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शेर जंग थापा..


             *शेर जंग थापा*

        (भारतीय सेना अधिकारी)

पूरा नाम : ब्रिगेडियर शेर जंग थापा

*जन्म : 15 अप्रैल, 1907*

[जन्म भूमि : ज़िला एबटाबाद, अविभाजित भारत (अब खैबर पख्तूनख्वा, पाकिस्तान)]

*मृत्यु : अगस्त, 1999*

(स्थान दिल्ली, भारत)

सेना : भारतीय सेना

बटालियन : 6 जम्मू और कश्मीर इन्फैन्ट्री

रैंक : ब्रिगेडियर

सेवा काल : 1930–1960

सम्मान : महावीर चक्र, 1948

नागरिकता : भारतीय

विशेष योगदान : शेर जंग थापा ने 11 फरवरी, 1948 से 14 अगस्त, 1948 तक लगभग 6 महीने 3 दिन तक पाकिस्तानी सेना को स्कार्दू में रोके रखा, जिस कारण पाकिस्तान लद्दाख में कब्जा जमाने में असफल रहा।

सेवा संख्या : एसएस-15920 (शॉर्ट सर्विस कमीशन)

आईसी-10631 (नियमित कमीशन)


             ब्रिगेडियर शेर जंग थापा भारतीय सेना अधिकारी थे। वे 'स्कार्दू के नायक' के रूप में सम्मानित थे। सन 1948 में उन्हें महावीर चक्र (एमवीसी) से सम्मानित किया गया था जो भारतीय सेना का दूसरा सर्वोच्च वीरता पुरस्कार है। 1947 में भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान बड़ी संख्या में मुजाहिदों को प्रशिक्षण देकर भारत में हमला करने के लिए तैयार कर रहा था। प्रशिक्षण देने के बाद पाकिस्तान ने उन्हीं हथियारबंद मुजाहिदों को लद्दाख पर कब्जा करने की नीयत से भेजा था। इन कबाइलियों के साथ पाकिस्तानी सेना भी शामिल थी; लेकिन पाकिस्तान अपने इस नापाक मंसूबे में कामयाब नहीं हो सका। ब्रिगेडियर शेर जंग थापा ने 11 फरवरी, 1948 से 14 अगस्त, 1948 तक लगभग 6 महीने 3 दिन तक पाकिस्तानी सेना को स्कार्दू में रोक रखा था। जिसके कारण पाकिस्तान लद्दाख में कब्जा जमाने में असफल रहा और लद्दाख आज भारतीय क्षेत्र में है।


💥 *इतिहास*

11 फरवरी, 1948 के दिन पाकिस्तान की 600 सैनिकों वाली सेना ने स्कार्दू शहर पर हमला बोल दिया। उस वक्त कर्नल शेर जंग थापा स्कार्दू की रक्षा के लिए अपने 50 जवानों के साथ वहां पर तैनात थे। संयोग अच्छा था कि पाकिस्तान द्वारा हमला करने के एक दिन पहले 10 जनवरी को कैप्टन प्रभात सिंह के नेतृत्व में 90 जवानों की टुकड़ी स्कार्दू पहुंच चुकी थी। पाकिस्तान द्वारा हमला करने के बाद शेर जंग थापा ने 130 जवानों के साथ 6 घंटे लंबी लड़ाई लड़कर पाकिस्तानी सैनिकों को पीछे जाने पर मजबूर कर दिया था।


स्कार्दू में तैनात भारतीय सेना को पाकिस्तान सैनिकों का मुकाबला करने के साथ ही वहां की मुस्लिम आबादी का भी मुकाबला करना पड़ रहा था, क्योंकि स्कार्दू की मुस्लिम आबादी पाकिस्तानी सैनिकों के साथ मिल गई थी और उनका सहयोग कर रही थी। पाकिस्तान द्वारा हमला किये अभी दो ही दिन हुए थे कि 13 फरवरी को कैप्टन अजीत सिंह के नेतृत्व में 70 सैनिकों की टोली और 15 फरवरी को भी लगभग इतने ही भारतीय सैनिकों की टोली स्कार्दू पहुंच गयी थी। सैनिकों के पहुंचने से शेर जंग थापा को थोड़ी राहत तो जरूर मिली थी, लेकिन उन्हें यह भी ज्ञात था कि लड़ाई अभी लंबी है। इसीलिए उन्होंने श्रीनगर की सैन्य छावनी से अतिरिक्त सेना भेजने का आग्रह किया। स्कार्दू की रक्षा के लिए चोटी प्वाइंट 8853 पर भारतीय सेना की तैनाती जरूरी थी, लेकिन कर्नल शेर जंग थापा के साथ मात्र 285 सैनिक होने के कारण यह संभव नहीं हो पा रहा था।


इसलिए कर्नल शेर जंग थापा ने चोटी प्वाइंट 8853 पर भारतीय सैनिकों की तैनात के लिए श्रीनगर सैन्य छावनी से लगातार कई बार आग्रह किया। लेकिन किसी कारण यह संभव नहीं हो पाया था। जिसके बाद कर्नल शेर जंग ने स्कार्दू के स्थानीय गैर मुस्लिम युवकों को इकठ्ठा किया, जिससे आगे चौकियों तक राशन और अन्य सामान पहुंचाये जा सके। कुछ दिनों के बाद पाकिस्तानी सैनिकों ने दोबारा हमला बोल दिया और चोटी प्वाइंट 8853 पर अपना कब्जा कर लिया। कब्जे के बाद पाकिस्तान सैनिकों ने भारतीय सेना की चौकियों को निशाना बनाकर गोलाबारी शुरू कर दी थी। पाकिस्तान सैनिकों की संख्या लगातार बढ़ा रहा था, जिससे वह स्कार्दू छावनी की घेराबंदी कर सके। पूरे मार्च महीने भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सैनिकों का डटकर मुकाबला किया था और उन्हें आगे नहीं बढ़ने दिया था।


16 फरवरी, 1948 को अपनी बटालियन के साथ निकले कर्नल पृथ्वीचंद भारी बर्फबारी के कारण 1 मार्च, 1948 को कारगिल पहुंचे थे। जहां उनकी मुलाकात कर्नल शेर जंग थापा की बटालियन से हुई। वहां उन्हें जानकारी मिली कि पाकिस्तानी सेना ने स्कार्दू पर अपना कब्जा जमा लिया है, यह सूचना मिलने के बाद कर्नल पृथ्वीचंद बिना देर किये लेह आ गये। जहां पर उन्होंने स्थानीय नागरिकों से मुलाकात की और तिरंगा फहराया। उस वक्त उन्होंने लेह के स्थानीय नागरिकों को संबोधित करते हुये कहा था कि 'मुझे यहां लद्दाख की रक्षा के लिए भेजा गया है। उन्होंने स्थानीय नागरिकों से कहा था कि हम आपको प्रशिक्षण देंगे, जिससे लद्दाख की रक्षा और मजबूती से की जा सकें।' पृथ्वीचंद ने वहां पर सबसे पहले इंजीनियर सोनम नोरबु के सहयोग से एक हवाई पट्टी बनवाई ताकि भारतीय सेना के और सैनिक लेह पहुंच सकें। जिसके बाद लेह में 22 मई के दिन वायु सेना का डकोटा विमान जनरन थिमैया और एयर कमांडर मेहर सिंह को लेकर पहुंचा था। जिसके बाद लेह और कारगिल में स्थिति लगभग भारतीय सेना के नियंत्रण में थी।


स्कार्दू में बीते 6 महीने से पाकिस्तानी सैनिकों से लड़ रहे भारतीय सैनिकों के पास अब राशन लगभग खत्म हो चुका था, उनके लिए एक समय का भोजन करना भी मुश्किल हो चुका था। साथ ही हर एक राइफलमैन के पास सिर्फ लगभग 10 कारतूस ही बचे थे। बिना गोली और राशन के उनके लिए लड़ना बहुत चुनौतीपूर्ण था। कर्नल शेर जंग थापा लगातार श्रीनगर से मदद की मांग कर थे, लेकिन रास्ता बंद होने के कारण मदद पहुंचाना संभव नहीं हो पा रहा था। अगले दिन श्रीनगर डिवीजन के कर्नल राम ओबेरॉय ने आत्मसमर्पण करने का आदेश दे दिया था। 14 अगस्त, 1948 को आदेश के बाद कर्नल थापा, 4 अधिकारी, 1 जेसीओ और 35 अन्य रैंक के सैनिकों ने दुश्मनों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया।


मेजर जनरल के.एस. थिमय्या ने उस वक्त का वर्णन करते हुए बाद में कहा था कि 'मेरी रणनीति लद्दाख को बचाने की थी, हर कीमत पर स्कर्दू पर भारतीय सेना की पकड़ बनाये रखनी थी, ताकि पाकिस्तानी सैनिक कारगिल और लेह तक ना पहुंच सकें। सौभाग्य से इस मिशन को पूरा करने के लिए स्कर्दू में सही आदमी लेफ्टिनेंट कर्नल शेर जंग थापा था। कोई भी शब्द लेफ्टिनेंट कर्नल शेर जंग थापा की वीरता और नेतृत्व का वर्णन नहीं कर सकता है, जिन्होंने छह महीनों तक मुश्किल से 250 पुरुषों के साथ स्कार्दू पर कब्जा जमाया हुआ था। मैंने सैनिकों तक अधिक राशन और गोला बारूद छोड़ने पहुंचाने की कोशिश की थी, लेकिन अफसोस की वह राशन पहुंच नहीं पाया और सब कुछ दुश्मनों के हाथ लग गया। छह महीने के अंत में जब पूरी तरह से राशन और गोला-बारूद खत्म हो गया था, तब मैंने जवानों आत्मसमर्पण करने के लिए कहा। क्योंकि मुझे पता था कि राशन और गोला-बारूद के बिना नहीं रहा नहीं जा सकता। मुझे ये भी पता था मेरे सैनिक आत्मसमर्पण करने के बाद ही जिंदा वापस हमारे पास आ सकते हैं'।


शेर जंग थापा का साक्षात्कार

कई सालों के बाद एक इंटरव्यू में ब्रिगेडियर शेर जंग थापा ने उस वक्त के पिछले 24 घंटों के दृश्य का वर्णन करते हुये बताया था कि 'हमने अपने आखिरी बचे गोला बारूद का इस्तेमाल कर लिया था। हर कोई हमारी स्थिति को जानता था और चारों तरफ सिर्फ दहशत और अराजकता थी। महिलाओं ने सिंधु नदी में कूदकर आत्महत्या करना शुरू कर दिया और कई महिलाओं ने अपने सम्मान को बचाने के लिए जहर खा लिया था। एक उदाहरण था जब एक लड़की ने खुद को मारने के लिए सिंधु में तीन बार छलांग लगाई, लेकिन हर बार लहरें उसे किनारे तक पहुंचा देतीं। मेरे सैनिकों ने बहुत ही मुश्किलों के साथ लड़ाई लड़ी थी और 6 महीने 3 दिनों तक स्कार्दू पर कब्जा जमा कर रखा था। फिर आखिरी में आदेश के मुताबिक आत्मसमर्पण करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। आत्मसमर्पण के सभी सिक्खों की गोली मारकर हत्या कर दी गई। एकमात्र सिक्ख जो बच गया, वह था कल्याण सिंह, जो मेरी दल में था जो मेरे साथ रह रहा था'।


🎖️ *सम्मान*

पाकिस्तान सेना के कमांडर-इन-चीफ जनरल सर डगलस ग्रेस थे। उन्होंने धर्मशाला में युवा शेर जंग थापा के साथ हॉकी खेला था और उन्होंने ही सेना में शामिल होने के लिए उन्हें सलाह दी थी। उनके व्यवहार के कारण ही शेर जंग थापा को किसी ने नहीं मारा था। युद्ध के कुछ हफ्तों के बाद शेर जंग थापा और बाकि बचे सैनिक भारत वापस आये थे। शेर जंग थापा को उनकी वीरता के लिए 'महावीर चक्र' से सम्मानित किया गया।


🕯️ *मृत्यु*

शेर जंग थापा ब्रिगेडियर के पद तक पहुंचे और 1961 में सेवानिवृत्त हो गये। उनका अगस्त 1999 में 92 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।

                                                                               

       🙏🙏

चन्द्रशेखर सिंह..


 

            *चन्द्रशेखर सिंह*

      (भारत के नौवें प्रधानमंत्री)

     *जन्म : 17 अप्रैल 1927*

(इब्राहिमपट्टी, बलिया, उत्तर प्रदेश)

     *मृत्यु : ८ जुलाई २००७*

          *कार्यकाल*

१० नवंबर १९९० – २१ जून १९९१

पूर्ववर्ती : विश्वनाथ प्रताप सिंह

परवर्ती : पी. वी. नरसिंह राव    

राष्ट्रियता : भारतीय

राजनैतिक दल : समाजवादी जनता पार्टी (राष्ट्रीय)

जीवन संगी : द्विजा देवी

धर्म : हिन्दू

                        चन्द्र शेखर सिंह भारत के नौवें प्रधानमंत्री थे। इन्हें युवा तुर्क का सम्बोधन इनकी निष्पक्षता के कारण प्राप्त हुआ था। वह मेधा प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। ऐसे बहुत ही कम लोग होते हैं जिन्हें विधाता कई योग्यता देकर पृथ्वी पर भेजता है और चंद्रशेखर का शुमार उन्हीं व्यक्तियों में करना चाहिए। विश्वनाथ प्रताप सिंह के बाद चंद्रशेखर ने ही प्रधानमंत्री का पदभार सम्भाला था। वह आचार्य नरेंद्र देव के काफ़ी समीप माने जाते थे। उनके व्यक्तित्व एवं चरित्र से इन्होंने बहुत कुछ आत्मसात किया था।


        एक सांसद के रूप में चंद्रशेखर का वक्तव्य पक्ष और विपक्ष दोनों बेहद ध्यान से सुनते थे। इनके लिए प्रचलित था कि यह राजनीति के लिए नहीं बल्कि देश की उन्नति की राजनीति हेतु कार्य करने में विश्वास रखते हैं। चंद्रशेखर आत्मा की आवाज़ पर प्रशंसा और आलोचना करते थे। तब यह नहीं देखते थे कि वह ऐसा पक्ष के प्रति कर रहे हैं अथवा विपक्ष के प्रति। लेकिन देश को इस सुयोग्य व्यक्ति से अधिकाधिक उम्मीदें थीं जो निश्चय ही राजनीतिक व्यवस्था के कारण प्राप्त नहीं की जा सकीं।


💁🏻‍♂️ *प्रारंभिक जीवन*

                    चंद्रशेखर का जन्म 1 जुलाई, 1927 को उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले के ग्राम इब्राहीमपुर में हुआ था। इनका कृषक परिवार था। चंद्रशेखर का राजनीति के प्रति रुझान विद्यार्थी जीवन में ही हो गया था। इन्हें आग उग़लते क्रान्तिकारी विचारों के कारण जाना जाता था। चंद्रशेखर ने 1950-1951 में राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राप्त की।


        इनका विवाह दूजा देवी के साथ सम्पन्न हुआ था। इनके दो पुत्र पंकज और नीरज हैं। वे अपने देश से निःस्वार्थ भावना से जुड़े हुए थे. इनको अध्ययन में विशेष रूचि थी, स्वूल में वे एक मेधावी छात्र रहे. इलाहबाद यूनिवर्सिटी से अपना अध्ययन पूरा करने के बाद इन्होने राजनीति में प्रवेश किया.


