े। किंतु कोई ऐसा व्यक्ति तैयार नहीं हुआ जो सरकार की तरफ ये झूठी गवाही दे। फिर भी इस झूठे आरोप में उन्हें छह मास की सजा दी गई।


खुदाई खिदमतगार का जो सामाजिक संगठन उन्होंने बनाया था, उसका कार्य शीघ्र ही राजनीतिक कार्य में परिवर्तित हो गया। खान साहब का कहना है : प्रत्येक खुदाई खिदमतगार की यही प्रतिज्ञा होती है कि हम खुदा के बंदे हैं, दौलत या मौत की हमें कदर नहीं है। और हमारे नेता सदा आगे बढ़ते चलते है। मौत को गले लगाने के लिये हम तैयार है। 1930 ई. में सत्याग्रह करने पर वे पुन: जेल भेजे गए और उनका तबादला गुजरात (पंजाब) के जेल में कर दिया गया। वहाँ आने के पश्चात् उनका पंजाब के अन्य राजबंदियों से परिचय हुआ। जेल में उन्होंने सिख गुरूओं के ग्रंथ पढ़े और गीता का अध्ययन किया। हिंदु तथा मुसलमानों के आपसी मेल-मिलाप को जरूरी समझकर उन्होंने गुजरात के जेलखाने में गीता तथा कुरान के दर्जे लगाए, जहाँ योग्य संस्कृतज्ञ और मौलवी संबंधित दर्जे को चलाते थे। उनकी संगति से अन्य कैदी भी प्रभावित हुए और गीता, कुरान तथा ग्रंथ साहब आदि सभी ग्रंथों का अध्ययन सबने किया।


२९ मार्च सन् १९३१ को लंदन द्वितीय गोल मेज सम्मेलन के पूर्व महात्मा गांधी और तत्कालीन वाइसराय लार्ड इरविन के बीच एक राजनैतिक समझौता हुआ जिसे गांधी-इरविन समझौता (Gandhi–Irwin Pact) कहते हैं। गांधी इरविन समझौता|गांधी इरविन समझौते के बाद खान साहब छोड़े गए और वे सामाजिक कार्यो में लग गए।


गांधीजी इंग्लैंड से लौटे ही थे कि सरकार ने कांग्रेस पर फिर पाबंदी लगा दी अत: बाध्य होकर व्यक्तिगत अवज्ञा का आंदोलन प्रारंभ हुआ। सीमाप्रांत में भी सरकार की ज्यादतियों के विरूद्ध मालगुजारी आंदोलन शुरू कर दिया गया और सरकार ने उन्हें और उनके भाई डॉ. खान को आंदोलन का सूत्रधार मानकर सारे घर को कैद कर लिया।


1934 ई. में जेल से छूटने पर दोनों भाई वर्धा में रहने लगे। और इस बीच उन्होंने सारे देश का दौरा किया। कांग्रेस के निश्चय के अनुसार 1939 ई. में प्रांतीय कौंसिलों पर अधिकार प्राप्त हुआ तो सीमाप्रांत में भी कांग्रेस मंत्रिमडल उनके भाई डॉ. खान के नेतृत्व में बना लेकिन स्वयं वे उससे अलग रहकर जनता की सेवा करते रहे। 1942 ई. के अगस्त आंदोलन के सिलसिले में वे गिरफ्तार किए गए और 1947 ई. में छूटे।


देश का बटवारा होने पर उनका संबंध भारत से टूट सा गया किंतु वे देश के विभाजन से किसी प्रकार सहमत न हो सके। इसलिए पाकिस्तान से उनकी विचारधारा सर्वथा भिन्न थी। पाकिस्तान के विरूद्ध उन्होने स्वतंत्र पख्तूनिस्तान आंदोलन आजीवन जारी रखा।


1970 में वे भारत और देश भर में घूमे। उस समय उन्होंने शिकायत की भारत ने उन्हें भेड़ियों के समाने डाल दिया है तथा भारत से जो आकांक्षा थी, एक भी पूरी न हुई। भारत को इस बात पर बार-बार विचार करना चाहिए।


उन्हें वर्ष 1987 में भारत रत्न से सम्मनित किया गया।


👬🏻 *महात्मा गाँधी के साथ*


पेशावर में जब 1919 ई. में अंग्रेज़ों ने 'फ़ौजी क़ानून' (मार्शल लॉ) लगाया। अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान ने अंग्रेज़ों के सामने शांति का प्रस्ताव रखा, फिर भी उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया।


1930 ई. में सत्याग्रह आंदोलन करने पर वे पुन: जेल भेजे गए और उन्हें गुजरात (उस समय पंजाब का भाग) की जेल भेजा गया। वहाँ पंजाब के अन्य बंदियों से उनका परिचय हुआ। उन्होंने जेल में सिख गुरुओं के ग्रंथ पढ़े और गीता का अध्ययन किया। हिंदू मुस्लिम एकता को ज़रूरी समझकर उन्होंनें गुजरात की जेल में गीता तथा क़ुरान की कक्षा लगायीं, जहाँ योग्य संस्कृतज्ञ और मौलवी संबंधित कक्षा को चलाते थे। उनकी संगति से सभी प्रभावित हुए और गीता, क़ुरान तथा गुरु ग्रंथ साहब आदि सभी ग्रंथों का अध्ययन सबने किया। बादशाह ख़ान (ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान) आंदोलन भारत की आज़ादी के अहिंसक राष्ट्रीय आंदोलन का समर्थन करते थे और इन्होंने पख़्तूनों को राजनीतिक रूप से जागरूक बनाने का प्रयास किया। 1930 के दशक के उत्तरार्द्ध तक ग़फ़्फ़ार ख़ां महात्मा गांधी के निकटस्थ सलाहकारों में से एक हो गए और 1947 में भारत का विभाजन होने तक ख़ुदाई ख़िदमतगार ने सक्रिय रूप से कांग्रेस पार्टी का साथ दिया। इनके भाई डॉक्टर ख़ां साहब (1858-1958) भी गांधी के क़रीबी और कांग्रेसी आंदोलन के सहयोगी थे। सन 1930 ई. के गाँधी-इरविन समझौते के बाद अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को छोड़ा गया और वे सामाजिक कार्यो में लग गए। 1937 के प्रांतीय चुनावों में कांग्रेस ने पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत की प्रांतीय विधानसभा में बहुमत प्राप्त किया। ख़ां साहब को पार्टी का नेता चुना गया और वह मुख्यमंत्री बने। 1942 ई. के अगस्त आंदोलन में वह गिरफ्तार किए गए और 1947 ई. में छूटे।


देश के विभाजन के विरोधी ग़फ़्फ़ार ख़ां ने पाकिस्तान में रहने का निश्चय किया, जहां उन्होंने पख़्तून अल्पसंख़्यकों के अधिकारों और पाकिस्तान के भीतर स्वायत्तशासी पख़्तूनिस्तान (या पठानिस्तान) के लिए लड़ाई जारी रखी। भारत का बँटवारा होने पर उनका संबंध भारत से टूट सा गया किंतु वह भारत के विभाजन से किसी प्रकार सहमत न थे। पाकिस्तान से उनकी विचारधारा सर्वथा भिन्न थी। पाकिस्तान के विरुद्ध 'स्वतंत्र पख़्तूनिस्तान आंदोलन' आजीवन चलाते रहे। उन्हें अपने सिद्धांतों की भारी क़ीमत चुकानी पड़ी, वह कई वर्षों तक जेल में रहे और उसके बाद उन्हें अफ़ग़ानिस्तान में रहना पड़ा।


1985 के 'कांग्रेस शताब्दी समारोह' के आप प्रमुख आकर्षण का केंद्र थे। 1970 में वे भारत भर में घूमे। 1972 में वह पाकिस्तान लौटे।


इनका संस्मरण ग्रंथ "माई लाइफ़ ऐंड स्ट्रगल" 1969 में प्रकाशित हुआ।


⏳ *मृत्यु*


सन 1988 में पाक़िस्तान सरकार ने उन्हें पेशावर में उनके घर में नज़रबंद कर दिया गया। 20 जनवरी 1988 को उनकी मृत्यु हो गयी और उनकी अंतिम इच्छानुसार उन्हें जलालाबाद अफ़ग़ानिस्तान में दफ़नाया गया।


         

महेन्द्रनाथ मुल्ला


              

                *महेन्द्रनाथ मुल्ला* ( भारतीय नौसेना के जाँबाज अधिकारी)

            *जन्म : 15 मई, 1926*

              (गोरखपुर, उत्तर प्रदेश)

           *मृत्यु : 9 दिसम्बर, 1971* (अरब सागर, महाराष्ट्र के निकट)

कर्म भूमि : भारत

कर्म-क्षेत्र : भारतीय नौसेना में अफ़सर

पुरस्कार : 'महावीर चक्र'

नागरिकता : भारतीय

सेवा : भारतीय नौसेना

सेवा काल : 1948 से 1971

पोत : आईएनएस खुखरी

अन्य जानकारी : महेन्द्रनाथ मुल्ला ने पाकिस्तानी पनडुब्बी द्वारा निशाना बनाये गए भारतीय पोत 'आईएनएस खुखरी' को अंत समय तक नहीं छोड़ा और उस पर सवार सैनिकों को बचाते रहे। अंत में उन्होंने भी पोत के साथ ही अरब सागर में जल समाधि ले ली।