        श्री चन्द्र शेखर अपने छात्र जीवन से ही राजनीति की ओर आकर्षित थे और क्रांतिकारी जोश एवं गर्म स्वभाव वाले वाले आदर्शवादी के रूप में जाने जाते थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय (1950-51) से राजनीति विज्ञान में अपनी मास्टर डिग्री करने के बाद वे समाजवादी आंदोलन में शामिल हो गए। उन्हें आचार्य नरेंद्र देव के साथ बहुत निकट से जुड़े होने का सौभाग्य प्राप्त था। वे बलिया में जिला प्रजा समाजवादी पार्टी के सचिव चुने गए एक साल के भीतर वे उत्तर प्रदेश में राज्य प्रजा समाजवादी पार्टी के संयुक्त सचिव बने। 1955-56 में वे उत्तर प्रदेश में राज्य प्रजा समाजवादी पार्टी के महासचिव बने।


        राजनीति में इन्हें छात्र जीवन से ही दिलचस्पी थी. उस वक्त देश प्रेम ही जीवन था, हर व्यक्ति बसंती चोला पहने अपने देश प्रेम में लिप्त होता था. चंद्रशेखर की भाषाशैली अनुपम एवम तीव्र थी, उसमे इतनी सच्चाई और दृढता थी कि कोई उनकी बात काट नहीं सकता था. पक्ष हो या विपक्ष वो सभी के लिए सम्मानीय एवम सभी को मार्गदर्शन देते थे क्यूंकि इनमें निजी स्वार्थ का भाव था ही नहीं. चंद्रशेखर जी युवाओं के लिए प्रेरणा के प्रतिबिम्ब रहे, इन्होने युवाओं को जगाने का भरपूर प्रयास किया.


        उनका मानना था, “युवा को शक्ति मानने वाला ही, देश को एक स्वस्थ्य प्रगति की तरफ बढ़ाता है, क्यूंकि उसमें स्वहित के बजाय राष्ट्र के कल्याण का भाव होता है.” चंद्रशेखर सिंह का राजनैतिक जीवन एक स्वच्छ दर्पण की तरह है. सर्वप्रथम वे समाजवादी आंदोलनों  से जुड़े, इन्होने पिछड़े वर्गों के लोगो के लिए बहुत कार्य किये. उस वक्त यह एक अहम् मुद्दा हुआ करता था. दलितों को सामान्य जीवन दिलाने की लड़ाई में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. पर चंद्रशेखर जी ने अन्य सामाजिक धर्मों की भावनाओं का भी ध्यान रखना भी अहम् समझा, ताकि किसी तरह की हिंसा का मुख न देखना पड़े.


        1962 में वे उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के लिए चुने गए। वे जनवरी 1965 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए। 1967 में उन्हें कांग्रेस संसदीय दल का महासचिव चुना गया। संसद के सदस्य के रूप में उन्होंने दलितों के हित के लिए कार्य करना शुरू किया एवं समाज में तेजी से बदलाव लाने के लिए नीतियाँ निर्धारित करने पर जोर दिया। इस संदर्भ में जब उन्होंने समाज में उच्च वर्गों के गलत तरीके से बढ़ रहे एकाधिकार के खिलाफ अपनी आवाज उठाई तो सत्ता पर आसीन लोगों के साथ उनके मतभेद हुए।


        वे एक ऐसे ‘युवा तुर्क’ नेता के रूप में सामने आए जिसने दृढ़ता, साहस एवं ईमानदारी के साथ निहित स्वार्थ के खिलाफ लड़ाई लड़ी। वे 1969 में दिल्ली से प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका ‘यंग इंडियन’ के संस्थापक एवं संपादक थे। इसका सम्पादकीय अपने समय के विशिष्ट एवं बेहतरीन संपादनों में से एक हुआ करता था। आपातकाल (मार्च 1977 से जून 1975) के दौरान ‘यंग इंडियन’ को बंद कर दिया गया था। फरवरी 1989 से इसका पुनः नियमित रूप से प्रकाशन शुरू हुआ। वे इसके संपादकीय सलाहकार बोर्ड के अध्यक्ष थे।


        आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने बहुत लोगों को खरीदने, लालच देने की कोशिश की- लेकिन इंदिरा गांधी की तरफ से चंद्रशेखर को किसी भी तरह के लालच या प्रलोभन देने की कोई कोशिश नहीं हुई. आपातकाल के दौरान चुनाव की घोषणा हुई. चंद्रशेखर जनता पार्टी के बड़े नेताओं में से एक थे. दिल्ली के प्रगति मैदान में 1 मई, 1977 को जनता पार्टी का विधिवत गठन हुआ. इसकी अध्यक्षता मोरारजी देसाई ने की थी. इस सम्मेलन के बाद रामलीला मैदान में एक सभा हुई. इस सभा में एक व्यक्ति एक पद के सिद्धांत को मानते हुए मोरारजी देसाई ने घोषणा किया कि चंद्रशेखर जनता पार्टी के अध्यक्ष होंगे.


        इस तरह चंद्रशेखर जनता पार्टी के पहले अध्यक्ष बने. 23 मार्च, 1977 को आपातकाल हटा. इसके कई कारण थे. इस दौरान जितने भी बड़े नेता थे वे मोरारजी देसाई की सरकार में मंत्री बनना चाहते थे. वे सामाजिक आंदोलन में शामिल होते थे और बाद में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, बल्लिया से वे सेक्रेटरी के पद पर नियुक्त हुए। एक साल के भीतर ही, उनकी नियुक्ती उत्तर प्रदेश राज्य में PSP के जॉइंट सेक्रेटरी के पद पर की गयी। 1955-56 में वे राज्य में पार्टी के जनरल सेक्रेटरी बने।


        1962 में उत्तर प्रदेश के राज्य सभा चुनाव से उनका संसदीय करियर शुरू हुआ। अपने राजनीतिक करियर के शुरुवाती दिनों में वे आचार्य नरेंद्र देव के साथ रहने लगे थे। 1962 से 1967 तक शेखर का संबंध राज्य सभा से था। लेकिन जब उस समय आनी-बानी की घोषणा की गयी थी, तब उन्हें कांग्रेस पार्टी का राजनेता माना गया था और पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर पटियाला जेल भी भेजा था। 1983 में उन्होंने देश की भलाई के लिए राष्ट्रिय स्तर पर पदयात्रा का भी आयोजन किया था, उन्हें “युवा तुर्क” की पदवी भी दी गयी थी।


        चंद्र शेखर सोशलिस्ट पार्टी के मुख्य राजनेता थे। उन्होंने बैंको के राष्ट्रीयकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बाद में 1964 में वे भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस में शामिल हो गए। 1962 से 1967 तक वे राज्य सभा के सदस्य बने हुए थे। सबसे पहले 1967 में वे लोक सभा में दाखिल हुए थे। कांग्रेस पार्टी के सदस्य रहते हुए, उन्होंने कई बार इंदिरा गाँधी और उनके कार्यो की आलोचना की थी। इस वजह से 1975 में उन्हें कांग्रेस पार्टी से अलग होना पड़ा था। इसी कारणवश आनी-बानी की परिस्थिति में उन्हें गिरफ्तार किया गया था।


        आनी-बानी के समय में उनके साथ-साथ मोहन धारिया और राम धन जैसे नेताओ को भी गिरफ्तार किया गया था। उन्होंने कांग्रेस पार्टी में “जिंजर ग्रुप” की शुरुवात भी की थी, जिसके सदस्य अविभाजित कांग्रेस पार्टी के समय में खुद फिरोज गाँधी और सत्येन्द्र नारायण भी थे। 15 जून 1975 को आपातकाल लागू होने के बाद चन्द्रशेखर को मीसा के तहत गिरफ्तार कर लिया गया, जबकि वह कांग्रेस की शीर्ष संख्या केंद्रीय निर्वाचन और कार्यकारी समिति के सदस्य थे। वह सत्तारूढ़ दल के गिरफ्तार होने वाले चंद नेताओं में से एक थे।


        चंद्रशेखर ने हमेशा शक्त‍ि और पैसे की राजनीति को दरकिनार करके सामाजिक बदलाव और लोकतांत्रिक मूल्यों की राजनीति पर जोर दिया। आपातकाल के दौरान जेल में बिताए दिनों पर प्रकाशित उनकी पुस्तक 'मेरी जेल डायरी' सामाजिक बदलाव का जीवंत दस्तावेज है। चंद्रशेखर ने सुदूर दक्षिण स्थित कन्याकुमारी से दिल्ली स्थित राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की समाधि राजघाट तक पदयात्रा की। इस दौरान उन्होंने 06 जनवरी 1983 से 25 जून 1983 के बीच 4260 किमी की पैदल यात्रा की। यात्रा का उद्देश्य आम लोगों की समस्याओं को करीब से जानना और उन्हें सामने लाना था।


        धीरे-धीरे उनकी राजनीतिक में गहरी पैठ बनती चली गई। वास्तव में श्री चंद्रशेखर राजनीतिक में अपना भविष्य बनाने नहीं बल्कि देश और समाज का भविष्य बनाने के लिए आए थे। यही उनका सपना था और यही उनके विचार थे। उनका विचार था कि भारत की 70% जनता गांव में निवास करती है। यदि गांवों का विकास हो जाए तो भारत का अपने आप ही विकास हो जाएगा। विकास क्रम में सबसे पहले वे बाल शिक्षा पर विशेष जोर देते थे।


        उनका मानना था कि आज का बालक कल का नेता और देश का भविष्य है। अतः बच्चों के साथ मानवीयता का, सहानुभूति का व्यवहार करना चाहिए, निर्दयता का नहीं। श्री वि.पि सिंह की सरकार गिर जाने के बाद श्री चंद्रशेखर ने कांग्रेस के समर्थन से केंद्र में अपनी सरकार बनाई। 10 नवंबर, 1990 को उन्होंने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली।


🪔 *मृत्यू*

               भारत के पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर का 80 वर्ष की आयु में निधन हो गया है. उन्होंने रविवार की सुबह पौने नौ बजे दिल्ली के इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल में अंतिम साँस ली. कैंसर की बीमारी से जूझ रहे चंद्रशेखर को पिछले एक सप्ताह से अस्पताल के सघन चिकित्सा में रखा गया था. समाजवादी जनता पार्टी (सजपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रशेखर का इलाज पिछले तीन महीने से अपोलो अस्पताल में चल रहा था. उनकी गंभीर हालत को देखते हुए शनिवार को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उनके स्वास्थ्य की जानकारी लेने के लिए अपोलो अस्पताल गए थे.                      

      🙏🙏

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन..


               *भारतरत्न*         

    *डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन*

     *जन्म : ५ सप्टेंबर १८८८*

(तिरुत्तनी, तमिळनाडू तील एक छोटे गाव, दक्षिण भारत)

    *मृत्यू : १७ एप्रिल १९७५*                                  *२ रे भारतीय राष्ट्रपती*

कार्यकाळ : १३ मे १९६२ – 

                 १३ मे १९६७

मागील : राजेंद्रप्रसाद

पुढील : झाकीर हुसेन

       *भारतीय उपराष्ट्रपती*

कार्यकाळ : १९५२ – १९६२

   

राजकीय पक्ष : भारतीय राष्ट्रीय 

                       काँग्रेस

पत्नी : सिवाकामुअम्मा

अपत्ये : पाच मुली व एक पुत्र, 

             सर्वपल्ली गोपाल

व्यवसाय : राजनीतिज्ञ, तत्त्वज्ञ, 

                प्राध्यापक

धर्म : वेदान्त (हिंदू)


सर्वेपल्ली राधाकृष्णन हे भारताचे दुसरे राष्ट्रपती व नामांकित शिक्षणतज्‍ज्ञ होते. डॉ. सर्वेपल्ली राधाकृष्णन  हे भारताचे भारताचे पहिले उपराष्ट्रपती आणि दुसरे राष्ट्रपती होते. त्यांच्या कार्यकाळ  त्यांचा जन्म दक्षिण भारतात तिरुत्तनी या ठिकाणी झाला. हे गाव चेन्नई (मद्रास) शहरापासून ईशान्येला ६४ किमी अंतरावर आहे. राधाकृष्णन यांचा ५ सप्टेंबर हा जन्मदिवस भारतात शिक्षक-दिन म्हणून साजरा केला जातो.


पाश्चात्त्य जगताला भारतीय चिद्‌वादाचा तात्त्विक परिचय करून देणारा भारतावरच्या ब्रिटिश सत्ताकाळातला महत्त्वाचा विचारवंत म्हणून राधाकृष्णन यांना ओळखले जाते. भारतीय तत्त्वज्ञानाचे भाष्यकार म्हणून ते ऑक्सफर्डमध्ये नावाजले गेले. त्यांच्या कार्याचे महत्त्व जाणून ऑक्सफर्ड विद्यापीठाने त्यांच्या नावाने 'राधाकृष्णन मेमोरियल बिक्वेस्ट' हा पुरस्कार ठेवला आहे.


राधाकृष्णन यांच्या जीवनात तीन प्रमुख प्रश्न होते. पहिला प्रश्न असा की, नीतिमान पण चिकित्सक, विज्ञानोन्मुख पण अध्यात्मप्रवण असा नवा माणूस कसा निर्माण करता येईल? या दृष्टीने शिक्षणाचा काही उपयोग होऊ शकेल का? दुसरा प्रश्न असा होता की, प्राचीन भारतीय तत्त्वचिंतन सर्व जगाला आधुनिक भाषाशैलीत, आधुनिक पद्धतीने कसे समजावून सांगता येईल? भारतीय तत्त्वचिंतनाचे वैभव जगाला नेमकेपणाने कसे सांगावे? कसे पटवून द्यावे? तिसरा प्रश्न असा होता की; मानव जातीचे भवितव्य घडवण्यासाठी सांस्कृतिक संचिताचा उपयोग किती?' कुणाशीही ते याच तीन प्रश्नांच्या अनुरोधाने बोलत, असे नरहर कुरुंदकर लिहितात.


🎖 *पुरस्कार*


१९५४ : 'भारतरत्‍न' पुरस्काराने सन्मानित.


भारताचे माजी राष्ट्रपती डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् यांचा 5 सप्टेंबर रोजी जन्मदिन ‘शिक्षक दिन’ म्हणून साजरा करण्यात येतो. ‘शिक्षक’ हा भावी पिढीचा शिल्पकार असून त्यांच्याकडूनच आपल्याला ज्ञान व जगाकडे पाहण्याची सकारात्मक दृष्टी मिळत असते. आपल्या गुरू, शिक्षकांविषयी कृतज्ञता व्यक्त करण्याचा हा दिवस…. 


डॉ. राधाकृष्ण यांचे शिक्षकांप्रती असलेले प्रेम व आदर पाहून भारत सरकारने त्यांचा जन्मदिन हा ‘शिक्षक दिन’ म्हणून साजरा करण्‍याचा संकल्प केला. ती परंपरा अजूनही सुरू आहे व भविष्‍यातही सुरूच राहिल. 1962 मध्ये डॉ. राधाकृष्णन् यांनी राष्ट्रपती पदाची शपथ घेतली तेव्हा त्यांचा जन्मदिवस हा शिक्षकांचा गौरव दिन म्हणून साजरा करण्याची इच्छा प्रकट केली होती. देशातील शिक्षकांचा गौरव हाच आपला गौरव असल्याचे त्यांनी सांगितले होते.


भारताचे दुसरे राष्ट्रपती डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन याच्या स्मृतीप्रत्यर्थ त्यांचा जन्मदिन संपूर्ण भारतभर शिक्षक दिन म्हणून साजरा करतात. कारण डॉ. राधाकृष्णन यांनी 1909 ते 1948 वर्षं पर्यंत म्हणजे 40 वर्षे शै‍क्षणिक क्षेत्रात शिक्षकाचा कार्यभार सांभाळला .


त्यांचा जन्म 5 सप्टेंबर 1888 साली आंध्र राज्यातील चितुर जिल्ह्यातील तिरूत्तनी या गावी झाला. प्राथमिक शिक्षण त्यांच्या गावी झाले व पुढील शिक्षण तिरुपती या गावी झाले. त्यांचे शिक्षण लुथरम मिशन हायस्कूल मध्ये झाले. नंतर उच्च माध्यमिक शिक्षण मद्रास येथील ख्रिश्चन कॉलेजात. तत्त्वज्ञान विषय घेऊन ते प्रथम क्रमांकाने पास झाले व एम्.ए. साठी नितीशास्त्र विषय घेतला.


मद्रास येथे प्रेसिडेन्सी कॉलेजमध्ये तर्कशास्त्राचे प्राध्यापक म्हणून 1917 पर्यंत कार्य केले. 1939 मध्ये आंध्र विद्यालयाने त्यांना डी. लिट. ही पदवी दिली.


1931साली इंग्लॅडने डॉ. राधाकृष्णन यांना सर ही मानाची पदवी बहाल केली. त्यांच्या वाढत्या गुणांमुळे, प्रगतीमुळे 1946ते 1949 या काळात भारतीय राज्य घटना समितीचे सभापती म्हणून निवड झाली.


1952साली भारताचे पहिली निवडणूक होऊन उपराष्ट्रपती म्हणून निवड झाली. त्याच वेळी ते दिल्ली विद्यापीठाचे कुलपती होते. त्याचप्रमाणे 1939 ते 48 बनारस हिंदू विश्वविद्यालयाचे कुलपती होते.


1957च्या दुसर्‍या सार्वत्रिक निवडणुकीत ते पुन्हा उपराष्ट्रपती झाले. उत्कृष्ट कार्य कर्तृत्त्वामुळे त्यांना 1958 साली भारतरत्न हा पुरस्कार देण्यात आला.


13 मे 1962 साली डॉ. राधाकृष्णन यांची राष्ट्रपती म्हणून निवड करण्यात आली. 1967 साली निवृत्त झाले. त्यानंतर आंध्रराज्यातील तिरूपती या गावी 24 एप्रिल 1975 रोजी वृद्धापकाळाने त्यांचे निधन झाले.


*‘शिक्षक’ भावी पिढीचा शिल्पकार…*


शिक्षक हा समाज परिवर्तन करणारा घटक आहे. भविष्यातले विचारवंत, कलाकार, लेखक, तत्त्वज्ञ, पुढारी, डॉक्टर, प्राध्यापक, इंजिनीयर, शास्त्रज्ञ तयार करण्याचे सामर्थ्य शिक्षकांमध्ये असते. ज्या प्रमाणे मातीच्या गोळ्याला कुंभार आकार देऊन त्यापासून एखादी प्रतिकृती तयार करत असतो, अगदी त्याचप्रमाणे शिक्षक बालकांच्या कोर्‍या मनावर योग्य संस्कार करून त्यातून भविष्यातील जबाबदार नागरिक घडवित असतात. आपल्या आई-वडीलांनंतर शिक्षक हे आपले अप्रत्यक्षरित्या पालकच असतात.


शिक्षक हे आपल्याला केवळ पुस्तकी ज्ञान शिकवित नाहीत तर आपण त्यांच्याकडून जगण्याची कला आत्मसात करत असतो.


आपल्या व्यक्तीमत्त्वावर त्यांच्याकडून संस्कार, संस्कृती, परंपरा, चालीरिती व आदर असे पैलू पाडले जात असतात. त्यामुळे विद्यार्थ्यांनी‍ आपल्या गुरूंचा नेहमी आदरपूर्वक सन्मान केला पाहिजे. त्यांच्याविषयी शिक्षक दिनी कृतज्ञता व्यक्त करून त्याचे ऋण फेडण्याचा प्रयत्न केला पाहिजे.


शिक्षक दिन अर्थात चिंतनाचा दिन

समाज व शिक्षक यांचे नाते अतूट आहे. तसेच ते अमूल्यही आहे. भारतीय तत्त्वज्ञानातील परंपरेमध्ये समाजऋण फेडण्यासाठीचाही उल्लेख आढळतो. शिक्षक म्हणजे समाज घडविणारा सर्जनशील घटक. राष्ट्राची ध्येय-धोरणे बळकट करण्यासाठी व देशाला अधिक बलशाली बनवण्यासाठी जी राष्ट्रीय शैक्षणिक धोरणे आखली जातात त्याची रूजवणं करणारा, ती मूल्ये वृध्दिंगत होण्यासाठी संस्कार करणारा महत्त्वाचा घटक म्हणजे शिक्षक. राष्ट्रउभारणीत शिक्षण व शिक्षकांना महत्त्वाचे स्थान आहे. अशावेळी एखाद्या राष्ट्राच्या जडणघडणीत शिक्षक हा महत्त्वाचा मानला जातो. समाजातील अनेक पिढय़ा त्यांच्या हाताखालून जात असतात. या पिढय़ांना माणूस म्हणून घडवताना राष्ट्रीय चारित्र्यही घडणे अभिप्रेत असते. महात्मा गांधीजींना शिक्षणांची व्याख्या करताना हेच अभिप्रेत होते व ते कालातीतही आहे.


शिक्षकांनी, शिक्षक हा पेशा न मानता ते व्रत समजावे व घेतला वसा टाकू नये, ऊतू नये, मातू तर अजिबात नये. कालौघात शिक्षणक्षेत्रातील आवाहने व शिक्षकांविषयीच्या संकल्पना बदलत आहेत. गुरू, गुरुजी, मास्तर, बाई, सर, ताई आणि आता मॅडम अशी बिरूदे शिक्षकांसाठी पुढे आली आहेत. शिक्षक व विद्यार्थी यातील अंतर कमी झाले आहे. शिक्षकांविषयीची आदरुक्त भीती आता अभावानेच आढळते. गुरुंविषयीचा अभिमान, आदर असणारी ऋषीतुल्य व्यक्तिमत्त्वेही तशीच कमीच होत आहेत. शिक्षकांची जागा तंत्रज्ञानाने घेतली आहे. गुरुची कामं आता यंत्र करत आहे. शाळा, महाविद्यालय ही संकल्पना भविष्यात लयालाही जाईल. ऑनलाइन शिक्षण व ऑनलाइन पदवीही मिळेल. या सगळ्या गदारोळात माणसाच्या सामाजिकीकरण प्रक्रिया मात्र होणार नाही. सहवेदना, सहकार्य, सहानुभूती, त्याग, सोसणे या मानवी भावभावनांचे विकसीकरण कदाचित होणार नाही. सवंगडय़ा सोबत, एका विशिष्टवेळी, विशिष्ट इमारतीत प्रत्यक्ष प्रसंग घडत असताना, प्रत्यक्ष जीवनानुभवातून आपण जे अनुकरणाने, अवलोकनाने, अनुभवातून शिकतो त्याचे काय? हा प्रश्न बाकी असेल. यादृष्टीने विचार करता, मानवाने यंत्रे निर्माण केली. विकसित केली. हीच यंत्रे माणसाची जागा घेत आहेत. पण शिक्षण क्षेत्रात ई-लर्निगची साधने हा शिक्षकांसाठीचा पर्याय होऊ शकत नाही. संस्कार, प्रेम, शिस्त, सृजनांचे रूजवण करण्याचे काम यंत्रे करू शकत नाहीत. हेच खरे.

आज एकविसाव्या शतकाकडे वाटचाल करताना पारंपरिक शिक्षण व आधुनिक शिक्षण असे दोन प्रवाह दिसतात. जीवन कौशल्यावर आधारित किमान कौशल्ये प्राप्त करून देणारे शिक्षण हे भविष्यात उपोगी पडणारे आहे. कुशल मनुष्यबळ हीच आपली आपल्या राष्ट्राची खरी संपत्ती असणार आहे. अगदी आधुनिक पद्धतीच्या शेतीपासून ते अवकाश शास्त्रापर्यंतच तंत्रज्ञानाचा शिक्षणात अंतर्भाव करून राष्ट्राला घडवणारी, राष्ट्राला स्वतंत्र वेगळी ओळख प्राप्त करून देणारी पिढी निर्माण करण्याचे मोठे आव्हान मात्र आपल्या पुढे आहे. शिक्षणाने प्रगती होते, समाज विकसित होतो, देश प्रगत होतो हे खरे; पण आपण मिळवलेले ज्ञान, कौशल्ये हे आपल्या ‘स्व’ सुखापुरते मर्यादित न ठेवता. समाजाभिमुख व्हावे आपण कार्य करतो. समाजासाठी लढतो, उभे राहतो, समाजाला योगदानाच्या रूपात काही देऊ शकतो तेव्हाच हे शक्य आहे व हीच मानसिकता विद्यार्थ्यांमध्ये निर्माण करण्याचे अवघड काम मात्र शिक्षकांना करायचे आहे. धर्म, प्रांत, जात, देश या मर्यादा ओलांडून गेल्याशिवाय ग्लोबलाझेशनच्या खर्‍या अर्थापर्यंत आपण पोहोचू शकणार नाही. म्हणून सर्व थरातील शिक्षणाला व शिक्षकांना आज महत्त्व आहे. माझ्यामधले ‘दि बेस्ट’ देण्याची तळमळ असणारे शिक्षकच हाडाचे शिक्षक ठरतात. समाजभिमुखी पिढी घडवताना विद्यार्थ्यांमध्ये ग्रासलेल्या प्लसची जाणीव, सामर्थ्याची ओळख करून देण्याचे काम होणे आवश्यक आहे. तेव्हाच आपल्याला अभिप्रेत असलेला शिक्षणातून सर्वागिण विकास घडणार आहे. ‘शिक्षक दिन’ म्हणूनच सगळ्यांसाठी चिंतनाचा दिन ठरावा.

मी देशासाठी काय करू शकतो. देशाला काय देऊ शकतो, माझ्या जन्माची सार्थकता कशात आहे, ते इप्सित साध्य करण्याच्या दृष्टीने एक शिक्षक म्हणून आपण कार्यरत असावे. आज काळ बदलला आहे. शिक्षण क्षेत्रातील आव्हाने वाढली आहेत. शिक्षणतज्ज्ञांइतकेच या शिक्षण प्रक्रियेत पालकांनाही महत्त्व आले आहे. समाजाची गरज, विद्यार्थी घडवणे, पालकांची अपेक्षा, आपल्या व्यवसायाची पवित्रता जपणे, प्रतिमा जपणे या सगळ्याचा मेळ घालताना आपले ज्ञानही अद्यावत ठेवणे गरजेचे आहे. या सगळ्याचे संतुलन साधत ह्या व्रताची अवघड वाटचाल करावायची आहे. 