               महेन्द्रनाथ मुल्ला भारतीय नौसेना के जांबाज ऑफ़ीसर थे। वे भारतीय समुद्रवाहक पोत 'आईएनएस खुखरी' के कप्तान थे। भारत-पाकिस्तान युद्ध,1971 में हर जगह वाहवाही लूटने के बावजूद कम से कम एक मौक़ा ऐसा आया, जब पाकिस्तानी नौसेना भारतीय नौसेना पर भारी पड़ी। पाकिस्तान की एक पनडुब्बी भारतीय जलसीमा में घूम रही थी, जिसे खोजने और नष्ट करने के लिए 'आईएनएस खुखरी' और 'कृपाण' पोतों को लगाया गया था, किंतु पाकिस्तानी पनडुब्बी 'हंगोर' ने खुखरी को निशाना बना लिया। कप्तान महेन्द्रनाथ मुल्ला ने डूबते हुए खुखरी को छोड़ने से मना कर दिया और अंत तक सैनिकों को बचाते रहे। आईएनएस खुखरी के साथ ही महेन्द्रनाथ मुल्ला ने भी जल समाधि ले ली। उनके मरणोपरांत उन्हें 'महावीर चक्र' से सम्मानित किया गया।


💁🏻‍♂️ *जन्म*

महेन्द्रनाथ मुल्ला का जन्म 15 मई, 1926 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर ज़िले में हुआ था। उन्होंने 1 मई, 1948 को भारतीय नौसेना में कमीशन प्राप्त किया था।


💥 *भारत-पाकिस्तान युद्ध*

वर्ष 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में केवल एक अवसर ही ऐसा आया, जब पाकिस्तानी नौसेना ने भारतीय नौसेना को नुकसान पहुँचाया। भारतीय नौसेना को अंदाज़ा था कि युद्ध शुरू होने पर पाकिस्तानी पनडुब्बियाँ मुंबई के बंदरगाह को अपना निशाना बनाएंगी। इसलिए उन्होंने तय किया कि लड़ाई शुरू होने से पहले सारे नौसेना फ़्लीट को मुंबई से बाहर ले जाया जाए।


जब 2 और 3 दिसम्बर की रात को नौसेना के पोत मुंबई छोड़ रहे थे, तब उन्हें यह अंदाज़ा ही नहीं था कि एक पाकिस्तानी पनडुब्बी 'पीएनएस हंगोर' ठीक उनके नीचे उन्हें डुबा देने के लिए तैयार खड़ी थी। उस पनडुब्बी में तैनात तत्कालीन पाकिस्तानी नौसेना के लेफ़्टिनेंट कमांडर और बाद मे रियर एडमिरल बने तसनीम अहमद के अनुसार- "पूरा का पूरा भारतीय फ़्लीट हमारे सिर के ऊपर से गुज़रा और हम हाथ मलते रह गए, क्योंकि हमारे पास हमला करने के आदेश नहीं थे; क्योंकि युद्ध औपचारिक रूप से शुरू नहीं हुआ था। नियंत्रण कक्ष में कई लोगों ने टॉरपीडो फ़ायर करने के लिए बहुत ज़ोर डाला, लेकिन हमने उनकी बात सुनी नहीं। हमला करना युद्ध शुरू करने जैसा होता। मैं उस समय मात्र लेफ़्टिनेंट कमांडर था। मैं अपनी तरफ़ से तो लड़ाई शुरू नहीं कर सकता था।"


💥 *भारतीय नौसेना की कार्रवाई*

पाकिस्तानी पनडुब्बी उसी इलाक़े में घूमती रही। इस बीच उसकी एयरकंडीशनिंग में कुछ दिक्कत आ गई और उसे ठीक करने के लिए उसे समुद्र की सतह पर आना पड़ा। 36 घंटों की लगातार मशक्कत के बाद पनडुब्बी ठीक कर ली गई, लेकिन उसकी ओर से भेजे संदेशों से भारतीय नौसेना को यह अंदाज़ा हो गया कि एक पाकिस्तानी पनडुब्बी दीव के तट के आसपास घूम रही है। भारतीय नौसेना मुख्यालय ने आदेश दिया कि भारतीय जल सीमा में घूम रही इस पनडुब्बी को तुरंत नष्ट किया जाए और इसके लिए एंटी सबमरीन फ़्रिगेट 'आईएनएस खुखरी' और 'कृपाण' दो समुद्री पोतों को लगाया गया। दोनों पोत अपने मिशन पर 8 दिसम्बर को मुंबई से चले और 9 दिसम्बर की सुबह होने तक उस इलाक़े में पहुँच गए, जहाँ पाकिस्तानी पनडुब्बी के होने का संदेह था।


💥 *हंगोर द्वारा आक्रमण*

टोह लेने की लंबी दूरी की अपनी क्षमता के कारण पाकिस्तानी पनडुब्बी 'हंगोर' को पहले ही खुखरी और कृपाण के होने का पता चल गया। यह दोनों पोत ज़िग ज़ैग तरीक़े से पाकिस्तानी पनडुब्बी की खोज कर रहे थे। हंगोर ने उनके नज़दीक आने का इंतज़ार किया। पहला टॉरपीडो उसने कृपाण पर चलाया, लेकिन टॉरपीडो उसके नीचे से गुज़र गया और फटा ही नहीं। यह टॉरपीडो 3000 मीटर की दूरी से दागा गया था। भारतीय पोतों को अब हंगोर की स्थिति का अंदाज़ा हो गया था। पीएनएस हंगोर के पास विकल्प थे कि वह वहाँ से भागने की कोशिश करे या दूसरा टॉरपीडो दागे। उसने दूसरा विकल्प चुना। पाकिस्तानी नौसेना के लेफ़्टिनेंट कमांडर तसनीम अहमद के अनुसार- "मैंने हाई स्पीड पर टर्न अराउंड करके आईएनएस खुखरी पर पीछे से प्रहार किया। डेढ़ मिनट की रन थी और टॉरपीडो खुखरी की मैगज़ीन के नीचे जाकर फटा और दो या तीन मिनट के भीतर जहाज़ डूबना शुरू हो गया।"


आईएनएस खुखरी में परंपरा थी कि रात आठ बजकर 45 मिनट के समाचार सभी इकट्ठा होकर एक साथ सुना करते थे, ताकि उन्हें पता रहे कि बाहर की दुनिया में क्या हो रहा है। समाचार शुरू हुए ही थे कि पहले टारपीडो ने खुखरी को निशाना बनाया। जहाज़ के कप्तान महेन्द्रनाथ मुल्ला अपनी कुर्सी से गिर गए और उनका सिर लोहे से टकराया और उनके सिर से रक्त बहने लगा। दूसरा धमाका होते ही पूरे पोत की बिजली चली गई। महेन्द्रनाथ मुल्ला ने अपने सहकर्मी मनु शर्मा को आदेश दिया कि वह पता लगाएं कि क्या हो रहा है। मनु ने देखा कि खुखरी में दो छेद हो चुके थे और उसमें तेज़ी से पानी भर रहा था। उसके फ़नेल से लपटें निकल रही थीं।


उधर जब लेफ़्टिनेंट समीर काँति बसु भाग कर ब्रिज पर पहुँचे, उस समय महेन्द्रनाथ मुल्ला चीफ़ योमेन से कह रहे थे कि वह पश्चिमी नौसेना कमान के प्रमुख को सिग्नल भेजें कि खुखरी पर हमला हुआ है। बसु इससे पहले कि कुछ समझ पाते कि क्या हो रहा है, पानी उनके घुटनों तक पहुँच गया था। लोग जान बचाने के लिए इधर-उधर भाग रहे थे। खुखरी का ब्रिज समुद्री सतह से चौथी मंज़िल पर था, लेकिन मिनट भर से कम समय में ब्रिज और समुद्र का स्तर बराबर हो चुका था।


🎯 *मुल्ला द्वारा जहाज़ छोड़ने से इंकार*

मनु शर्मा और लेफ़्टिनेंट कुंदनमल आईएनएस खुखरी के ब्रिज पर महेन्द्रनाथ मुल्ला के साथ थे। महेन्द्रनाथ मुल्ला ने उनको ब्रिज से नीचे धक्का दिया। उन्होंने उनको भी साथ लाने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया। जब मनु शर्मा ने समुद्र में छलांग लगाई तो पूरे पानी में आग लगी हुई थी और उन्हें सुरक्षित बचने के लिए आग के नीचे से तैरना पड़ा। थोड़ी दूर जाकर मनु ने देखा कि खुखरी का अगला हिस्सा 80 डिग्री को कोण बनाते हुए लगभग सीधा हो गया है। पूरे पोत मे आग लगी हुई है और महेन्द्रनाथ मुल्ला अपनी सीट पर बैठे रेलिंग पकड़े हुए थे और उनके हाथ में अब भी जलती हुई सिगरेट थी।


🪔🏅 *शहादत तथा सम्मान*

इस समय भारत के 174 नाविक और 18 अधिकारी इस ऑपरेशन में मारे गए। कप्तान महेन्द्रनाथ मुल्ला ने भारतीय नौसेना की सर्वोच्च परंपरा का निर्वाह करते हुए अपना जहाज़ नहीं छोड़ा और जल समाधि ली। उनकी इस वीरता के लिए उन्हें मरणोपरांत 'महावीर चक्र' से सम्मानित कियाy गया।                                      

       

महाराणी ताराबाई

   

   

          *महाराणी ताराबाई*

        *राजारामराजे भोसले*


    *जन्म : 14 एप्रिल 1675*

         (जन्मस्थान : तळबिड)


    *मृत्यू : 9 डिसेंबर 1761*

         (मृत्यूस्थान : सिंहगड)


उपाधी = महाराणी.