यानिमित्तानं जाणून घेऊया त्यांचे अनमोल आणि प्रेरणादायी विचार...

 

1. भविष्यात येणाऱ्या आव्हानांना सामोरं जाण्यासाठी विद्यार्थ्यांना खऱ्या अर्थानं घडवतो, तो खरा शिक्षक.


2.  मानवतेच्या मूलभूत गोष्टी लक्षात ठेवाव्यात, जेणेकरुन चांगली व्यवस्था आणि स्वातंत्र्य दोन्ही अबाधित राहील.


3. पुस्तकांच्या वाचनानं आपल्याला एकांतात विचार करण्याची सवय आणि खरे सुख लाभते.


7. कवी धर्मामध्ये कोणत्याही निश्चित स्वरुपातील सिद्धांतासाठी कोणतीही जागा नसते.


8. मानव दानव बनणं, हा त्याचा पराभव... मानव महामानव बनणं, हा त्याचा चमत्कार... आणि मनुष्य मानव होणे, हा त्याचा विजय...


9.  कोणतंही स्वातंत्र्य तोपर्यत खरे नसते, जोपर्यंत त्या विचाराचं स्वातंत्र्य प्राप्त होत नाही. सत्याच्या शोधात असताना कोणत्याही धार्मिक श्रद्धा किंवा राजकीय सिद्धांतांमध्ये बाधा आणू नये. 



        

गुरु नानक देव


                                                

              *गुरु नानक देव*


      *जन्म : 15 अप्रैल, 1469*

         (तलवंडी, पंजाब, भारत)

     *मृत्यु : 22 सितंबर, 1539*

                     (भारत)                                                 पिता :  कालू, माता : तृप्ता

पत्नी : सुलक्खनी

संतान : श्रीचन्द, लक्ष्मीदास

कर्म भूमि : भारत

कर्म-क्षेत्र : समाज सुधारक

मुख्य रचनाएँ : जपुजी, तखारी' राग के बारहमाहाँ

भाषा : फ़ारसी, मुल्तानी, पंजाबी, सिंधी , ब्रजभाषा, खड़ीबोली

प्रसिद्धि : सिक्खों के प्रथम गुरु

नागरिकता : भारतीय

उत्तराधिकारी : गुरु अंगद देव

अन्य जानकारी: गुरु नानक अपने व्यक्तित्व में पैगम्बर, दार्शनिक, राजयोगी, गृहस्थ, त्यागी, धर्म-सुधारक, समाज-सुधारक, कवि, संगीतज्ञ, देशभक्त, विश्वबन्धु आदि सभी के गुण उत्कृष्ट मात्रा में समेटे हुए थे।

गुरु नानक  सिक्खों के प्रथम गुरु (आदि गुरु) थे। इनके अनुयायी इन्हें 'गुरु नानक', 'बाबा नानक' और 'नानकशाह' नामों से संबोधित करते हैं। गुरु नानक 20 अगस्त, 1507 को सिक्खों के प्रथम गुरु बने थे। वे इस पद पर 22 सितम्बर, 1539 तक रहे।


❇️ *परिचय*

पंजाब के तलवंडी नामक स्थान में 15 अप्रैल, 1469 को एक किसान के घर गुरु नानक उत्पन्न हुए। यह स्थान लाहौर से 30 मील पश्चिम में स्थित है। अब यह 'नानकाना साहब' कहलाता है। तलवंडी का नाम आगे चलकर नानक के नाम पर ननकाना पड़ गया। नानक के पिता का नाम कालू एवं माता का नाम तृप्ता था। उनके पिता खत्री जाति एवं बेदी वंश के थे। वे कृषि और साधारण व्यापार करते थे और गाँव के पटवारी भी थे। गुरु नानक देव की बाल्यावस्था गाँव में व्यतीत हुई। बाल्यावस्था से ही उनमें असाधारणता और विचित्रता थी। उनके साथी जब खेल-कूद में अपना समय व्यतीत करते तो वे नेत्र बन्द कर आत्म-चिन्तन में निमग्न हो जाते थे। इनकी इस प्रवृत्ति से उनके पिता कालू चिन्तित रहते थे।


💁‍♂️ *आरंभिक जीवन*

सात वर्ष की आयु में वे पढ़ने के लिए गोपाल अध्यापक के पास भेजे गये। एक दिन जब वे पढ़ाई से विरक्त हो, अन्तर्मुख होकर आत्म-चिन्तन में निमग्न थे, अध्यापक ने पूछा- पढ़ क्यों नहीं रहे हो? गुरु नानक का उत्तर था- मैं सारी विद्याएँ और वेद-शास्त्र जानता हूँ। गुरु नानक देव ने कहा- मुझे तो सांसारिक पढ़ाई की अपेक्षा परमात्मा की पढ़ाई अधिक आनन्दायिनी प्रतीत होती है, यह कहकर निम्नलिखित वाणी का उच्चारण किया- मोह को जलाकर (उसे) घिसकर स्याही बनाओ, बुद्धि को ही श्रेष्ठ काग़ज़ बनाओ, प्रेम की क़लम बनाओ और चित्त को लेखक। गुरु से पूछ कर विचारपूर्वक लिखो (कि उस परमात्मा का) न तो अन्त है और न सीमा है। इस पर अध्यापक जी आश्चर्यान्वित हो गये और उन्होंने गुरु नानक को पहुँचा हुआ फ़क़ीर समझकर कहा- तुम्हारी जो इच्छा हो सो करो। इसके पश्चात् गुरु नानक ने स्कूल छोड़ दिया। वे अपना अधिकांश समय मनन, ध्यानासन, ध्यान एवं सत्संग में व्यतीत करने लगे। गुरु नानक से सम्बन्धित सभी जन्म साखियाँ इस बात की पुष्टि करती हैं कि उन्होंने विभिन्न सम्प्रदायों के साधु-महत्माओं का सत्संग किया था। उनमें से बहुत से ऐसे थे, जो धर्मशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे। अन्त: साक्ष्य के आधार पर यह भलीभाँति सिद्ध हो जाता है कि गुरु नानक ने फ़ारसी का भी अध्ययन किया था। 'गुरु ग्रन्थ साहब' में गुरु नानक द्वारा कुछ पद ऐसे रचे गये हैं, जिनमें फ़ारसी शब्दों का आधिक्य है।


👦🏻 *बचपन*

गुरु नानक की अन्तमुंखी-प्रवृत्ति तथा विरक्ति-भावना से उनके पिता कालू चिन्तित रहा करते थे। नानक को विक्षिप्त समझकर कालू ने उन्हें भैंसे चराने का काम दिया। भैंसे चराते-चराते नानक जी सो गये। भैंसें एक किसान के खेत में चली गयीं और उन्होंने उसकी फ़सल चर डाली। किसान ने इसका उलाहना दिया किन्तु जब उसका खेत देखा गया, तो सभी आश्चर्य में पड़े गये। फ़सल का एक पौधा भी नहीं चरा गया था। 9 वर्ष की अवस्था में उनका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ। यज्ञोपवीत के अवसर पर उन्होंने पण्डित से कहा - दया कपास हो, सन्तोष सूत हो, संयम गाँठ हो, (और) सत्य उस जनेउ की पूरन हो। यही जीव के लिए (आध्यात्मिक) जनेऊ है। ऐ पाण्डे यदि इस प्रकार का जनेऊ तुम्हारे पास हो, तो मेरे गले में पहना दो, यह जनेऊ न तो टूटता है, न इसमें मैल लगता है, न यह जलता है और न यह खोता ही है।                           👫🏻 *विवाह*


सन 1485 ई. में नानक का विवाह बटाला निवासी, मूला की कन्या सुलक्खनी से हुआ। उनके वैवाहिक जीवन के सम्बन्ध में बहुत कम जानकारी है। 28 वर्ष की अवस्था में उनके बड़े पुत्र श्रीचन्द का जन्म हुआ। 31 वर्ष की अवस्था में उनके द्वितीय पुत्र लक्ष्मीदास अथवा लक्ष्मीचन्द उत्पन्न हुए। गुरु नानक के पिता ने उन्हें कृषि, व्यापार आदि में लगाना चाहा किन्तु उनके सारे प्रयास निष्फल सिद्ध हुए। घोड़े के व्यापार के निमित्त दिये हुए रुपयों को गुरु नानक ने साधुसेवा में लगा दिया और अपने पिताजी से कहा कि यही सच्चा व्यापार है। नवम्बर, सन् 1504 ई. में उनके बहनोई जयराम (उनकी बड़ी बहिन नानकी के पति) ने गुरु नानक को अपने पास सुल्तानपुर बुला लिया। नवम्बर, 1504 ई. से अक्टूबर 1507 ई. तक वे सुल्तानपुर में ही रहें अपने बहनोई जयराम के प्रयास से वे सुल्तानपुर के गवर्नर दौलत ख़ाँ के यहाँ मादी रख लिये गये। उन्होंने अपना कार्य अत्यन्त ईमानदारी से पूरा किया। वहाँ की जनता तथा वहाँ के शासक दौलत ख़ाँ नानक के कार्य से बहुत सन्तुष्ट हुए। वे अपनी आय का अधिकांश भाग ग़रीबों और साधुओं को दे देते थे। कभी-कभी वे पूरी रात परमात्मा के भजन में व्यतीत कर देते थे। मरदाना तलवण्डी से आकर यहीं गुरु नानक का सेवक बन गया था और अन्त तक उनके साथ रहा। गुरु नानक देव अपने पद गाते थे और मरदाना रवाब बजाता था। गुरु नानक नित्य प्रात: बेई नदी में स्नान करने जाया करते थे। कहते हैं कि एक दिन वे स्नान करने के पश्चात् वन में अन्तर्धान हो गये। उन्हें परमात्मा का साक्षात्कार हुआ। परमात्मा ने उन्हें अमृत पिलाया और कहा- मैं सदैव तुम्हारे साथ हूँ, मैंने तुम्हें आनन्दित किया है। जो तुम्हारे सम्पर्क में आयेगें, वे भी आनन्दित होगें। जाओ नाम में रहो, दान दो, उपासना करो, स्वयं नाम लो और दूसरों से भी नाम स्मरण कराओं। इस घटना के पश्चात् वे अपने परिवार का भार अपने श्वसुर मूला को सौंपकर विचरण करने निकल पड़े और धर्म का प्रचार करने लगे। मरदाना उनकी यात्रा में बराबर उनके साथ रहा।


👨‍🦯 *यात्राएँ*

गुरु नानक की पहली 'उदासी' (विचरण यात्रा) अक्तूबर , 1507 ई. में 1515 ई. तक रही। इस यात्रा में उन्होंने हरिद्वार, अयोध्या, प्रयाग, काशी, गया, पटना, असम, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वर, सोमनाथ, द्वारिका, नर्मदातट, बीकानेर, पुष्कर तीर्थ, दिल्ली, पानीपत, कुरुक्षेत्र, मुल्तान, लाहौर आदि स्थानों में भ्रमण किया। उन्होंने बहुतों का हृदय परिवर्तन किया। ठगों को साधु बनाया, वेश्याओं का अन्त:करण शुद्ध कर नाम का दान दिया, कर्मकाण्डियों को बाह्याडम्बरों से निकालकर रागात्मिकता भक्ति में लगाया, अहंकारियों का अहंकार दूर कर उन्हें मानवता का पाठ पढ़ाया। यात्रा से लौटकर वे दो वर्ष तक अपने माता-पिता के साथ रहे।

उनकी दूसरी 'उदासी' 1517 ई. से 1518 ई. तक यानी एक वर्ष की रही। इसमें उन्होंने ऐमनाबाद, सियालकोट, सुमेर पर्वत आदि की यात्रा की और अन्त में वे करतारपुर पहुँचे।

तीसरी 'उदासी' 1518 ई. से 1521 ई. तक लगभग तीन वर्ष की रही। इसमें उन्होंने रियासत बहावलपुर, साधुबेला (सिन्धु), मक्का, मदीना, बग़दाद, बल्ख बुखारा, क़ाबुल, कन्धार, ऐमानाबाद आदि स्थानों की यात्रा की। 1521 ई. में ऐमराबाद पर बाबर का आक्रमण गुरु नानक ने स्वयं अपनी आँखों से देखा था। अपनी यात्राओं को समाप्त कर वे करतारपुर में बस गये और 1521 ई. से 1539 ई. तक वहीं रहे।             🌀 *व्यक्तित्व*

गुरुनानक का व्यक्तित्व असाधारण था। उनमें पैगम्बर, दार्शनिक, राजयोगी, गृहस्थ, त्यागी, धर्म-सुधारक, समाज-सुधारक, कवि, संगीतज्ञ, देशभक्त, विश्वबन्धु सभी के गुण उत्कृष्ट मात्रा में विद्यमान थे। उनमें विचार-शक्ति और क्रिया-शक्ति का अपूर्व सामंजस्य था। उन्होंने पूरे देश की यात्रा की। लोगों पर उनके विचारों का असाधारण प्रभाव पड़ा। उनमें सभी गुण मौजूद थे। पैगंबर, दार्शनिक, राजयोगी, गृहस्थ, त्यागी, धर्मसुधारक, कवि, संगीतज्ञ, देशभक्त, विश्वबंधु आदि सभी गुण जैसे एक व्यक्ति में सिमटकर आ गए थे। उनकी रचना 'जपुजी' का सिक्खों के लिए वही महत्त्व है जो हिंदुओं के लिए गीता का है।


✍️ *रचनाएँ और शिक्षाएँ*

'श्री गुरु-ग्रन्थ साहब' में उनकी रचनाएँ 'महला 1' के नाम से संकलित हैं। गुरु नानक की शिक्षा का मूल निचोड़ यही है कि परमात्मा एक, अनन्त, सर्वशक्तिमान, सत्य, कर्त्ता, निर्भय, निर्वर, अयोनि, स्वयंभू है। वह सर्वत्र व्याप्त है। मूर्ति-पूजा आदि निरर्थक है। बाह्य साधनों से उसे प्राप्त नहीं किया जा सकता। आन्तरिक साधना ही उसकी प्राप्ति का एक मात्र उपाय है। गुरु-कृपा, परमात्मा कृपा एवं शुभ कर्मों का आचरण इस साधना के अंग हैं। नाम-स्मरण उसका सर्वोपरि तत्त्व है, और 'नाम' गुरु के द्वारा ही प्राप्त होता है। गुरु नानक की वाणी भक्ति, ज्ञान और वैराग्य से ओत-प्रोत है। उनकी वाणी में यत्र-तत्र तत्कालीन राजनीतिक, धार्मिक एवं सामाजिक स्थिति की मनोहर झाँकी मिलती है, जिसमें उनकी असाधारण देश-भक्ति और राष्ट्र-प्रेम परिलक्षित होता है। उन्होंने हिंन्दूओं-मुसलमानों दोनों की प्रचलित रूढ़ियों एवं कुसंस्कारों की तीव्र भर्त्सना की है और उन्हें सच्चे हिन्दू अथवा सच्चे मुसलमान बनने की विधि बतायी है। सन्त-साहित्य में गुरु नानक ही एक ऐसे व्यक्ति हैं; जिन्होंने स्त्रियों की निन्दा नहीं की, अपितु उनकी महत्ता स्वीकार की है। गुरुनानक देव जी ने अपने अनु‍यायियों को जीवन की दस शिक्षाएँ दी-


ईश्वर एक है।

सदैव एक ही ईश्वर की उपासना करो।

ईश्वर सब जगह और प्राणी मात्र में मौजूद है।

ईश्वर की भक्ति करने वालों को किसी का भय नहीं रहता।

ईमानदारी से और मेहनत कर के उदरपूर्ति करनी चाहिए।

बुरा कार्य करने के बारे में न सोचें और न किसी को सताएँ।

सदैव प्रसन्न रहना चाहिए। ईश्वर से सदा अपने लिए क्षमा माँगनी चाहिए।

मेहनत और ईमानदारी की कमाई में से ज़रूरतमंद को भी कुछ देना चाहिए।

सभी स्त्री और पुरुष बराबर हैं।

भोजन शरीर को ज़िंदा रखने के लिए ज़रूरी है पर लोभ-लालच व संग्रहवृत्ति बुरी है।                             🔷 *भक्त कवि गुरु नानक*

पंजाब में मुसलमान बहुत दिनों से बसे थे जिससे वहाँ उनके कट्टर 'एकेश्वरवाद' का संस्कार धीरे - धीरे प्रबल हो रहा था। लोग बहुत से देवी देवताओं की उपासना की अपेक्षा एक ईश्वर की उपासना को महत्व और सभ्यता का चिह्न समझने लगे थे। शास्त्रों के पठन पाठन का क्रम मुसलमानों के प्रभाव से प्राय: उठ गया था जिससे धर्म और उपासना के गूढ़ तत्व को समझने की शक्ति नहीं रह गई थी। अत: जहाँ बहुत से लोग जबरदस्ती मुसलमान बनाए जाते थे वहाँ कुछ लोग शौक़ से भी मुसलमान बनते थे। ऐसी दशा में कबीर द्वारा प्रवर्तित 'निर्गुण संत मत' एक बड़ा भारी सहारा समझ पड़ा।


☮️ *निर्गुण उपासना*

गुरुनानक आरंभ से ही भक्त थे अत: उनका ऐसे मत की ओर आकर्षित होना स्वाभाविक था, जिसकी उपासना का स्वरूप हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को समान रूप से ग्राह्य हो। उन्होंने घर बार छोड़ बहुत दूर दूर के देशों में भ्रमण किया जिससे उपासना का सामान्य स्वरूप स्थिर करने में उन्हें बड़ी सहायता मिली। अंत में कबीरदास की 'निर्गुण उपासना' का प्रचार उन्होंने पंजाब में आरंभ किया और वे सिख संप्रदाय के आदिगुरु हुए। कबीरदास के समान वे भी कुछ विशेष पढ़े लिखे न थे। भक्तिभाव से पूर्ण होकर वे जो भजन गाया करते थे उनका संग्रह (संवत् 1661) ग्रंथसाहब में किया गया है। ये भजन कुछ तो पंजाबी भाषा में हैं और कुछ देश की सामान्य काव्य भाषा हिन्दी में हैं। यह हिन्दी कहीं तो देश की काव्यभाषा या ब्रजभाषा है, कहीं खड़ी बोली जिसमें इधर उधर पंजाबी के रूप भी आ गए हैं, जैसे चल्या, रह्या। भक्त या विनय के सीधे सादे भाव सीधी सादी भाषा में कहे गए हैं, कबीर के समान अशिक्षितों पर प्रभाव डालने के लिए टेढ़े मेढ़े रूपकों में नहीं। इससे इनकी प्रकृति की सरलता और अहंभावशून्यता का परिचय मिलता है। संसार की अनित्यता, भगवद्भक्ति और संत स्वभाव के संबंध में उन्होंने कहा हैं -


इस दम दा मैनूँ कीबे भरोसा, आया आया, न आया न आया।

यह संसार रैन दा सुपना, कहीं देखा, कहीं नाहि दिखाया।

सोच विचार करे मत मन मैं, जिसने ढूँढा उसने पाया।

नानक भक्तन दे पद परसे निसदिन राम चरन चित लाया


जो नर दु:ख में दु:ख नहिं मानै।

सुख सनेह अरु भय नहिं जाके, कंचन माटी जानै

नहिं निंदा नहिं अस्तुति जाके, लोभ मोह अभिमाना।

हरष सोक तें रहै नियारो, नाहि मान अपमाना

आसा मनसा सकल त्यागि कै जग तें रहै निरास।

काम, क्रोध जेहि परसे नाहि न तेहिं घट ब्रह्म निवासा

गुरु किरपा जेहि नर पै कीन्हीं तिन्ह यह जुगुति पिछानी।

नानक लीन भयो गोबिंद सो ज्यों पानी सँग पानी।


📝 *प्रकृति चित्रण*


गुरु नानक देव, तलवंडी, पंजाब

गुरु नानक की कविता में कहीं-कहीं प्रकृति का बड़ा सुन्दर चित्रण मिलता है। 'तखारी' राग के बारहमाहाँ (बारहमासा) में प्रत्येक मास का हृदयग्राही वर्णन है। चैत्र में सारा वन प्रफुल्लित हो जाता है, पुष्पों पर भ्रमरों का गुंजन बड़ा ही सुहावना लगता है। वैशाख में शाखाएँ अनेक वेश धारण करती हैं। इसी प्रकार ज्येष्ठ-आषाढ़ की तपती धरती, सावन-भादों की रिमझिम, दादर, मोर, कोयलों की पुकारें, दामिनी की चमक, सर्पों एवं मच्छरों के दर्शन आदि का रोचक वर्णन है। प्रत्येक ऋतु की विशेषताओं की ओर संकेत किया गया है।                                        🟡 *पंजासाहब*

मुख्य लेख : पंजासाहब

सिक्ख तीर्थ पेशावर जाने वाले मार्ग पर तक्षशिला से एक स्टेशन आगे तथा हसन अब्दाल से दो मील दक्षिण में पंजासाहब स्थान स्थित है।


🔮 *राग और रस*

गुरु नानक की वाणी में शान्त एवं श्रृंगार रस की प्रधानता है। इन दोनों रसों के अतिरिक्त, करुण, भयानक, वीर, रौद्र, अद्भुत, हास्य और वीभत्स रस भी मिलते हैं। उनकी कविता में वैसे तो सभी प्रसिद्ध अलंकार मिल जाते हैं, किन्तु उपमा और रूपक अलंकारों की प्रधानता है। कहीं-कहीं अन्योक्तियाँ बड़ी सुन्दर बन पड़ी हैं। गुरु नानक ने अपनी रचना में निम्नलिखित उन्नीस रागों के प्रयोग किये हैं- सिरी, माझ, गऊड़ी, आसा, गूजरी, बडहंस, सोरठि, धनासरी, तिलंग, सही, बिलावल, रामकली, मारू, तुखारी, भरेउ, वसन्त, सारंग, मला, प्रभाती।


🌀 *भाषा*

भाषा की दृष्टि से गुरु नानक की वाणी में फ़ारसी, मुल्तानी, पंजाबी, सिंधी , ब्रजभाषा, खड़ीबोली आदि के प्रयोग हुए हैं। संस्कृत, अरबी और फ़ारसी के अनेक शब्द ग्रहण किये गये हैं। 1521 तक इन्होंने तीन यात्राचक्र पूरे किए, जिनमें भारत, फ़ारस और अरब के मुख्य-मुख्य स्थानों का भ्रमण किया।            🪔 *मृत्यु*

गुरु नानक की मृत्यु सन् 1539 ई. में हुई। इन्होंने गुरुगद्दी का भार गुरु अंगददेव (बाबा लहना) को सौंप दिया और स्वयं करतारपुर में 'ज्योति' में लीन हो गए। गुरु नानक आंतरिक साधना को सर्वव्यापी परमात्मा की प्राप्ति का एकमात्र साधन मानते थे। वे रूढ़ियों के कट्टर विरोधी थे। गुरु नानक अपने व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्मसुधारक, समाजसुधारक, कवि, देशभक्त और विश्वबंधु-सभी के गुण समेटे हुए थे।                                                                                                                                                                                                                                

धन सिंह थापा..


 

                *धन सिंह थापा*

          (परमवीर चक्र से सम्मानित)

पूरा नाम : मेजर धन सिंह थापा

        *जन्म : 10 अप्रैल, 1928*

     (शिमला, हिमाचल प्रदेश)

          *मृत्यु : 6 सितम्बर, 2005*

               *(आयु- 77)*

सेना : भारतीय थल सेना

रैंक : मेजर, लेफ़्टिनेंट कर्नल

यूनिट : 1/8 गोरखा राइफल्स

सेवा काल : 1949-1975

युद्ध : भारत-चीन युद्ध (1962)

सम्मान : परमवीर चक्र

नागरिकता : भारतीय

अन्य जानकारी : मेजर धनसिंह थापा शत्रु द्वारा बन्दी बना लिए गए थे। देश लौटकर दुबारा सेना में आने के बाद मेजर थापा अंतत: लेफ़्टिनेंट कर्नल के पद तक पहुँचे और पद मुक्त हुए। उसके बाद उन्होंने लखनऊ में सहारा एयर लाइंस के निदेशक का पद संभाला।

मेजर धन सिंह थापा परमवीर चक्र से सम्मानित नेपाली मूल के भारतीय थे। उन्हें यह सम्मान सन 1962 में मिला। 1962 के भारत-चीन युद्ध में जिन चार भारतीय बहादुरों को परमवीर चक्र प्रदान किया गया, उनमें से केवल एक वीर उस युद्ध को झेलकर जीवित रहा, उस वीर का नाम धन सिंह थापा था जो 1/8 गोरखा राइफल्स से, बतौर मेजर इस लड़ाई में शामिल हुआ था। धन सिंह थापा भले ही चीन की बर्बर सेना का सामना करने के बाद भी जीवित रहे, लेकिन युद्ध के बाद चीन के पास बन्दी के रूप में जो यातना उन्होंने झेली, उसकी स्मृति भर भी थरथरा देने वाली है। धन सिंह थापा इस युद्ध में पान गौंग त्सो (झील) के तट पर सिरी जाप मोर्चे पर तैनात थे, जहाँ उनके पराक्रम ने उन्हें परमवीर चक्र के सम्मान का अधिकारी बनाया।


💁‍♂️ *जीवन परिचय*

धन सिंह थापा का जन्म 10 अप्रैल, 1928 को शिमला में हुआ था और 28 अक्तूबर 1949 को वह एक कमीशंड अधिकारी के रूप में फौज में आए थे। वह एक ऐसे सैनिक अधिकारी के रूप में गिने जाते थे, जो चुपचाप अपने काम में लगा रहता हो। अनावश्यक बोलना या बढ़-चढ़ कर डींग मारना, या खुद को बहादुर जताना उनके स्वभाव में कभी नहीं था। चीन ने 1962 में जब भारत पर आक्रमण की कार्रवाई की, तब भारत इस स्थिति के लिए कतई तैयार नहीं था। भारत के राजनैतिक नायक पंडित जवाहरलाल नेहरू अंतरारष्ट्रीय स्तर पर शांति के दूत माने जाते थे। उनकी नज़र में देश के भीतर विकास का रास्ता खोलना ज्यादा महत्त्वपूर्ण था। उनकी इसी तरह उनका ध्यान अंतरारष्ट्रीय फलक पर भारत की छवि वैसी ही प्रस्तुत रखने पर था, जैसी महात्मा गाँधी या गौतम बुद्ध के देश की मानी जाती है। इस नाते देश की योजनाएँ कृषि और विकास के लिए उद्योगों पर पहले केन्द्रित थीं और रक्षा उपक्रम तथा सेना उनकी नजर में सबसे ऊपर नहीं थी। इसी तरह चीन को भी भारत की राजनैतिक नज़र बस उतना और वैसा ही समझ रही थी, जैसा चीन खुद को पेश कर रहा था। लेकिन सच तो यह था। भारत की शांति की नीति का पक्षधर होते हुए भी उसकी विस्तारवादी कुटिल नीति भी साथ में लागू थी। तिब्बत को कब्जे में लेना उसके इस छद्म व्यवहार को दर्शाता था। लेकिन भारत इस ओर से एक से, बेखबर था। इसलिए भारत की सेना न तो युद्ध के लिए तैयार थी, और न उसे इस बात की कोई खबर थी कि चीन की सेनाएँ भारत की सीमा के भीतर न सिर्फ घुस चुकी हैं, बल्कि अपनी चौकियाँ और बंकर भी बना चुकी हैं। 💥 *भारत-चीन युद्ध (1962)*