राज्यकाळ : १७०० - १७०७

राज्याभिषेक : इ.स. १७००

राज्यव्याप्ती : पश्चिम महाराष्ट्र, कोकण,दक्षिण भारतात तंजावर पर्यंत

राजधानी : पन्हाळा

पूर्वाधिकारी : छत्रपती 

                  राजारामराजे भोसले

उत्तराधिकारी : शाहू भोसले

वडील : हंबीरराव मोहिते

राजवंश : भोसले

राजचलन : होन, शिवराई (सुवर्ण होन, रुप्य होन)


महाराणी ताराबाई (१६७५-१७६१)  ह्या छत्रपती राजाराम महाराजांच्या दुसऱ्या पत्‍नी आणि छत्रपती शिवाजी महाराजांचे सरसेनापती हंबीरराव मोहिते यांची कन्या होती. छत्रपती ताराराणी भोसले यांचा जन्म १६७५ साली झाला. ताराबाईंचे लग्न छत्रपती राजाराम महाराजांशी १६८३-८४ च्या सुमारास झाले. २५ मार्च १६८९ रोजी मोगलांनी रायगडास वेढा घातला असता त्या छत्रपती राजाराम महाराज यांच्यासह रायगडावरून निसटून गेल्या. छत्रपती राजाराम महाराज जिंजीला गेल्यानंतर ताराबाई, राजसबाई व अंबिकाबाई या विशाळगड येथे राहिल्या. रामचंद्रपंत अमात्य यांच्या मार्गदर्शनाखाली त्यांनी विशाळगड येथे लष्करी व मुलकी व्यवहाराची माहिती घेतली. सन १६९४ साली त्या तिघी जिंजीला पोहचल्या. ९ जून १६९६ रोजी ताराबाईंना शिवाजी हा पुत्र झाला.

                 राजाराम महाराजांच्या निधनानंतर राज्यकारभाराची सर्व सूत्रे हाती आल्यावर समोर उभ्या असलेल्या अनेक कठीण प्रसंगांनी खचून न जाता मोगली फौजांना मागे सारण्यासाठी ताराराणीने आक्रमक भूमिका घेतली. मराठेशाहीतील मुत्सद्यांना काळाचे गांभीर्य समजावून देऊन शेवटपर्यंत या सगळ्यांबरोबर एकजुटीने राहून तिने शत्रू थोपवून धरला. लष्कराचा आत्मविश्वास वाढवला. मोगलांना कर्दनकाळ वाटावेत असे कर्तृत्ववान सरदार त्यांच्यासमोर उभे केले. दिल्लीच्या राजसत्तेवर स्वतःचा असा धाक निर्माण केला. मराठ्यांची खालावलेली आर्थिक परिस्थिती उंचावण्यासाठी तिने मोगली मुलुखावर स्वाऱ्या करून चौथाई आणि सरदेशमुखी गोळा करून आर्थिक बळ वाढवले. सन १७०५ मध्ये मराठी फौजा नर्मदा ओलांडून माळवा प्रांतात शिरल्या आणि मोगल फौजांना त्यांनी खडे चारले. त्या जिंकलेल्या प्रांतांमधून चौथाई आणि सरदेशमुखी वसूल करून स्वराज्याची तिजोरी आर्थिकदृष्ट्या बळकट केली.

                      करवीर राज्याची, कोल्हापूरच्या राजगादीची तिने स्थापना केली. ताराबाई मराठ्यांच्या इतिहासातील ही एक कर्तबगार राजस्त्री होती. छत्रपती शिवाजी महाराज आणि छत्रपती संभाजीमहाराज यांच्यामागे त्यांनी कणखरपणे राज्याची धुरा सांभाळली. सरसेनापती संताजी, धनाजी यांना बरोबर घेऊन मोगलांना सळो की पळो करून सोडणारी ही रणरागिणी म्हणजे महाराष्ट्रातल्या कर्तृत्ववान स्त्रियांमधील एक मानाचे पान आहे.


💠 *कारकीर्द*

                  घोडेस्वारीमध्ये निपुण असलेल्या ताराबाई जात्याच अत्यंत बुद्धिमान, तडफदार होत्या. त्यांना युद्धकौशल्य आणि राजकारणातल्या उलाढालींचे तंत्र अवगत होते. इ.स. १७०० ते १७०७ या काळात शिवाजी महाराजांच्या या सुनेच्या तडफदार धोरणामुळे आणि मुत्सद्देगिरीमुळे औरंगजेबाला मराठ्यांशी झुंज देत सात वर्षे दक्षिणेत मुक्काम करावा लागला आणि अखेरीस अपयश घेऊन येथेच देह ठेवावा लागला. या काळात ताराबाई आणि दुसरा शिवाजी (कोल्हापूर) यांचा मुक्काम अधिक तर पन्हाळ्यावरच असे.


⚜ *ताराबाई*

                  वास्तविक सन १७०० साली छत्रपती राजाराम महाराजांच्या मृत्यूनंतर मराठा साम्राज्याचे उत्तराधिकार छत्रपती शाहू महाराजांकडे जायला हवे होते. पण शाहूराजे त्यावेळी वयाने खूपच लहान होते आणि नंतरच्या काळात मोगलांच्या कैदेत होते. महाराणी ताराबाईंनी आपला मुलगा शिवाजी ह्याला गादीवर बसवले, आणि रामचंद्रपंत अमात्य यांच्या सल्ल्याने मराठा राज्याचा कारभार पाहण्यास सुरुवात केली..


औरंगजेबाच्या मृत्यूनंतर संभाजी राजांचे पुत्र शाहू यांची मोगलांनी सुटका करताना महाराष्ट्रात दुहीचे बीज पेरले. शाहू हेच मराठा राज्याचे उत्तराधिकारी असल्याचे अनेक सरदार, सेनानी यांना वाटू लागले. दोन्ही बाजूंनी छत्रपतीपदाच्या वारसा हक्कावरून संघर्ष सुरू झाला. या काळात ताराबाईच्या पक्षातले खंडो बल्लाळ, बाळाजी विश्वनाथ, धनाजी जाधव यांसारखे सेनानी आणि मुत्सद्दी शाहूंच्या पक्षात गेले. शाहूराजांनी महाराणी ताराबाई आणि त्यांचा पुत्र शिवाजी दुसरा ह्यांच्याविरुद्ध युद्ध पुकारले. १७०७ साली खेड येथे झालेल्या ह्या युद्धात बाळाजी विश्वनाथ ह्या पेशव्याच्या कुशल नेतृत्वाखाली शाहूराजांची सरशी झाली आणि महाराणी ताराबाईंनी साताऱ्याहून माघार घेऊन, कोल्हापूर येथे वेगळी गादी स्थापन केली.


सन १७१४ साली राजमहालात झालेल्या घडामोडींनंतर शिवाजीला पदच्युत करून राजे संभाजी ह्या राजारामाच्या दुसऱ्या मुलाला छत्रपती म्हणून नेमले. सरतेशेवटी वारणेला झालेल्या दिलजमाईनुसार शाहूराजांनी कोल्हापूरच्या गादीला संमती दिली.


♻ *राजकीय परिस्थिती*

                       सन १७०० साली जिंजी मोगलांच्या ताब्यात आली. पण तत्पूर्वी राजाराम जिंजीहून निसटून महाराष्ट्रात परतले. ताराबाई व इतर लोक मात्र मोगलांचा सेनापती जुल्फिखारखान यांच्या तावडीत सापडले. पण जुल्फिखारखानने सर्वांची मुक्तता केली. २ मार्च १७०३ रोजी छत्रपती राजाराम यांचा सिंहगड किल्ल्यावर मृत्यू झाल्यानंतर मराठी साम्राज्याची सूत्रे ताराबाईंच्या हाती आली. त्यांच्या सैन्यामध्ये बाळाजी विश्वनाथ, उदाजी चव्हाण, चंद्रसेन जाधव, कान्होजी आंग्रे आदी मात्तबर सेनानी होते. त्यांनी मोगलांची पळता भुई थोडी अशी अवस्था केली. सन १७०५ साली त्यांनी मोगलांच्या ताब्यातील पन्हाळा किल्ला जिंकून कारंजा ही राजधानी बनविली.


🌀 *कारकीर्द*

छत्रपती राजाराम महाराजांच्या मृत्यूनंतर राज्यकारभाराची सर्व सूत्रे त्यांनी आपल्या हाती घेतली. मराठा सैन्यातले शूर सरदार संताजी घोरपडे आणि धनाजी जाधव ह्यांच्या साथीने महाराणी ताराबाईंनी औरंगजेबाच्या मोगल सैन्याला सतत हुलकावणी दिली.


सन १७०५ मध्ये मराठी फौजा नर्मदा ओलांडून माळवा प्रांतात शिरल्या आणि मोगल फौजांना त्यांनी खडे चारले. त्या जिंकलेल्या प्रांतांमधून चौथाई आणि सरदेशमुखी वसूल करून स्वराज्याची तिजोरी आर्थिकदृष्ट्या बळकट केली.मराठी राज्याच्या अडचणीच्या काळात कोणी कर्तबगार पुरुष घरात नसताना आणि औरंगजेबसारखा बलाढ्य शत्रू आपल्याच राज्यात आलेला असताना एका स्त्रीने राज्याची जबाबदारी समर्थपणे सांभाळली. राज्याला,गादीला आणि समाजाला खंबीर नेतृत्व दिले. सर्वाचे नीतिधैर्य टिकवून ठेवले. वयाच्या ८६ व्या वर्षी ताराबाईचे सिंहगडावर निधन झाले. मराठ्यांच्या इतिहासातील स्वातंत्र्य युद्ध महाराणी ताराबाई हे एक ज्वलंत पर्व आहे. या काळात मुघल सत्तेच्या विरुद्ध लढा उभारुन मराठी राज्याला नेतृत्व बहाल करण्याचे काम महाराणी ताराबाई यांनी केले. त्यांनी या काळात आपले कार्य आणि कर्तृत्त्व निर्विवादपणे सिद्ध केले. राजारामां नतर मराठी राज्याला नेतृत्व नसताना, ताराबाई यांनी मराठी राज्य टिकवूना ठेवले. मराठी राज्य जिंकण्यासाठी आलेल्या औरंगजेबाच्या देहाची आणि कीर्तीची कबर महाराष्ट्राच्या भूमीतच खोदली गेली. 


👑 *राजाराम*

                  वास्तविक सन १७०३ साली छत्रपती राजाराम महाराजांच्या मृत्यूनंतर मराठा साम्राज्याचे उत्तराधिकार संभाजीपुत्र शाहूकडे जायला हवे होते. पण शाहूराजे त्यावेळी वयाने खूपच लहान होते आणि मोगलांच्या कैदेत होते. त्यामुळे महाराणी ताराबाईंनी आपला मुलगा शिवाजी ह्याला गादीवर बसवले.

                     सन १७०७ साली औरंगजेबाचा औरंगाबादजवळ मृत्यू झाला. त्यानंतर मोगलांनी मराठी राज्यात भाऊबंदकी सुरू व्हावी म्हणून शाहूंची सुटका केली आणि त्यांच्या डोक्यात ह्या उत्तराधिकाराचे बीज पेरले. परिणामी, ताराबाई व शाहू यांच्यात वारसाहक्कासाठी संघर्ष सुरू झाला. १२ ऑक्टोबर १७०७ रोजी ताराराणी व शाहू यांच्यात खेड-कडूस येथे लढाई झाली त्यात शाहूंचा विजय झाला.

                   ताराराणीने जिंकलेले सर्व किल्ले शाहूला आपसूकच मिळाले. शाहूच्या पक्षात गेलेले बाळाजी विश्वनाथ यांनी ताराराणीच्या पक्षातील उदाजी चव्हाण, चंद्रसेन जाधव, कान्होजी आंग्रे आदी सेनानींना शाहूच्या बाजूला वळवून घेतले. त्यामुळे शाहूचा पक्ष बळकट झाला. शाहूंनी सातार्‍याला गादीची स्थापना केली आणि महाराणी ताराबाईंनी सातार्‍याहून माघार घेऊन, कोल्हापूर येथे वेगळी गादी स्थापन केली.

त्यानंतर वारणेला झालेल्या दिलजमाईनुसार शाहूराजांनी कोल्हापूरच्या गादीला संमती दिली आणि मराठी साम्राज्यात सातारा व कोल्हापूर अशा दोन स्वतंत्र गाद्या निर्माण झाल्या.

पुढे शाहूच्या मध्यस्थीने ताराबाईंची कैदेतून सुटका झाली. त्यानंतर त्या सातारा येथे राहावयास गेल्या. शाहूंना पुत्र नसल्यामुळे त्यांनी ताराबाईंचा नातू रामराजा यांस दत्तक घेतले. ताराबाईंचे निधन ९ डिसेंबर १७६१ रोजी साताऱ्यातील अजिंक्यतारयावर झाले. त्यांची समाधी क्षेत्र माहुली, ता. सातारा येथे कृष्णेच्या काठावर असून पावसाळ्यात ही समाधी नदीच्या प्रवाहात पाण्याखाली असते.


संभाजीनंतर कोल्हापूरच्या गादीवर शिवाजी द्वितीय (कोल्हापूर) या दत्तक पुत्राची कारकीर्द इ.स. १७६२ ते १८१३ अशी झाली. याच्या कारकीर्दीत १ ऑक्टोबर १८१२ रोजी कोल्हापूर संस्थानाचा ईस्ट इंडिया कंपनी सरकारबरोबर संरक्षणात्मक करार होऊन ते ब्रिटिशांच्या आधिपत्याखाली आले. त्यानंतर १८१३ मध्ये शिवाजी महाराज द्वितीय (कोल्हापूर) यांचे निधन झाले.


             कवी गोविंद यांनी सेनानी महाराणी ताराबाईंच्या पराक्रमाचे वर्णन पुढीप्रमाणे केले आहे.


दिल्ली झाली दीनवाणी। दिल्लीशाचे गेले पाणी।

ताराबाई रामराणी। भद्रकाली कोपली।।

रामराणी भद्रकाली। रणरंगी क्रुद्ध झाली।

प्रलयाची वेळ आली। मुगल हो सांभाळ।।


📙 *पुस्तके*


महाराणी ताराऊसाहेब (अशोकराव शिंदे सरकार)


   *हर हर महादेव......!!!*      



महादेव देसाईं

                               


            *महादेव देसाईं*

*(भारतीय स्वतंत्रता कार्यकर्ता, लेखक और महात्मा गांधी के निजी सचिव)*


          *जन्म : १ जनवरी १८९२*

              (सूरत, गुजरात, भारत)

          *मृत्यु :१५ अगस्त १९४२*

              (५० वर्ष की आयु में)


राष्ट्रीयता : भारतीय

शिक्षा : एल एल बी कानून

शिक्षा प्राप्त की : गुजरात

प्रसिद्धि कारण : स्वतंत्रता सेनानी, महात्मा गाँधी के सहयोगी व निजी सचिव

                महादेव देसाईं भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी एवं राष्ट्रवादी लेखक थे। किन्तु उनकी प्रसिद्धि इस कारण से ज्यादा है कि वे लम्बे समय (लगभग २५ वर्ष) तक गांधीजी के निज सचिव रहे।


 💁‍♂ *जीवन परिचय*

        महादेव देसाईं का जन्म सूरत के एक छोटे से गाँव "सरस" में १ जनवरी १८९२ को हुआ। महात्मा गाँधी से इनकी भेंट सर्वप्रथम ३ नवम्बर १९१७ को गोधरा में हुई। यही से महादेव देसाईं बापू और उनके आन्दोलनों से जुड़ गये और जीवन पर्यन्त राष्ट्र सेवा करते हुए १५ अगस्त सन १९४२ को आगा खान पैलस (ब्रिटिश राज द्वारा यह पैलेस जेल के रूप में प्रयुक्त होता था) में जीवन की अन्तिम श्वास ली। महादेव देसाईं ने बापू के निजी सचिव के तौर पर कार्य करते हुए अपनी डायरी में भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन का जो जीवन्त वर्णन किया है, वह अदभुत हैं। वे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के महत्वपूर्ण सैनिक थे।

                "महादेव देसाईं का एक सुन्दर वर्णन ‘ हसीदे एदीब ‘ की ‘ इनसाइड इण्डिया’ (भारत में) नामक पुस्तक में ‘ रघुवर तुमको मेरी लाज ‘ नाम के चौथे अध्याय में मिलता है। जब वे महात्माजी से बातें कर रहीं थीं, महादेव देसाईं नोट ले रहे थे। उन्हीं के शब्दों में – ” वे निरंतर नोट लेते रहते हैं। मेरी महात्माजी से जो बातें हुईं, वे तो मैं आगे दूँगी ही। मगर यह उनका सेक्रेटरी ऐसा है कि वह किसी का भी ध्यान आकर्षित किए बिना नहीं रह सकता। यद्यपि वह अत्यन्त नम्र और अपने -आपको कुछ नहीं माननेवाला है। महादेव का गांधीजी के आंदोलन से अपर कोई अस्तित्व नहीं है। महादेव देसाई ऊँचे, इकहरे तीस – पैंतीस बरस के हैं। उनके चेहरे के नक्श दुरुस्त हैं और होठ पतले हैं ; आँखें ऐसी हैं कि वे किसी रहस्यमयी दीप्ति से चमकती रहती हैं। यह रहस्यभरी झलक (जो कि बहुत गहरी है) होते हुए भी, वह अत्यन्त व्यवस्थित काम करनेवाले व्यक्ति हैं। अगर वे व्यवस्थित न हों तो इतना सब काम कर ही नहीं सकते। यद्यपि उनका स्वभाव तेज, भावकतापूर्ण है ; फिर भी उनका अपनी वासनाओं पर संयम है। महात्माजी के प्रति जो श्रद्धा -भक्ति उन्हें है, वह धार्मिक है ; सोलह वर्षों से वे गांधी के साथ रहे हैं, उनसे एकात्म होकर। बचपन से बहुत तंग गलियों से गुजरता हुआ यह जवान आदमी आज वैराग्य की कठिनतम सीढ़ी पर चढ़ आया है। वह ‘ हरिजन ‘ का संपादन करता है। साथ ही सेक्रेटरी का सब काम करता है, जिसमें सफाई, बर्तन- धोना वगैरह सब आ जाता है। निरंतर योरोप, सुदूरपूर्व, अमरीका सभी ओर से गांधीजी प्रश्नों की झड़ी लग रही है और उसमें भी अपने मन की समतोलता को बनाये रखना असाधारण बुद्धिमत्ता का काम है। महादेव देसाईं ब्रिटिश राज एंव देशी रियासतों के मसलों को भी देखते थे। एक बार वह ग्वालियर-राज्य सार्वजनिक सभा के अध, ष बनकर ‘मुरार’ गये।"

            बापू के साथ भारत भ्रमण व जेल यात्राओं के अतिरिक्त ग्रेट ब्रिटेन के महाराजा के बुलावे पर महात्मा गाँधी के साथ महादेव देसाईं बंकिंमघम पैलेस इंग्लेंड भी गये, बापू महादेव सरदेसाई को पुत्रवत मानते थे।


🏕 *सेवाग्राम*

             महादेव देसाईं ‘सेवाग्राम’ में निवास करते थे, आज भी यह कुटी जिज्ञासुओं के अवलोकनार्थ व्यवस्थित है।