चीन की सैन्य शक्ति में अनगिनत योद्धा तो थे ही, वह पूरी तरह प्रशिक्षित तथा चुस्त-मुस्तैद भी थे। उनके पास हथियारों और गोला बारूद का अकूत भण्डार था। उनकी संचार व्यवस्था एकदम ठीक-ठाक थी और सबसे बड़ी बात, उन्हें इस बात का पता था कि भारत इस युद्ध के लिए तो तैयारी से लैस है, न ही उसके राजनायकों की युद्ध जैसी मनःस्थिति है। चीन के लिए इतना ही काफ़ी था। इन परिस्थितियों में 8 गोरखा राइफल्स की 1st बटालियन की डी कम्पनी को सिरी जाप पर चौकी बनाने का हुकुम दिया गया। उस कम्पनी की कमान मेजर धन सिंह थापा संभाल रहे थे। पानगौंग त्सो झील के किनारे सिरी जाप 1 पर थापा को चौकी बनानी थी, जब कि चीनी लद्दाख में बहुत में बहुत सारी चौकियाँ पहले से बना चुके थे। सिरी जाप का यह इलाक़ा क़रीब 48 वर्ग किलोमीटर तक फैला हुआ था। चूँकि छोटी-छोटी चौकियाँ बनाना तय हुआ था, इसलिए थापा की डी कम्पनी को केवल 28 लोग दिए गए थे। इस काम के लिए थापा के बाद दूसरे स्तर के अधिकारी सूबेदार गुठंग उनके साथ थे। इसके अलावा, स्थिति यह थी कि उस चौकी के तीन तरफ चीनी सैनिकों ने फटाफट अपनी चौकियाँ बना कर खड़ी कर ली थीं।


19 अक्टूबर 1962 को थापा की टुकड़ी ने देखा कि सिरी जाप के आस-पास चीनी सैनिकों का बेशुमार जमावड़ा हो रहा है। उनके पास भारी मात्रा में हथियार व बन्दूकें हैं और तय है कि कुछ बड़ी कार्रवाई की योजना उनकी तरफ चल रही है। ऐसा ही कुछ नज़ारा ढोला के सामने, पूर्वी छोर पर भी देखा गया। यह दुतरफा हमले की सम्भावना का संकेत था। इसे समझकर थापा ने अपने सैनिकों को तुरंत और जल्दी गहरी खाइयाँ खोदने का आदेश दिया, लेकिन यह काम बेहद कठिन था। जमीन बर्फ की सख्त सतह से ढकी हुई थी। इस पर कम्पनी कमाण्डर ने यह आदेश भी दिया कि रेत की बोरियों और राशन की बोरियों तक से बंकर बना लिए जाएँ, जो बचाव के लिए दीवार का काम करें।


आशंका को सच करते हुए, चीन की फौजों ने 20 अक्तूबर 1962 को सुबह साढ़े चार बजे हमला कर दिया। उनके पास मोर्टार के साथ-साथ लगातार गोलियां चलाने की भी व्यवस्था थी। ढाई घंटे तक यह क्रम चलता रहा जिसका फायदा उठा चीनी सैनिक क़रीब डेढ़ सौ गज भीतर तक आ गए। जब गोलाबारी थमी तब भारतीय फौजों ने क़रीब छह सौ सैनिकों का हल्लाबोल सुना जो चौकी पर हमला करने के लिए बढ़े चले आ रहे थे। दरअसल इसी स्थिति का भारतीय गोरखा सैनिक इंतजार कर रहे थे। अब चीनी सैनिक भारतीय गोरखा टुकड़ी की मशीनगन की मार के अन्दर थे। उस तक आते ही थापा के सिपाही अपनी मशीनगन और राइफल्स से दुश्मन की सेना पर टूट पड़े जिससे बहुत से चीनी सैनिक हताहत हुए और कई घायल हो गए। इस तरह भारत के बहादुरों ने चीनी फौजियों को चौकी से सौ गज के फासले पर रुक जाने के लिए मजबूर कर दिया। चीनी सैनिकों की ओर से गोलियों की बौछार और मोर्टार दागे जाने से मेजर धनसिंह थापा की डी टुकड़ी का नुकसान होना ही था। उसके भी बहुत से सैनिक मारे गए या घायल हो गए थे। सेक्शन कमाण्डार नायक कृष्णा बहादुर थापा ने सैनिकों के हताहत होते जाने पर खुद लाइट मशीनगन संभाल कर गोलियाँ बरसानी शुरू की थीं। उन्होंने भी बहुत से दुश्मनों को मौत की नींद सुलाकर स्वयं वीरगति प्राप्त की थी। इस दौरान उनकी संचार व्यवस्था भी नाकाम हो गई थी इसलिए भारतीय सेना अपनी बटालियन से संवाद स्थापित करने में भी असमर्थ थी। इस कठिन परिस्थिति में सूबेदार मिन बहादुर गुरूंग और मेजर धनसिंह थापा अपनी रणनीति के अनुसार टुकड़ी को उत्साहित भी कर रहे थे और नियोजित भी। चीन के साथ फौजियों की नई टुकड़ी आ गई थी वह ताजा दम सैनिक और भी ज्यादा जोश में थे। ऐसे में चीनी सैनिक रेंगते हुए चौकी के 50 गज तक पास बढ़ आए थे, जब कि दोनों तरफ से उनकी टुकड़ियां गोलियाँ बरसा कर उनके बढ़ने का रास्ता बना रही थीं। दुश्मन के पास अग्निवर्षक बम भी थे, जिन्हें फेंक कर वह आग और धुएँ का कवज बना रहे थे। इसके बावजूद, गोरखों ने इस स्थिति की चुनौती को स्वीकार किया और अपनी छोटी दूरी वाले हथियारों से उनका जवाब देना शुरू किया। अचानक सूबेदार गुरुंग अपने ही एक बंकर के ढह जाने पर उसके नीचे दब गए। उनके हाथ में उस समय लाइट मशीनगन थी, जिससे वह गोलियाँ बरसा रहे थे। उन्होंने किसी तरह संघर्ष करके खुद को बंकर के नीचे से बाहर निकाला और फिर लगातार गोलियाँ बरसाने लगे। इससे चीनी सैनिकों को भारी नुकसान हुआ, जो भी गुरूंग के निशाने पर आया, वह धराशायी हो गया लेकिन तभी वह खुद आघात का शिकार हुए और उन्होंने वीरगति पाई। अब मेजर धनसिंह थापा उस चौकी पर डटे हुए थे और उनके साथ 34 में से केवल 7 जवान बचे थे। इस बीच दुश्मन हैवी मशीनगन, बाजूका के साथ 4 ऐसे यान ले आया था, जो पानी और जमीन दोनों पर चलकर मार करते थे। ऐसे यानों पर दो-दो हैवी मशीनगन लगी हुई थीं। भारत की संचार व्यवस्था पहले ही टूट चुकी थी। धनसिंह थापा की चौकी भारी दबाव में आ गई थी। इस बीच बटालियन तक संवाद लेकर नायक रविलाल को एक छोटी नाव में भेजा गया क्योंकि संवाद का और कोई तरीका नहीं था। बटालियन से टोकुंग के रास्ते दो नावें सहायता लेकर आ रही थीं। दोनों नावों पर चीनी सैनिकों ने निशाना साध लिया। एक नाव उनकी गोली खाकर वहीं डूब गई। उसके साथ सभी सैनिक डूब गए। दूसरी नाव, जिसमें नायक रविलाल स्वयं था, वह किसी तरह बच पाने में सफल हो गई लेकिन मेजर धनसिंह थापा तक सहायता नहीं पहुँच पाई। ⛓️ *शत्रु द्वारा बंदी*

अब मेजर धनसिंह थापा के पास सिर्फ तीन सैनिक रह गए, बाकी चार हताहत हो गए। उनका यह हाल मेजर धनसिंह थापा के बंकर पर अग्नि बम गिरने से हुआ। इसके साथ ही चीनी फौज ने उस चौकी और बंकर पर क़ब्ज़ा कर लिया और मेजर धनसिंह थापा शत्रु द्वारा बन्दी बना लिए गए। उसके बाद चीन की फौजों ने तीसरा हमला टैंक के साथ किया। इस बीच नाव लेकर बच निकला नायक रविलाल फिर बटालियन में पहुँचा और उसने सिरी जाप चौकी के पराजित होने, तथा सारे सैनिकों और मेजर धनसिंह थापा के मारे जाने की खबर वहाँ अधिकारियों को दी। उसने बताया कि वहाँ सभी सैनिक और मेजर थापा बहादुरी से, अपनी आखिरी सांस तक लड़े। बटालियन नायक द्वारा दी गई इस खबर को सच मान रही थी, जब कि सच यह नहीं था। मेजर थापा अपने तीन सैनिकों के साथ बंदी बना लिए गए थे। लेकिन भाग्य को अभी भी नया कुछ दिखाना था। पकड़े गए थापा सहित तीन बन्दियों में से राइफल मैन तुलसी राम थापा, चीनी सैनिकों की पकड़ से भाग निकलने में सफल हो गया। वह चार दिनों तक अपनी सूझ-बूझ से चीनी फौजों को चकमा देता रहा और किसी तरह भाग कर छिपता हुआ अपनी बटालियन तक पहुँच पाया। तब उसने मेजर धनसिंह थापा तथा दो अन्य सैनिकों के चीन के युद्धबन्दी हो जाने की सूचना दी, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। मेजर थापा लम्बे समय तक चीन के पास युद्धबन्दी के रूप में यातना झेलते रहे। चीनी प्रशासक उनसे भारतीय सेना के भेद उगलवाने की भरपूर कोशिश करते रहे। वह उन्हें हद दर्जे की यातना देकर तोड़ना चाहते थे, लेकिन यह सम्भव नहीं हुआ। मेजर धनसिंह थापा न तो यातना से डरने वाले व्यक्ति थे, न प्रलोभन से।


देश लौटकर सेना में आने के बाद मेजर थापा अंतत: लेफ्टिनेंट कर्नल के पद तक पहुँचे और पद मुक्त हुए। उसके बाद उन्होंने लखनऊ में सहारा एयर लाइंस के निदेशक का पद संभाला।

 

         

राम सिंह पठानिया


              *राम सिंह पठानिया*  

              (स्वतंत्रता सेनानी)

          *जन्म : 10 अप्रॅल, 1824*

           *मृत्यु : 11 नवंबर, 1849*

नागरिकता : भारतीय

प्रसिद्धि : स्वतंत्रता सेनानी

अन्य जानकारी : जसवंत सिंह ने खुद को राजा नियुक्त करते हुए राम सिंह पठानिया को अपना मंत्री बनाया था। इसके पश्चात उन्होंने हिमाचल से सारे अंग्रेज़ों को उखाड़ फेकने की योजना बनायी।

                 राम सिंह पठानिया भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे। वह अंग्रेज़ों के विरुद्ध संघर्ष करने वाले सेनानी थे। उन्होंने मुट्ठी भर साथियों के साथ अंग्रेज़ी साम्राज्य की नींव हिलाकर रख दी थी। उस समय राम सिंह पठानिया की उम्र केवल 24 वर्ष थी।

राम सिंह पठानिया का जन्म नूरपुर रियासत के मंत्री श्याम सिंह के घर 10 अप्रैल, 1824 को हुआ था।

उनके पिता नूरपुर रियासत में राजा वीर सिंह के मंत्री थे।

सन 1846 में अंग्रेज़-सिक्ख संधि के कारण हिमाचल प्रदेश की अधिकांश रियासतें अंग्रेज़ साम्राज्य के आधीन हो गई थीं। उसी समय राजा वीर सिंह की मृत्यु हो गई। उस समय उनके बेटे जवसंत सिंह राजगद्दी के उत्तराधिकारी थे।

अंग्रेज़ों ने जसवंत सिंह के सारे अधिकार पांच हजार रुपए में ले लिए और रियासत को अपने शासन से मिलाने की घोषणा कर दी, जो वीर सिंह पठानिया को मंजूर नहीं था।

वीर सिंह पठानिया ने कटोच राजपूतों के साथ मिलकर सेना बनाई और अंग्रेज़ों पर धावा बोल दिय। इस आक्रामण से अंग्रेज़ भाग खड़े हुए और राम सिंह ने अपना ध्वज लहरा दिया। इससे खुश होकर जसवंत सिंह ने खुद को राजा नियुक्त करते हुए राम सिंह पठानिया को अपना मंत्री बना लिया। इसके पश्चात उन्होंने हिमाचल से सारे अंग्रेज़ों को उखाड़ फेकने की योजना बनायी और विजय प्राप्त की।

अंग्रेज़ों को भी पता था कि वे राम सिंह को आसानी से गिरफ्तार या मार नहीं सकते हैं। ऐसे में उन्होंने षडयन्त्र बनाया और जब राम सिंह पठानिया पूजा-पाठ कर रहे थे, तब उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और आजीवन कारावास की सजा सुनाकर कालापानी भेज दिया। उसके बाद उन्हें रंगून भेजा गया और उन पर काफी अत्याचार किए गये।

11 नवंबर, 1849 को मात्र 24 साल की उम्र में राम सिंह पठानिया वीरगति को प्राप्त हो गए।

                                                                                                                                                                                                                                            

            

भाऊसाहेब देशमुख..