📰🖋 *पत्रकारिता एंव लेखन*

               महादेव देसाईं 1921 में अखबार दि इंडिपेंडेंट से जुड़े, जो इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ करता था। मोतीलाल और जवाहरलाल नेहरु के जेल जाने पर इस अखबार के संपादक के तौर पर महादेव देसाईं ने कार्य किया। ब्रिटिश सरकार द्वारा इस अखबार पर रोक लगा दी तब महादेव देसाईं "द इंडिपेंडेंट" को एक वर्ष तक साइकिलोस्टाइल पर निकाला। महादेव देसाईं की गिरफ्तारी होने पर महात्मा गांधी के पुत्र देवदास गांधी ने इस अखबार को निकाला और देसाईं की पत्नी दुर्गाबेन ने सक्रिय सहयोग दिया।


📰 *हरिजन पत्र*

     महादेव देसाईं हरिजन समाचार पत्र के संपादक थे। देसाईं 1924 में नवजीवन के संपादक रहे।


📝 *लेखन*

अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान पर पुस्तक

नवजीवन के लिए लेखन डायरी लेखन

लार्ड मोर्ले की रचना का गुजराती में अनुवाद

२० खण्डों में प्रकाशित महादेव देसाईं की डायरी

महात्मा गांधी की गुजराती में लिखी आत्मकथा सत्य के साथ प्रयोग का अंग्रेजी में अनुवाद

जवाहरलाल नेहरू की अत्मकथा "एन ऑटोबायोग्राफ़ी" का गुजराती में अनुवाद


🔸 *ध्वस्त स्मारक*

              बडवानी से लगभग पांच किलोमीटर दूर नर्मदा नदी के किनारे बापू कस्तूरबा के साथ उनके साथी महादेव देसाई की समाधियां स्थित हैं। इस स्थान को राजघाट के नाम से भी जाना जाता है। वर्तमान में महात्मा गांधी के साथ कस्तूरबा और महादेव देसाईं के भस्मी कलश स्मारक जर्जर हो गये हैं।


⏳ *मृत्यु*

           ८ अगस्त १९४२ को मुम्बई के ग्वालिया टैक के मैदान में अपने ऐतिहासिक भाषण में महात्मा गाँधी ने ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो - करो या मरो’ का नारा दिया। ९ अगस्त की भोर में महात्मा गाँधी, श्रीमती सरोजनी नायडू और महादेव देसाईं को गिरफ़्तार कर पुणे के आगा खाँ महल में बन्द कर दिया गया। १५ अगस्त १९४२ को महादेव देसाईं की इस जेल में ही मृत्यु हुई।


🧱 *आगा खान महल में कस्तूरबा और महादेव देसाईं की समाधियां*

         महादेव देसाईं को नौ अगस्त १९४२ में गिरफ्तार कर आगा खान महल में रखा गया। १४-१५ अगस्त की मध्य रात्रि को देसाई का निधन हुआ। उनके निधन के उपरान्त महात्मा गांधी की इच्छा के अनुसार आगा खान के महल में उनकी समाधि बनवाई गई। इस समाधि पर ओम एंव क्रास के चिन्ह अंकित किए गये। महादेव देसाईं के मृत्यु के एक वर्ष पश्चात कस्तूरबा का स्वर्गवास हुआ, कस्तूरबा की समाधि महादेव देसाईं की समाधि के निकट निर्मित की गयी।


      

राव बहादुर वाप्पला पंगुन्नि मेनन

 

              *वी. पी. मेनन*  

(भारतीय प्रशासनिक अधिकारी)


पूरा नाम : राव बहादुर वाप्पला पंगुन्नि मेनन

     *जन्म : 30 सितंबर, 1893*

            (मलाबार, केरल)

     *मृत्यु : 31 दिसंबर, 1965*

                  (बेंगळूरू)

पत्नी : कनकम्मा

संतान : दो पुत्र- पंगुन्नि अनंतन मेनन और पंगुन्नि शंकरन मेनन

कर्म भूमि : भारत

कर्म-क्षेत्र : भारतीय प्रशासनिक सेवा के प्रतिष्ठित अधिकारी

विशेष योगदान : भारत में देशी रियासतों के एकीकरण में वी. पी. मेनन की अहम् भूमिका रही। सरदार पटेल के सहयोगी के रूप में भी वह याद किए जाते हैं।

नागरिकता : भारतीय

अन्य जानकारी : सरदार पटेल और वी. पी. मेनन के बीच का रिश्ता अमूल्य था। मेनन, पटेल के बाएं हाथ जैसे थे और स्वतंत्र भारत की एकता में उन्होंने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। उन्होंने राज्यों को भारत में मिलाने के लिए राजनीतिक परिपक्वता का बेहतरीन नमूना पेश किया था।

                     राव बहादुर वाप्पला पंगुन्नि मेनन भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक प्रतिष्ठित अधिकारी थे। भारतीय सिविल सेवा में एक क्लर्क की तरह अपना कॅरियर आरंभ करने वाले मेनन ब्रिटिश भारतीय गवर्नर-जनरल के वैधानिक सलाहकार के पद तक पहुंचे और जब अंतरिम सरकार विफल रही तो मेनन ने ही भारत के विभाजन की सलाह दी। भारत के विभाजन और फिर रियासतों के एकीकरण में वी. पी. मेनन की अहम् भूमिका रही। सरदार पटेल के सहयोगी के रूप में भी वह याद किए जाते हैं। हैदराबाद, जूनागढ़ या फिर कश्मीर सबकी कहानी में मेनन का नाम जरूर आता है।


💁🏻‍♂️ *परिचय*

वी. पी. मेनन का जन्म 30 सितम्बर, 1893 को केरल के मलाबार क्षेत्र में हुआ था। उनके पिता एक विद्यालय के प्रधानाचार्य थे। बचपन में अपनी पढ़ाई का बोझ घरवालों के ऊपर से उठाने के लिए मेनन घर से भाग गए। पहले रेलवे में कोयलाझोंक, फिर खनिक और बेंगलोर तंबाकू कंपनी में मुंशी का काम करने के बाद भारतीय प्रशासनिक सेवा में नीचले स्तर से अपनी जीविका शुरू की। अपनी मेहनत के सहारे वी. पी. मेनन ने अंग्रेज सरकार में सबसे उच्च प्रशासनिक सेवक का पद अलंकृत किया। भारत के संविधान के मामले में वी. पी. मेनन पंडित थे। वाइसरायों के अधीन काम करते समय भी वे सुदृढ देशभक्त थे। उनकी पत्नी श्रीमती कनकम्मा थीं। उनके दो पुत्र थे- पंगुन्नि अनंतन मेनन और पंगुन्नि शंकरन मेनन।


सरदार पटेल के कहने पर ही वी. पी. मेनन ने भारत विभाजन, राज्यों के एकीकरण और सत्ता हस्तांतरण पर पुस्तकें लिखी थीं।l भारत की आजादी के बाद प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों को नेता और मंत्री अच्छी नज़रों से नहीं देखते थे। उनके मन में कहीं न कहीं ये बात बैठी होती थी कि ये अंग्रेजों के लिए काम करते थे। यहाँ तक कि जवाहरलाल नेहरू भी इन नौकरशाहों से दूरी बनाये रखते थे। शायद यही कारण था कि वी. पी. मेनन ने सरदार पटेल की मृत्यु के बाद अवकाश ले लिया था।                                         ♨️ *रियासतों के एकीकरण में योगदान*

सालों की परतंत्रता के बाद भारत जब आज़ाद होने वाला था, तब सदियों की गुलामी के बाद स्वाधीनता की सुगबुगाहट होने लगी थी। अंग्रेज़ अब देश छोड़कर जाने वाले थे। सदियों की लड़ाई के बाद अब देश की आज़ादी का सपना साकार होने वाला था। लेकिन इस सपने के साकारीकरण के सामने एक बहुत बड़ी समस्या थी, भारत में बसे अलग-अलग 565 छोटे-बड़े रजवाड़ों-रियासतों के एकीकरण की। इन रियासतों के विलय के बिना आज़ाद मुल्क की कल्पना बेमानी थी। आखिर इन रियासतों को भारत में विलय के लिए मनाना इतना आसान भी नहीं था। इतिहास में इस अविस्मरणीय कार्य के लिए सरदार बल्लभ भाई पटेल को याद किया जाता रहा है। लेकिन हकीक़त तो यह है कि अगर भारत के तत्कालीन सलाहकार वी. पी. मेनन नहीं होते, तो शायद अकेले बल्लभ भाई पटेल भी भारत को एक नहीं कर पाते।

ऐसा माना जाता है कि भारत की संवैधानिक आज़ादी के लिए जो आधारभूत फार्मूला इस्तेमाल किया गया, वह मेनन ने ही प्रस्तुत किया था। लेकिन इतना कह देने भर से भारत के एकीकरण में मेनन की भूमिका का पता नहीं चलता। इसके लिए इतिहास को खंगालना होगा। ब्रिटिश शासकों द्वारा भारत को आज़ाद करने की घोषणा के बाद जब सत्ता हस्तांतरण का काम चल रहा था, तब अधिकतर रियासतों की प्राथमिकता भारत और पाकिस्तान से अलग स्वतंत्र राज्य के रूप में रहने की थी। आज़ादी की घोषणा के साथ ही देशी रियासतों के मुखियाओं में स्वतंत्र राज्य के रूप में अपनी सत्ता बरकरार रखने की होड़-सी लगी थी।

भारत के लिए यह वक़्त किसी दु:स्वप्न से कम नहीं था। जिस एकीकृत स्वतंत्र भारत की नींव शहीद क्रांतिकारियों ने रखी थी, वो नींव गिरने ही वाली थी। इस वक़्त में जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल के लिए कुछ भी फैसला लेना कठीन था। बल्लभ भाई किसी भी कीमत पर देश के विभाजन के पक्ष में नहीं थे, लेकिन परिस्थिति कुछ ऐसी थी कि अगर देश को आज़ाद रहना है, तो विभाजन के उस दौर से गुजरना ही होगा। लेकिन सभी रियासतों को अपने देश में शामिल करने के लिए कोई तरकीब भी नहीं थी। इस वक़्त सबसे ज़्यादा कोई काम आया, तो वो थे वी. पी. मेनन। दरअसल, वी. पी. मेनन भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक प्रतिष्ठित अधिकारी थे। मेनन भले ही ब्रिटिश राज के एक वफादार अधिकारी थे, लेकिन एक सच्चे देशभक्त और भारतीय भी थे। सरदार पटेल के मंत्रिमंडल में सलाहकार बनने के बाद मेनन की सबसे बड़ी जिम्मेदारी थी, सभी रियासतों को भारत में विलय के लिए मनाना। सबसे खास बात तो ये है कि अगर भारत के छोटे-छोटे टुकड़े होते, तो शायद देश को घातक परिणाम भुगतने पड़ते। दरअसल, मेनन लॉर्ड माउंट बेटन के काफ़ी करीबी भी थे, जो बाद में सरदार पटेल के भी करीबी बन गये। अगर वह सत्ता के माध्यम से कुछ भी मांगना चाहते तो आसानी से मिल जाता, पर मेनन की ऐसी कोई इच्छा नहीं थी।

इधर देश के सामने भारत में राज्यों के विलय की समस्या बनी हुई थी। अधिकांश राज्य और रजवाड़े भारत के साथ मिलना चाहते थे। लेकिन उस समय यहां के 565 रजवाड़ों में से तीन को छोड़कर सभी ने भारत में विलय का फ़ैसला किया। ये तीन रजवाड़े थे- कश्मीर, जूनागढ़ और हैदराबाद। हैदराबाद की आबादी का अस्सी फ़ीसदी हिन्दू थे, जबकि अल्पसंख्यक होते हुए भी मुसलमान प्रशासन और सेना में महत्वपूर्ण पदों पर बने हुए थे। इन सभी राज्यों को भारत में मिलाए बिना देश का एकीकरण संभव नहीं था। इसके लिए सरदार पटेल और मेनन ने अपनी सूझ-बूझ का बेजोड़ परिचय देते हुए अंतत: इन्हें भारत में शामिल कर ही लिया।


वी. पी. मेनन ने राज्यों को भारत में मिलाने के लिए राजनीतिक परिपक्वता का बेहतरीन नमूना पेश किया। यहां तक कि उन्हें एक बार जान से मारने की धमकी भी दी गई थी। फिर भी उन्होंने भारत सरकार के संदेशों को रजवाड़ों तक पहुंचाने और उन्हें भारत में मिलाने का सिलसिला जारी रखा। जब इस समूचे प्रकरण में मुस्लिम लीग की रणनीति इस पर केंद्रित थी कि अधिक से अधिक रजवाड़े भारत में मिलने से इंकार कर दें, तब सरदार पटेल और वी.पी. मेनन ने एक ताल में काम करते हुए पाकिस्तान के सभी षडयंत्रों को विफल किया। सच बात तो यह है कि अगर सरदार बल्लभ भाई को देश को एक करने के लिए जाना जाता है, तो इसमें कोई दो राय नहीं है कि वी. पी. मेनन की भूमिका इसमें कहीं से कम न थी। अगर वी. पी. मेनन का साथ सरदार पटेल को नहीं मिलता, तो शायद सरदार पटेल देश को एक करने में शायद सफल नहीं हो पाते। इसलिए देश के राजनीतिक एकीकरण में अगर मेनन की भूमिका की बात की जाए तो यह अविस्मरणीय है।


🔮 *प्रेरक प्रसंग*

सन 1947 में वी. पी. मेनन जो एक हिन्दू थे, जब दिल्ली पहुंचे तो उन्होंने पाया कि जो भी पैसा वह साथ लाये थे, सब चोरी हो चुका है। उन्होंने एक वृद्ध सिक्ख से 15 रुपयों की मदद मांगी। उस सिक्ख ने मेनन को पैसे दिए और जब मेनन ने पैसे लौटाने के लिए उस सिक्ख से उसका पता पूछा तो उसने कहा- "नहीं मैं तुमसे पैसे वापस नहीं लूँगा, इस प्रकार जब तक तुम जीवित रहोगे, तब तक तुम हर उस ईमानदार व्यक्ति कि मदद करते रहोगे जो तुमसे मदद मांगेगा।" इस घटना के करीब 30 साल बाद और मेनन की मृत्यु के बस छ: सप्ताह पहले एक भिखारी मेनन के बंगलोर स्थित आवास पर आया। मेनन ने अपनी बेटी से अपना बटुआ मंगाया और 15 रुपये निकाल कर उस भिखारी को दिए। वह अभी भी उस कर्ज को चुका रहे थे।                                                          ♻️ *उत्तर काल*

सरदार पटेल और वी. पी. मेनन के बीच का रिश्ता अमूल्य था। मेनन, पटेल के बाएं हाथ जैसे थे और स्वतंत्र भारत की एकता में महत्त्वपूर्ण योगदान निभा चुके थे। हर राजनीतिज्ञ, अंग्रेज सरकार के नीचे काम करने वाले प्रशासनिक कर्मचारियों से असहानुभूतिपूर्ण थे। कुछ काँग्रेसी प्रशासनिक अफसरों को सेवा से वंचित करना चाहते थे, क्योंकि उनकी गिरफ्तारी में इन्हीं अफसरों का हाथ था। पंडित नेहरू तक को प्रशासन के इन कर्मचारियों से ज्यादा प्यार नहीं था। लेकिन वी. पी. मेनन को सन 1951 ओड़िशा के राज्यपाल का स्थान दिया गया। कुछ समय वे वित्त आयोग के सदस्य भी रहे। सरदार पटेल के देहांत के बाद वी. पी. मेनन ने नवनिर्मित भारतीय प्रशासन सेवा से इस्तीफा दे लिया।


🪔 *मृत्यु*

सेवानिर्वृत्ति के बाद वी. पी. मेनन बेंगळूरू में रहने लगे थे। 31 दिसम्बर, 1965 में उनका निधन हो गया। बड़े ही आश्चर्य की बात है कि किसी ने भी आज तक वी. पी. मेनन की आत्मकथा नहीं लिखी है।

रियासतों के एकीकरण में सरदार पटेल की सहायता करने वाले वी. पी. मेनन ने अपनी पुस्तक ‘द स्टोरी ऑफ दी इंटीग्रेशन ऑफ इंडियन स्टेट्स’ में लिखा है कि "भारत एक भौगोलिक इकाई है, फिर भी अपने पूरे इतिहास में वह राजनीतिक दृष्टि से कभी एकरूपता हासिल नहीं कर सका।.... आज देश के इतिहास में पहली दफा एकल केंद्र सरकार की रिट कैलाश से कन्याकुमारी और काठियावाड़ से कामरूप (असम का पुराना नाम) तक पूरे देश को संचालित करती है। इस भारत के निर्माण में सरदार पटेल ने रचनात्मक भूमिका अदा की।"


सरदार पटेल जानते थे कि ‘यदि आप एक बेहतरीन अखिल भारतीय सेवा नहीं रखेंगे तो आप भारत को एकजुट नहीं कर पाएंगे।‘ इसलिए राज्यों के पुनर्गठन का काम प्रारंभ करने से पहले उन्होंने ‘स्टील फ्रेम’ या भारतीय सिविल सेवा में विश्वास व्यक्त किया। सरदार पटेल ने शाही रजवाड़ों के साथ सहमति के जरिए एकीकरण के लिए अथक रूप से कार्य किया। परंतु उन्होंने साम, दाम, दंड और भेद की नीति अपनाने में भी कोई संकोच नहीं किया। सरदार पटेल और उनके सहयोगी वी. पी. मेनन ने ‘यथास्थिति समझौतों और विलय के विलेखों’ के प्रारूप तैयार किए, जिनमें विभिन्न शासकों से अनुरोधों और मांगों को शामिल किया गया था।

             

महेन्द्रनाथ मुल्ला

                              

                *महेन्द्रनाथ मुल्ला*                           

  ( भारतीय नौसेना के जाँबाज अधिकारी)

            *जन्म : 15 मई, 1926*

              (गोरखपुर, उत्तर प्रदेश)

           *मृत्यु : 9 दिसम्बर, 1971*                                     (अरब सागर, महाराष्ट्र के निकट)

कर्म भूमि : भारत

कर्म-क्षेत्र : भारतीय नौसेना में अफ़सर

पुरस्कार : 'महावीर चक्र'

नागरिकता : भारतीय

सेवा : भारतीय नौसेना

सेवा काल : 1948 से 1971

पोत : आईएनएस खुखरी

अन्य जानकारी : महेन्द्रनाथ मुल्ला ने पाकिस्तानी पनडुब्बी द्वारा निशाना बनाये गए भारतीय पोत 'आईएनएस खुखरी' को अंत समय तक नहीं छोड़ा और उस पर सवार सैनिकों को बचाते रहे। अंत में उन्होंने भी पोत के साथ ही अरब सागर में जल समाधि ले ली।