            

        *शिक्षण महर्षी, कृषीरत्न*

          *डॉ. पंजाबराव उपाख्य*                 

            *भाऊसाहेब देशमुख* 


        *जन्म : २७ डिसेंबर १८९८*

        (पापळ, अमरावती, महाराष्ट्र )

 

        *मृत्यू : १० एप्रिल १९६५*

                     (दिल्ली)


राष्ट्रीयत्व : भारतीय

टोपणनाव : भाऊसाहेब

नागरिकत्व : भारतीय

प्रशिक्षण संस्था : श्री शिवाजी 

                         शिक्षण संस्था

पेशा : समाज सेवक , राजकारण

मूळ गाव : पापळ

राजकीय पक्ष : भारतीय राष्ट्रीय 

                      काँग्रेस

जोडीदार : विमलाबाई


पंजाबराव देशमुख उच्च शिक्षण घेऊन ते स्वातंत्र्य लढ्यात सामील झाले. इ.स. १९३६ च्या निवडणुकी पश्चात ते शिक्षणमंत्री झाले. स्वतंत्र भारतात ते भारताचे कृषी मंत्री होते. विदर्भात शिक्षणाचा प्रसार व्हावा म्हणून त्यांनी श्री शिवाजी शिक्षण संस्था काढली. या संस्थेच्या पश्चिम विदर्भात म्हणजे अमरावती विभागात अंदाजे १,०००च्या वर शाळा आहेत. महाविद्यालये, अभियांत्रिकी पदवी, तसेच पदविका तंत्रनिकेतन, कृषी महाविद्यालय, वैद्यकीय महाविद्यालय अशी अनेक महाविद्यालये सुरू करून त्या संस्था शिक्षण क्षेत्रात फार मोठे योगदान देत आहेत.


'भूतकाळ विसरा, तलवार विसरा, जातिभेद पुरा, सेवाभाव धरा' हे पंजाबराव देशमुखांचे ब्रीदवाक्य होते.


🔴 *डॉ.पंजाबराव देशमुख यांचे : चरित्र & कार्य"*


⚜ *बहुजनांच्या शिक्षणाचे शिल्पकार आणि कृषिक्रांतीचे अग्रदूत*


 भाऊसाहेब डॉ.पंजाबराव देशमुख यांचे चरित्र आणि कार्य हिमलयापेक्षा उत्तुंग आहे हे नव्याने सांगण्याची गरज नाही. देशातील शेतकरी आणि महाराष्ट्रातील शिक्षणाची अवस्था भाऊसाहेबांनी अनुभवली होती.


"चिखलात पाय आणि पायात काटा,अशाच वात् ग्रामीण विद्यार्थ्यांच्या वाट्याला असतात" या वास्तवाचे भान असलेल्या भाऊसाहेबांचा जन्म २७ डिसेंबर १८९८ रोजी अमरावती जिल्ह्यातील पापड या गावी झाला. शेतकरी कुटुंबात जन्मास आलेल्या पंजाबरावांच्या आईचे नाव राधाबाई आणि वडील शामरावबापू असे होते. इयत्ता ३ री पर्यंतचे शिक्षण पापड या गावीच झाले. ४था वर्ग नसल्याने एक वर्ष पुन्हा ३ र्याच वर्गात शिक्षण घ्यावे लागले. पुढे भाऊसाहेबांचे आजोळ सोनेगावच्या जवळच असलेल्या चांदूर रेल्वेच्या प्राथमिक शाळेत चौथा वर्ग पूर्ण केला.


माध्यमिक शिक्षण (कारंजा) लाड येथे तर matric चे शिक्षण अमरावतीच्या हिंदू हायस्कूल मधून पूर्ण केले.


पुण्याच्या फर्ग्युसन कॉलेज मधून इंटरमिडीएटचे शिक्षण घेऊन उच्च शिक्षणासाठी भाऊसाहेब इंग्लंड ला गेले. तेथे त्यांनी ‘वेद वाड:मयातील धर्माचा उद्गम आणि विकास' (१९२०) मध्ये OXFORD विद्यापीठाच्या डॉक्टरेट (पी.एच.डी.) हि पदवी संपादन केली. प्रतिकूल परिस्थितीशी सामना करत इच्छाशक्ती आणि आत्मविश्वासाच्या बळावर प्रकांड पांडित्य संपादन करणारे भाऊसाहेब कधीच पोथीनिष्ठ नव्हते तर ते होते कृतीनिष्ट.


बहुजनांचे दु:ख दूर करणारे डॉक्टर व अन्याय दूर करण्यासाठी झगडणारे ते Baristar होते.


♻ *"भाऊसाहेबांचे शैक्षणिक व सामाजिक कार्य"*


🔮 *महाराष्ट्राच्या शिक्षणाचे शिल्पकार दोन भाऊ-* 


       त्यात भाऊसाहेब पंजाबराव देशमुख व कर्मवीर भाऊराव पाटील हे आहेत.देशातील सर्वात मोठ्या श्री शिवाजी शिक्षण संस्थेची स्थापना भाऊसाहेबांनी १९३१ मध्ये अमरावती येथे केली. यानंतर विदर्भाचा ‘शैक्षणिक विकास भारतीय शेती शेतकरी आणि बहुजन उद्धाराची चळवळ' हे भाऊसाहेबांच्या जीवनाचे ध्येय ठरले. बहुजनांच्या शिक्षणातील अडचण हि प्रतीगाम्यांची मनुवादी विचारधारा आहे हि मनुवादी विचारधारा नेस्तनाबूत करण्यासाठी अखंड प्रयत्न केले. शोषितांचे उद्धारकर्ते आणि कृषकांचे कैवारी असलेल्या भाऊसाहेबांनी "जगातील शेतकऱ्यांनो संघटीत व्हा" हा मंत्र दिला. देशाचे कृषिमंत्री असताना १९५९ ला शेतकऱ्यांसाठी ‘जागतिक कृषि प्रदर्शनाचे" आयोजन केले.तसेच जपानी भातशेतीचा त्यांचा प्रयोग उल्लेखनीय आहे. ते कृषि विद्यापीठाच्या कल्पनेचे जनक आहेत.


शिक्षण, शेती, सहकार, अश्पृश्योद्धार, जातीभेद निर्मुलन, धर्म इ. विविध क्षेत्रात त्यांनी अवाढव्य कार्य केले. ग्रामीण समाज पोथीनिष्ठ आणि परंपरानिष्ट असल्याने त्यांच्यात अज्ञान, अंधश्रद्धा, दैववाद, अवैज्ञानिकता, देवभोळेपणा खच्चून भरल्यामुळेच हा समाज शिक्षणापासून वंचित राहिला हे त्यांना ठाऊक होते. तसेच ब्राम्हणी वर्णवर्चस्ववाद हा ग्रामीण बहुजन समाजाला पद्धतशीरपणे शिक्षणापासून दूर ठेवण्यासाठीचा प्रयत्न होता. खऱ्या अर्थाने भारतातील बहुजन समाज हा गुलामगिरीच्या शृंखलांनी जखडलेला होता आणि १०% सेटजी, भटजी, लाटजी हा वर्ग सरकारी नोकऱ्या, उच्चपदे, सोयी सवलतीचा लाभ घेत होता.


जुलै १९२६ नंतर भारतात परत आल्यावर चातुर्वर्णप्रणीत जातीव्यवस्था , अश्पृश्यता, अज्ञान, दारिद्र्य, पारतंत्र्य यासाठी स्वत:ला पूर्णत: वाहून घेतले. १९२७ सालच्या मोशीच्या हिंदुसभेचा अधिवेशनाचा डॉ.पंजाबराव देशमुखांनी ताबा घेतला व आपल्या ओजस्वी भाषणातून सबंध श्रोतावर्ग काबीज केला. चातुर्वर्ण, अश्पृश्यता,जातीभेद याचा निषेध ठराव वामनराव घोरपडे यांनी मांडला व भाऊसाहेब याला अनुमोदन देताना म्हणाले, "आमची गुलामगिरी नष्ट करण्याकरिता अस्पृशता निवारणा सारख्या सुधारणांच्या चिठ्ठ्या हिंदूधर्माला जोडून आम्ही त्याची भोके बुजविण्याचा प्रयत्न करीत आहोत. चातुर्वर्ण व्यवस्थेचा रांजन दुरुस्त झाला नाही तर तो रांजनच फोडून टाकण्यास आम्ही मागे पुढे पाहणार नाही." हे भाऊसाहेबांचे उर्वरित कार्य शिवश्री. पुरुषोत्तम खेडेकर, डॉ.आ.ह.साळुंके, इतिहासाचार्य मा. म. देशमुखांसारख्या कोट्यावधी बहुजन बांधवांनी १२ जानेवारी २००५ रोजी मातृतीर्थ सिंधखेड राजा येथे शिवधर्माचे प्रगटन करून केले आहे. आता चातुर्वर्ण व्यवस्थेचा रांजन फुटल्यामुळे डॉ.बाबासाहेब आंबेडकरांना अभिप्रेत असलेली स्वातंत्र्य, समता, न्याय, बंधुता अशी लोकशाही या देशात अस्तित्वात येईल.


डॉ.पंजाबराव देशमुखांच्या बहुजन उद्धाराच्या कार्यावर चिडलेल्या मनुवाद्यांनी त्यांच्या खुनाचाही प्रयत्न केला. पण भाऊसाहेब डगमगले नाहीत, पुढे त्यांनी २६ नोव्हेम्बर १९२७ रोजी सोनार कुटुंबात जन्मलेल्या कु. विमल वैद्य या युवतीशी आंतरजातीय विवाह करून मराठा-सुवर्णकार नातेसंबंध जुळवून आणले. त्यांनी १९३० मध्ये अस्पृश्य पित्तर केला. तसेच हिंदू देवस्थान संपत्ती बिल १९३२ मध्ये आणले. भाऊसाहेबांनी डॉ. बाबासाहेबांसोबत १९२७ मध्ये अमरावती येथील अंबादेवी मंदिर प्रवेशासाठी सत्याग्रह केला. मंदिर प्रवेशामागे ईश्वर भक्तीचा त्यांचा उद्देश नव्हता. भाऊसाहेबांचा देवावर विश्वासच नव्हता. ते म्हणत ,"मूर्तीत देव असेल तर मूर्तीत देव घडविणारा कारागीर हा देवाचा बापच ठरेल."


खरोखरच आजही डॉ. भाऊसाहेबांचे कार्य शिक्षणक्षेत्रात काम करणाऱ्या शिक्षक, संस्थाचालक, शिक्षणतज्ञाना तसेच बहुजन समाजाला प्रेरणादायी आहे.


🌀 *संक्षिप्त जीवन*


डॉ. पंजाबराव देशमुख ( भाऊसाहेब देशमुख)


*मूळ आडनाव - कदम*


१९२७- शेतकरी संघाच्या प्रचारासाठी 'महाराष्ट्र केसरी' हे वर्तमानपत्र चालविले.


वैदिक वाङ्मयातील धर्माचा उद्गम आणि विकास' या प्रबंधाबद्दल डॉक्टरेट.


१९३३ - शेतकऱ्यांची कर्जातून मुक्तता करणारा कर्ज लवाद कायदा पारiत करण्यात मोठा वाटा. त्यामुळे त्यांना हिंदुस्थानच्या कृषक क्रांतीचे जनक म्हणतात.


१९२६ - मुष्टिफंड या माध्यमातून गरीब होतकरू विद्यार्थ्यांसाठी श्रद्धानंद छात्रालय काढले.


१९२७ - शेतकरी संघाची स्थापना.


१९३२ - श्री. ए. डब्ल्यू. पाटील यांच्या सहकार्याने श्री शिवाजी शिक्षण संस्थेची स्थापना.


? - ग्रामोद्धार मंडळाची स्थापना.


१९५० - लोकविद्यापीठाची स्थापना (पुणे), त्याचे नंतर यशवंतराव चव्हाण महाराष्ट्र मुक्त विद्यापीठात रूपांतर झाले.


१९५५ - भारत कृषक समाजाची स्थापना व त्याच्याच विद्यमाने 'राष्ट्रीय कृषी सहकारी खरेदी विक्री संघाची स्थापना.


१९५६ - अखिल भारतीय दलित संघाची स्थापना.


१८ ऑगस्ट १९२८ - अमरावती अंबाबाई मंदिर अस्पृश्यांसाठी खुले व्हावे म्हणून सत्याग्रह .


१९३० - प्रांतिक कायदे मंडळावर निवड. शिक्षण, कृषी, सहकार खात्याचे मंत्री


लोकसभेवर १९५२, १९५७, १९६२ तीन वेळा निवड.


१९५२ ते ६२ केंद्रीय मंत्रिमंडळात कृषिमंत्री. भारताचे पहिले कृषिमंत्री.


देवस्थानची संपत्ती सरकारने ताब्यात घेऊन विधायक कार्य करावे या उद्देशाने १९३२ मध्ये हिंदू देवस्थान संपत्ती बिल मांडले.


प्राथमिक शिक्षकांच्या समस्या सोडवण्यासाठी प्राथमिक शिक्षक संघाची स्थापना.


१९६० - दिल्ली येथे जागतिक कृषी प्रदर्शन भरवले.


📚 *पंजाबराव देशमुखांच्या जीवनावरील पुस्तके*


सूर्यावर वादळे उठतात. (नाटक, लेखक बाळकृष्ण द. महात्मे)

            

         

मोरारजी रणछोडजी देसाई


        

            *भारतरत्न*

*मोरारजी रणछोडजी देसाई*


[भारतीय अर्थमंत्री (माजी), स्वातंत्र्य लढ्यातील कार्यकर्ते, भारताचे ४थे पंतप्रधान ]


*जन्म : २९ फेब्रुवारी १८९६*

   (भादेली, वलसाड, गुजरात)


  *मृत्यू : १० एप्रिल  १९९५*

         (नवी दिल्ली, भारत)


राष्ट्रीयत्व : भारतीय

राजकीय पक्ष : जनता पक्ष

अपत्ये : कांती देसाई

धर्म : हिंदू


     *४थे भारतीय पंतप्रधान*

                कार्यकाळ

मार्च २४,इ.स. १९७७ – जुलै २८,इ.स. १९७९

राष्ट्रपती : बसप्पा धनप्पा जत्ती

             नीलम संजीव रेड्डी

मागील : इंदिरा गांधी

पुढील : चौधरी चरण सिंग


       *भारतीय अर्थमंत्री*

                कार्यकाळ

मार्च २४, इ.स. १९७७ – जुलै १४, इ.स. १९७९

मागील : सुब्रमण्यन चिदंबरम

पुढील : चौधरी चरण सिंग


         *कार्यकाळ*

ऑगस्ट २१, इ.स. १९६७ – मार्च २६. इ.स. १९७०

मागील : टी.टी. कृष्णम्माचारी

पुढील : इंदिरा गांधी


           *कार्यकाळ*

ऑगस्ट १५, इ.स. १९५९ – मे २९, इ.स. १९६४


मागील : जवाहरलाल नेहरू

पुढील : टी.टी. कृष्णम्माचारी


मोरारजी रणछोडजी देसाई हे भारतीय स्वातंत्र्य चळवळीत एक कार्यकर्ते होते. ते १९७७ ते १९७९ दरम्यान जनता पार्टीने तयार केलेल्या सरकारमध्ये भारताचे ४थे पंतप्रधान बनले. राजकारणाच्या प्रदीर्घ कारकीर्दीत त्यांनी मुंबई राज्याचे मुख्यमंत्री, भारताचे गृहमंत्री व अर्थमंत्री आणि भारताचे दुसरे उपपंतप्रधान अशी अनेक महत्वाची पदे भूषविली.