               महेन्द्रनाथ मुल्ला भारतीय नौसेना के जांबाज ऑफ़ीसर थे। वे भारतीय समुद्रवाहक पोत 'आईएनएस खुखरी' के कप्तान थे। भारत-पाकिस्तान युद्ध,1971 में हर जगह वाहवाही लूटने के बावजूद कम से कम एक मौक़ा ऐसा आया, जब पाकिस्तानी नौसेना भारतीय नौसेना पर भारी पड़ी। पाकिस्तान की एक पनडुब्बी भारतीय जलसीमा में घूम रही थी, जिसे खोजने और नष्ट करने के लिए 'आईएनएस खुखरी' और 'कृपाण' पोतों को लगाया गया था, किंतु पाकिस्तानी पनडुब्बी 'हंगोर' ने खुखरी को निशाना बना लिया। कप्तान महेन्द्रनाथ मुल्ला ने डूबते हुए खुखरी को छोड़ने से मना कर दिया और अंत तक सैनिकों को बचाते रहे। आईएनएस खुखरी के साथ ही महेन्द्रनाथ मुल्ला ने भी जल समाधि ले ली। उनके मरणोपरांत उन्हें 'महावीर चक्र' से सम्मानित किया गया।


💁🏻‍♂️ *जन्म*

महेन्द्रनाथ मुल्ला का जन्म 15 मई, 1926 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर ज़िले में हुआ था। उन्होंने 1 मई, 1948 को भारतीय नौसेना में कमीशन प्राप्त किया था।


💥 *भारत-पाकिस्तान युद्ध*

वर्ष 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में केवल एक अवसर ही ऐसा आया, जब पाकिस्तानी नौसेना ने भारतीय नौसेना को नुकसान पहुँचाया। भारतीय नौसेना को अंदाज़ा था कि युद्ध शुरू होने पर पाकिस्तानी पनडुब्बियाँ मुंबई के बंदरगाह को अपना निशाना बनाएंगी। इसलिए उन्होंने तय किया कि लड़ाई शुरू होने से पहले सारे नौसेना फ़्लीट को मुंबई से बाहर ले जाया जाए।


जब 2 और 3 दिसम्बर की रात को नौसेना के पोत मुंबई छोड़ रहे थे, तब उन्हें यह अंदाज़ा ही नहीं था कि एक पाकिस्तानी पनडुब्बी 'पीएनएस हंगोर' ठीक उनके नीचे उन्हें डुबा देने के लिए तैयार खड़ी थी। उस पनडुब्बी में तैनात तत्कालीन पाकिस्तानी नौसेना के लेफ़्टिनेंट कमांडर और बाद मे रियर एडमिरल बने तसनीम अहमद के अनुसार- "पूरा का पूरा भारतीय फ़्लीट हमारे सिर के ऊपर से गुज़रा और हम हाथ मलते रह गए, क्योंकि हमारे पास हमला करने के आदेश नहीं थे; क्योंकि युद्ध औपचारिक रूप से शुरू नहीं हुआ था। नियंत्रण कक्ष में कई लोगों ने टॉरपीडो फ़ायर करने के लिए बहुत ज़ोर डाला, लेकिन हमने उनकी बात सुनी नहीं। हमला करना युद्ध शुरू करने जैसा होता। मैं उस समय मात्र लेफ़्टिनेंट कमांडर था। मैं अपनी तरफ़ से तो लड़ाई शुरू नहीं कर सकता था।"


💥 *भारतीय नौसेना की कार्रवाई*

पाकिस्तानी पनडुब्बी उसी इलाक़े में घूमती रही। इस बीच उसकी एयरकंडीशनिंग में कुछ दिक्कत आ गई और उसे ठीक करने के लिए उसे समुद्र की सतह पर आना पड़ा। 36 घंटों की लगातार मशक्कत के बाद पनडुब्बी ठीक कर ली गई, लेकिन उसकी ओर से भेजे संदेशों से भारतीय नौसेना को यह अंदाज़ा हो गया कि एक पाकिस्तानी पनडुब्बी दीव के तट के आसपास घूम रही है। भारतीय नौसेना मुख्यालय ने आदेश दिया कि भारतीय जल सीमा में घूम रही इस पनडुब्बी को तुरंत नष्ट किया जाए और इसके लिए एंटी सबमरीन फ़्रिगेट 'आईएनएस खुखरी' और 'कृपाण' दो समुद्री पोतों को लगाया गया। दोनों पोत अपने मिशन पर 8 दिसम्बर को मुंबई से चले और 9 दिसम्बर की सुबह होने तक उस इलाक़े में पहुँच गए, जहाँ पाकिस्तानी पनडुब्बी के होने का संदेह था।


💥 *हंगोर द्वारा आक्रमण*

टोह लेने की लंबी दूरी की अपनी क्षमता के कारण पाकिस्तानी पनडुब्बी 'हंगोर' को पहले ही खुखरी और कृपाण के होने का पता चल गया। यह दोनों पोत ज़िग ज़ैग तरीक़े से पाकिस्तानी पनडुब्बी की खोज कर रहे थे। हंगोर ने उनके नज़दीक आने का इंतज़ार किया। पहला टॉरपीडो उसने कृपाण पर चलाया, लेकिन टॉरपीडो उसके नीचे से गुज़र गया और फटा ही नहीं। यह टॉरपीडो 3000 मीटर की दूरी से दागा गया था। भारतीय पोतों को अब हंगोर की स्थिति का अंदाज़ा हो गया था। पीएनएस हंगोर के पास विकल्प थे कि वह वहाँ से भागने की कोशिश करे या दूसरा टॉरपीडो दागे। उसने दूसरा विकल्प चुना। पाकिस्तानी नौसेना के लेफ़्टिनेंट कमांडर तसनीम अहमद के अनुसार- "मैंने हाई स्पीड पर टर्न अराउंड करके आईएनएस खुखरी पर पीछे से प्रहार किया। डेढ़ मिनट की रन थी और टॉरपीडो खुखरी की मैगज़ीन के नीचे जाकर फटा और दो या तीन मिनट के भीतर जहाज़ डूबना शुरू हो गया।"


आईएनएस खुखरी में परंपरा थी कि रात आठ बजकर 45 मिनट के समाचार सभी इकट्ठा होकर एक साथ सुना करते थे, ताकि उन्हें पता रहे कि बाहर की दुनिया में क्या हो रहा है। समाचार शुरू हुए ही थे कि पहले टारपीडो ने खुखरी को निशाना बनाया। जहाज़ के कप्तान महेन्द्रनाथ मुल्ला अपनी कुर्सी से गिर गए और उनका सिर लोहे से टकराया और उनके सिर से रक्त बहने लगा। दूसरा धमाका होते ही पूरे पोत की बिजली चली गई। महेन्द्रनाथ मुल्ला ने अपने सहकर्मी मनु शर्मा को आदेश दिया कि वह पता लगाएं कि क्या हो रहा है। मनु ने देखा कि खुखरी में दो छेद हो चुके थे और उसमें तेज़ी से पानी भर रहा था। उसके फ़नेल से लपटें निकल रही थीं।


उधर जब लेफ़्टिनेंट समीर काँति बसु भाग कर ब्रिज पर पहुँचे, उस समय महेन्द्रनाथ मुल्ला चीफ़ योमेन से कह रहे थे कि वह पश्चिमी नौसेना कमान के प्रमुख को सिग्नल भेजें कि खुखरी पर हमला हुआ है। बसु इससे पहले कि कुछ समझ पाते कि क्या हो रहा है, पानी उनके घुटनों तक पहुँच गया था। लोग जान बचाने के लिए इधर-उधर भाग रहे थे। खुखरी का ब्रिज समुद्री सतह से चौथी मंज़िल पर था, लेकिन मिनट भर से कम समय में ब्रिज और समुद्र का स्तर बराबर हो चुका था।


🎯 *मुल्ला द्वारा जहाज़ छोड़ने से इंकार*

मनु शर्मा और लेफ़्टिनेंट कुंदनमल आईएनएस खुखरी के ब्रिज पर महेन्द्रनाथ मुल्ला के साथ थे। महेन्द्रनाथ मुल्ला ने उनको ब्रिज से नीचे धक्का दिया। उन्होंने उनको भी साथ लाने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया। जब मनु शर्मा ने समुद्र में छलांग लगाई तो पूरे पानी में आग लगी हुई थी और उन्हें सुरक्षित बचने के लिए आग के नीचे से तैरना पड़ा। थोड़ी दूर जाकर मनु ने देखा कि खुखरी का अगला हिस्सा 80 डिग्री को कोण बनाते हुए लगभग सीधा हो गया है। पूरे पोत मे आग लगी हुई है और महेन्द्रनाथ मुल्ला अपनी सीट पर बैठे रेलिंग पकड़े हुए थे और उनके हाथ में अब भी जलती हुई सिगरेट थी।


🪔🏅 *शहादत तथा सम्मान*

इस समय भारत के 174 नाविक और 18 अधिकारी इस ऑपरेशन में मारे गए। कप्तान महेन्द्रनाथ मुल्ला ने भारतीय नौसेना की सर्वोच्च परंपरा का निर्वाह करते हुए अपना जहाज़ नहीं छोड़ा और जल समाधि ली। उनकी इस वीरता के लिए उन्हें मरणोपरांत 'महावीर चक्र' से सम्मानित कियाy गया।                                      

       

दादासाहेब गायकवाड

 

            *दादासाहेब गायकवाड*

       (भारतीय सामाजिक कार्यकर्ते)

पूर्ण नाव : भाऊराव कृष्णराव गायकवाड ऊर्फ दादासाहेब गायकवाड                                                                                                    *जन्म : १५ ऑक्टोबर १९०२*

              (दिंडोरी)                                                     *मृत्यू : २९ डिसेंबर  १९७१*

            (नवी दिल्ली)

नागरिकत्व : भारतीय

पक्ष : भारतीय रिपब्लिकन पक्ष

पद : राज्यसभा सदस्य

पुरस्कार : सामाजिक कार्यामध्ये पद्मश्री (इ.स. १९६८)                                                                                     दादासाहेब गायकवाड हे भारतीय राजकारणी, समाजसेवक आणि डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांचे विश्वासू सहकारी होते. बाबासाहेब आंबेडकर यांनी निर्माण केलेल्या चळवळीत प्रगल्भ, विश्वसनीय व्यक्तिमत्व म्हणजे कर्मवीर दादासाहेब गायकवाड होय. गायकवाड आंबेडकरांचा वारसा लाभलेल्या भारतीय रिपब्लिकन पक्षाचे अध्यक्ष होते तसेच पक्षाच्या केंद्रीय कार्यकारिणीचे सदस्य होते. मुंबई विधानसभेचे सदस्य (आमदार), लोकसभा सदस्य व राज्यसभा सदस्य (खासदार) म्हणून त्यांनी कार्य केलेले आहे.


♨️  *डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर आणि दादासाहेब गायकवाड, नाशिक सामाजिक कार्य*


डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर नेहमी म्हणतं, "माझ्या आत्मचरित्रात अर्धा भाग भाऊराव गायकवाड असणार आहे. तो नसला, तर माझे चरित्र पूर्ण होणार नाही. डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांच्या या म्हणण्यातच दादासाहेब गायकवाड यांचे आंबेडकरी चळवळीत व बाबासाहेब आंबेडकरांनी निर्माण केलेल्या रिपब्लिकन पक्षातील महत्त्वाचे स्थान दिसून येते. बाबासाहेबांच्या अनेक कामांत दादासाहेबांचा सहभाग होता. मार्च २, इ.स. १९३०च्या काळाराम मंदिर सत्याग्रहाच्या वेळी डॉ. आंबेडकरांना दादासाहेबांची खूप मदत झाली. अस्पृश्यांच्या मंदिर प्रवेशासाठी दादासाहेबांच्या नेतृत्वाखाली आणि बाबासाहेबांच्या पुढाकाराने दिलेल्या लढ्याचा एक भाग म्हणजे हा सत्याग्रह होता. काळाराम मंदिर हे नाशिक मधील प्रसिद्ध रामाचे मंदिर आहे.


अनेक आंदोलनांत आंबेडकरांना साथ त्यांनी दिली होती. कर्मवीर दादासाहेब गायकवाड हे स्वतः दलित समाजातून आले असल्याने दलितांच्या व्यथा व त्यांना भोगाव्या लागणाऱ्या यातना या गोष्टींचा त्यांनी प्रत्यक्ष अनुभव घेतला होता. म्हणूनच दलित समाजाविषयींचा त्यांचा कळवळा हा आंतरिक उमाळ्यातून आलेला होता. डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांनी येथील दलित जनतेच्या न्याय्य हक्कांसाठी जो व्यापक संघर्ष सुरू केला त्या संघर्षात बाबासाहेबांना साथ देण्यासाठी सुरुवातीच्या काळात पुढे आलेल्या दलित युवकांपैकी कर्मवीर दादासाहेब गायकवाड हे एक होत. २० मार्च, १९२७ चा महाड येथील चवदार तळ्याचा सत्याग्रह आणि २ मार्च, १९३० चा प्रत्यक्षात ३ मार्च, १९३० रोजी केला गेलेला नाशिक येथील काळाराम मंदिरप्रवेश सत्याग्रह, या सत्याग्रहांमध्ये त्यांनी डॉ. आंबेडकरांच्या बरोबरीने भाग घेतला होता. डॉ. आंबेडकरांनी सुरू केलेल्या इतर चळवळीं मध्येही त्यांचा सक्रिय सहभाग होता. संयुक्त महाराष्ट्राच्या निर्मितीसाठी झालेल्या आंदोलनात दादासाहेबांनी भाग घेतला होता. संयुक्त महाराष्ट्रसमितीचे एक प्रमुख नेते म्हणून ते ओळखले जात होते.


🌀 *धर्मांतर*

१४ ऑक्टोबर इ.स. १९५६ मध्ये दादासाहेब गायकवाड यांनी डॉ. आंबेडकरांसोबत बौद्ध धर्माची दीक्षा घेतली.


⚜️ *राजकीय कारकीर्द*

इ.स. १९३७ ते १९४६ या काळात गायकवाड मुंबई विधानसभेचे, तर इ.स. १९५७ ते १९६२ या काळात लोकसभेचे सदस्य होते. १९५७–५८ मध्ये ते लोकसभेत रिपब्लिकन पक्षाचे नेते होते. इ.स. १९६२ ते ६८ दरम्यान ते राज्यसभेवर सदस्य म्हणून कार्यरत होते.


🔮 *रिपब्लिकन पक्षाचे नेतृत्व*

भारतीय रिपब्लिकन पक्षाची स्थापना झाल्यावर त्या पक्षाचे नेतृत्व कर्मवीर दादासाहेब गायकवाड यांनी केले. पुढे या पक्षाची फाटाफूट झाल्यावर त्याच्या एका प्रभावी गटाचे अध्यक्ष म्हणून त्यांची निवड झाली. रिपब्लिकन पक्षात ऐक्य निर्माण करण्यासाठी त्यांनी बरेच प्रयत्न केले; पण दुर्दैवाने त्यामध्ये त्यांना यश आले नाही. तथापि, दलित समाजातील सर्वांत मोठ्या गटाने गायकवाडांच्या नेतृत्वालाच मान्यता दिली होती.


१९३७ मध्ये मुंबई राज्याच्या विधानसभेचे सदस्य म्हणून त्यांची निवड झाली होती. भारतीय संसदेच्या लोकसभा व राज्यसभा या दोन्ही सभागृहांचे ते अनुक्रमे १९५७ ते १९६२ आणि १९६२ ते १९६८ सदस्य होते. लोकसभेचे सदस्य म्हणून कार्यरत असताना दुसरे सदस्य प्रकाशवीर शास्त्री यांनी धर्मांतराविरुद्ध विधेयक आणण्याच्या केलेल्या प्रयत्नाच्या निषेधार्थ त्यांनी लोकसभेत मनुस्मृती फाडून १९२७ मध्ये डॉ. आंबेडकरांनी मनुस्मृतीचे दहन करून केलेल्या प्रतीकात्मक निषेधाची आठवण करून दिली. भारत सरकारने ‘पद्मश्री’ हा किताब देऊन त्यांच्या सार्वजनिक कार्याचा व समाजसेवेचा गौरव केला होता. 


सन २००१-०२ मध्ये महाराष्ट्र शासनाने त्यांचे जन्मशताब्दी वर्ष साजरे करून त्यांच्या कार्याची स्मृती जागवली.


📚 *चरित्रे/गौरवग्रंथ*

दादासाहेब यांच्या मृत्यूनंतर त्यांचे गुणवर्णन करणारे आणि त्यांची कार्याची माहिती देणारे अनेक ग्रंथ प्रकाशित झाले आहेत. त्यांतले काही हे ---


’डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांची दादासाहेब गायकवाडांना पत्रे’ या नावाचा मराठी व इंग्रजी ग्रंथ प्रा. वामन निंबाळकर यांनी संपादित केला आहे.

’आंबेडकरी चळवळीतील दादासाहेब गायकवाड यांचे योगदान’—लेखक डॉ. अविनाश दिगंबर फुलझेले

दादासाहेब गायकवाड यांच्या कार्याची माहिती देणारा ’पद्मश्री कर्मवीर दादासाहेब गायकवाड’ नावाचा गौरवग्रंथ रंगनाथ डोळस यांनी लिहिला आहे.

अरुण रसाळ यांचा ’जननायक कर्मवीर दादासाहेब गायकवाड’ हा ग्रंथ

भावना भार्गवे यांचा ’लोकाग्रणी दादासाहेब गायकवाड’ हा ग्रंथ

कर्मवीर दादासाहेब गायकवाड यांचे एक चरित्र त्यांचे जावई आणि आंबेडकरी चळवळीच्या महत्त्वपूर्ण कालखंडाचे साक्षीदार अ‍ॅड. हरिभाऊ पगारे यांनी लिहिले आहे.

दि.रं. भालेराव यांनीही ’कर्मवीर दादासाहेब गायकवाड’ या नावाचे एक छोटे चरित्रवजा पुस्तक लिहिले आहे.

🎖️ *पुरस्कार व सन्मान*

कर्मवीर पद्मश्री दादासाहेब गायकवाड पुरस्कार हा महाराष्ट्र शासनाद्वारे २००२ पासून दिला जाणारा पुरस्कार आहे.

दादासाहेबांच्या नावाने महाराष्ट्र राज्य सरकारची ’कर्मवीर दादासाहेब गायकवाड सबलीकरण व स्वाभिमान योजना' या नावाची एक योजना २००४ पासून आहे. २०१२ साली तिचा लाभ ३८ भूमिहीनांना झाला होता. मात्र त्यापूर्वी केवळ २५० लोकांना जमिनी मिळाल्या होत्या.

भारत सरकारने गायकवाडांना १९६८ मध्ये पद्मश्री हा पुरस्कार दिला.

नाशिकमध्ये एका सभागृहाला ’दादासाहेब गायकवाड सभागृह’ नाव दिले आहे.

मुंबईत अंधेरीभागात 'दादासाहेब गायकवाड सांस्कृतिक केंद्र' नावाची संस्था आहे.

दादासाहब गायकवाड यांचा परिचय करून देणारी एक १३ मिनिटांची ‘डॉक्युमेंटरी फिल्म’ आहे