पंतप्रधान लाल बहादूर शास्त्री यांचे निधन झाल्यानंतर देसाई हे १९६६ मध्ये पंतप्रधानपदाचे प्रबळ दावेदार होते. १९६९ पर्यंत इंदिरा गांधींच्या मंत्रिमंडळात त्यांची उपपंतप्रधान आणि अर्थमंत्री म्हणून नियुक्ती झाली. १९६९ च्या काँग्रेसच्या फाळणीच्या वेळी त्यांनी राजीनामा दिला आणि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (संगठन) (कांग्रेस (ओ) मध्ये सामील झाले. १९७७ मध्ये वादग्रस्त आणीबाणी उठवल्यानंतर, विरोधी पक्षांनी जनता पक्षाच्या छायेत असलेल्या काँग्रेसविरूद्ध एकत्र लढा दिला आणि १९७७ ची निवडणूक जिंकली. देसाई पंतप्रधान म्हणून निवडले गेले आणि ते भारताचे पहिले गैर-काँग्रेस पंतप्रधान झाले.


१९७४ मध्ये भारताच्या पहिल्या अणुचाचणीनंतर देसाई यांनी चीन आणि पाकिस्तानशी मैत्रीपूर्ण संबंध परत आणण्यास मदत केली आणि १९७१ च्या भारत-पाकिस्तान युद्धासारख्या सशस्त्र संघर्ष टाळण्याचा संकल्प केला. १९ मे १९९० रोजी त्यांना पाकिस्तानचा सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार, निशान-ए-पाकिस्तानने गौरविण्यात आले.


भारतीय राजकारणाच्या इतिहासामध्ये वयाच्या ८४ व्या वर्षी पंतप्रधानपदाची सूत्रे सांभाळणारे ते सर्वात वयस्कर व्यक्ती आहेत. त्यानंतर त्यांनी सर्व राजकीय पदांवरुन सेवानिवृत्ती घेतली, परंतु १९८० मध्ये जनता पक्षासाठी प्रचार करत राहिले. त्यांना भारताचा सर्वोच्च नागरी सन्मान भारतरत्न देण्यात आला. वयाच्या ९९ व्या वर्षी १९९५ मध्ये त्यांचे निधन झाले.


💁🏻‍♂ *पूर्वीचे जीवन*


मोरारजी देसाई गुजराती वंशाचे होते. त्यांचा जन्म २९ फेब्रुवारी १८९६ रोजी बुल्सर जिल्हा, बॉम्बे प्रेसिडेन्सी, ब्रिटीश इंडिया (सध्याचे वलसाड जिल्हा, गुजरात, भारत) मधील भदेली गावात झाला. ते आठ मुलांपैकी सर्वात मोठे होते व त्याचे वडील शालेय शिक्षक होते. देसाई यांचे प्राथमिक शिक्षण सावरकुंडला येथील कुंडला शाळेत (आता जे.व्ही. मोदी शाळा म्हटले जाते) व नंतर वलसाडच्या बाई अवा बाई हायस्कूलमध्ये झाले. मुंबईच्या विल्सन महाविद्यालयातून पदवी घेतल्यानंतर ते गुजरातमधील नागरी सेवेत दाखल झाले.


देसाई महात्मा गांधींच्या अधीन असलेल्या स्वातंत्र्यलढ्यात सामील झाले आणि ब्रिटिश राजवटीविरूद्धच्या नागरी अवज्ञा आंदोलनात सामील झाले. स्वातंत्र्यलढ्यात त्यांनी बरीच वर्षे तुरुंगात घालविली आणि त्यांच्या तीव्र नेतृत्व कौशल्यामुळे आणि खडतर मनोवृत्तीमुळे ते स्वातंत्र्यसैनिकांमधील आवडते आणि गुजरात प्रदेशातील भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेसचे महत्त्वाचे नेते झाले. १९३४ आणि १९३७ मध्ये प्रांतीय निवडणुका झाल्या तेव्हा देसाई यांची निवड झाली आणि त्यांनी मुंबई अध्यक्षांच्या महसूलमंत्री आणि गृहमंत्री म्हणून काम पाहिले.  

 

            

गुरु अमरदास

                                    

                    

            *गुरु अमरदास*

*जन्म : 5 अप्रैल 1479*

(बसरका गाँव, अमृतसर)

*मृत्यु : 1 सितम्बर 1574*

       (अमृतसर, पंजाब)

पिता : तेज भान भल्ला जी               माता : बख्त कौर जी

पत्नी : मंसा देवी

कर्म भूमि : भारत

प्रसिद्धि : सिक्खों के तीसरे गुरु

विशेष योगदान छूत-अछूत जैसी बुराइयों को दूर करने के लिये 'लंगर परम्परा' चलाई।

नागरिकता : भारतीय

पूर्वाधिकारी : गुरु अंगद देव

उत्तराधिकारी : गुरु रामदास


गुरु अमरदास सिक्खों के तीसरे गुरु थे, जो 73 वर्ष की उम्र में गुरु नियुक्‍त हुए। वे 26 मार्च, 1552 से 1 सितम्बर, 1574 तक गुरु के पद पर आसीन रहे। गुरु अमरदास पंजाब को 22 सिक्‍ख प्रांतों में बांटने की अपनी योजना तथा धर्म प्रचारकों को बाहर भेजने के लिए प्रसिद्ध हुए। वह अपनी बुद्धिमत्‍ता तथा धर्मपरायणता के लिए बहुत सम्‍मानित थे। कहा जाता था कि मुग़ल शंहशाह अकबर उनसे सलाह लेते थे और उनके जाति-निरपेक्ष लंगर में अकबर ने भोजन ग्रहण किया था। गुरु अमरदास के मार्गदर्शन में गोइंदवाल शहर सिक्‍ख अध्‍ययन का केंद्र बना।


💁🏻‍♂️ *परिचय*

गुरु अमर दास जी सिक्ख पंथ के एक महान् प्रचारक थे। जिन्होंने गुरु नानक जी महाराज के जीवन दर्शन को व उनके द्वारा स्थापित धार्मिक विचाराधारा को आगे बढाया। तृतीय नानक' गुरु अमर दास जी का जन्म 5 अप्रैल 1479 अमृतसर के बसरका गाँव में हुआ था। उनके पिता तेज भान भल्ला जी एवं माता बख्त कौर जी एक सनातनी हिन्दू थे। गुरु अमर दास जी का विवाह माता मंसा देवी जी से हुआ था। अमरदास की चार संतानें थी।


⚜️ *समाज सुधार*

गुरु अमरदास जी ने सती प्रथा का प्रबल विरोध किया। उन्होंने विधवा विवाह को बढावा दिया और महिलाओं को पर्दा प्रथा त्यागने के लिए कहा। उन्होंने जन्म, मृत्यु एवं विवाह उत्सवों के लिए सामाजिक रूप से प्रासांगिक जीवन दर्शन को समाज के समक्ष रखा। इस प्रकार उन्होंने सामाजिक धरातल पर एक राष्ट्रवादी व आध्यात्मिक आन्दोलन की छाप छोड़ी। उन्‍होंने सिक्ख धर्म को हिंदू कुरीतियों से मुक्‍त किया, अंतर्जातीय विवाहों को बढ़ावा दिया और विधवाओं के पुनर्विवाह की अनुमति दी। उन्‍होंने हिंदू सती प्रथा का घोर विरोध किया और अपने अनुयायियों के लिए इस प्रथा को मानना निषिद्ध कर दिया।


🍛 *लंगर परम्परा की नींव*

गुरु अमरदास ने समाज में फैले अंधविश्वास और कर्मकाण्डों में फंसे समाज को सही दिशा दिखाने का प्रयास किया। उन्होंने लोगों को बेहद ही सरल भाषा में समझाया की सभी इंसान एक दूसरे के भाई हैं, सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं, फिर ईश्वर अपनी संतानों में भेद कैसे कर सकता है। ऐसा नहीं कि उन्होंने यह बातें सिर्फ उपदेशात्मक रुप में कही हों, उन्होंने इन उपदेशों को अपने जीवन में अमल में लाकर स्वयं एक आदर्श बनकर सामाजिक सद्भाव की मिसाल क़ायम की। छूत-अछूत जैसी बुराइयों को दूर करने के लिये लंगर परम्परा चलाई, जहाँ कथित अछूत लोग, जिनके सामीप्य से लोग बचने की कोशिश करते थे, उन्हीं उच्च जाति वालों के साथ एक पंक्ति में बैठकर भोजन करते थे। गुरु नानक द्वारा शुरू की गई यह लंगर परम्परा आज भी क़ायम है। लंगर में बिना किसी भेदभाव के संगत सेवा करती है। गुरु जी ने जातिगत भेदभाव को दूर करने के लिये एक परम्परा शुरू की, जहाँ सभी जाति के लोग मिलकर प्रभु आराधना करते थे। अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने हर उस व्यक्ति का आतिथ्य स्वीकार किया, जो भी उनका प्रेम पूर्वक स्वागत करता था। तत्कालीन सामाजिक परिवेश में गुरु जी ने अपने क्रांतिकारी क़दमों से एक ऐसे भाईचारे की नींव रखी, जिसके लिये धर्म तथा जाति का भेदभाव बेमानी था।


👑 *गुरुपद*

गुरु अमरदास आरंभ में वैष्णव मत के थे और खेती तथा व्यापार से अपनी जीविका चलाते थे। एक बार इन्हें गुरु नानक का पद सुनने को मिला। उससे प्रभावित होकर अमरदास सिक्खों के दूसरे गुरु अंगद के पास गए और उनके शिष्य बन गए। गुरु अंगद ने 1552 में अपने अंतिम समय में इन्हें गुरुपद प्रदान किया। उस समय अमरदास की उम्र 73 वर्ष की थी। परंतु अगंद के पुत्र दातू ने इनका अपमान किया।                                             ✍️ *रचना*

अमरदास के कुछ पद गुरु ग्रंथ साहब में संग्रहीत हैं। इनकी एक प्रसिद्ध रचना 'आनंद' है, जो उत्सवों में गाई जाती है। इन्हीं के आदेश पर चौथे गुरु रामदास ने अमृतसर के निकट 'संतोषसर' नाम का तालाब खुदवाया था, जो अब गुरु अमरदास के नाम पर अमृतसर के नाम से प्रसिद्ध है।


🪔 *निधन*

गुरु अमरदास का निधन 1 सितम्बर, 1574 को अमृतसर में हुआ था।

 

    

अरविंद घोष..

 अरविंद घोष हे भारतीय स्वातंत्र्यसैनिक, तत्त्वज्ञानी, योगी आणि कवी होते. ते भारतीय राष्ट्रवादी चळवळीतील एक महत्त्वाचे नेते होते. त्यांचा जन्म १५ ऑगस्ट १८७२ रोजी कोलकाता येथे झाला.

प्रारंभिक जीवन आणि शिक्षण:

 * अरविंद घोष यांचे वडील कृष्णधन घोष हे डॉक्टर होते.

 * त्यांचे सुरुवातीचे शिक्षण दार्जिलिंग येथील लोरेटो कॉन्व्हेंट स्कूलमध्ये झाले.

 * उच्च शिक्षणासाठी ते इंग्लंडला गेले, जिथे त्यांनी केंब्रिज विद्यापीठात शिक्षण घेतले.

 * इंग्लंडमध्ये असताना त्यांनी भारतीय स्वातंत्र्यलढ्याबद्दल विचार करायला सुरुवात केली.

राजकीय जीवन:

 * भारतात परतल्यावर अरविंद घोष यांनी बडोदा संस्थानात नोकरी केली.

 * ते भारतीय राष्ट्रवादी चळवळीत सक्रिय झाले आणि त्यांनी 'वंदे मातरम्' हे वृत्तपत्र सुरू केले.

 * ते जहाल गटाचे नेते होते आणि त्यांनी ब्रिटिशांविरुद्ध अधिक आक्रमक भूमिका घेतली.

 * १९०८ मध्ये, अलीपूर बॉम्ब प्रकरणात त्यांना अटक करण्यात आली, परंतु नंतर त्यांची निर्दोष सुटका झाली.

आध्यात्मिक जीवन:

 * १९१० मध्ये, अरविंद घोष यांनी सक्रिय राजकारणातून निवृत्ती घेतली आणि ते पांडिचेरीला गेले.

 * तेथे त्यांनी 'अरविंदो आश्रम' स्थापन केला आणि योगाभ्यासात मग्न झाले.

 * त्यांनी 'द लाईफ डिव्हाईन', 'द सिंथेसिस ऑफ योगा' आणि 'सावित्री' यांसारखे अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिहिले.

विचार आणि योगदान:

 * अरविंद घोष यांनी भारतीय तत्त्वज्ञान आणि योग यांवर आधारित एक नवीन आध्यात्मिक विचारसरणी विकसित केली.

 * त्यांनी मानवी चेतनेच्या विकासावर भर दिला आणि 'सुपरमाइंड' या संकल्पनेचा पुरस्कार केला.

 * त्यांचे विचार आजही लोकांना प्रेरणा देतात.

मृत्यू:

 * ५ डिसेंबर १९५० रोजी पांडिचेरी येथे त्यांचे निधन झाले.

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