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समाजकारण /राजकारण

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अरविंद घोष..

 अरविंद घोष हे भारतीय स्वातंत्र्यसैनिक, तत्त्वज्ञानी, योगी आणि कवी होते. ते भारतीय राष्ट्रवादी चळवळीतील एक महत्त्वाचे नेते होते. त्यांचा जन्म १५ ऑगस्ट १८७२ रोजी कोलकाता येथे झाला.

प्रारंभिक जीवन आणि शिक्षण:

 * अरविंद घोष यांचे वडील कृष्णधन घोष हे डॉक्टर होते.

 * त्यांचे सुरुवातीचे शिक्षण दार्जिलिंग येथील लोरेटो कॉन्व्हेंट स्कूलमध्ये झाले.

 * उच्च शिक्षणासाठी ते इंग्लंडला गेले, जिथे त्यांनी केंब्रिज विद्यापीठात शिक्षण घेतले.

 * इंग्लंडमध्ये असताना त्यांनी भारतीय स्वातंत्र्यलढ्याबद्दल विचार करायला सुरुवात केली.

राजकीय जीवन:

 * भारतात परतल्यावर अरविंद घोष यांनी बडोदा संस्थानात नोकरी केली.

 * ते भारतीय राष्ट्रवादी चळवळीत सक्रिय झाले आणि त्यांनी 'वंदे मातरम्' हे वृत्तपत्र सुरू केले.

 * ते जहाल गटाचे नेते होते आणि त्यांनी ब्रिटिशांविरुद्ध अधिक आक्रमक भूमिका घेतली.

 * १९०८ मध्ये, अलीपूर बॉम्ब प्रकरणात त्यांना अटक करण्यात आली, परंतु नंतर त्यांची निर्दोष सुटका झाली.

आध्यात्मिक जीवन:

 * १९१० मध्ये, अरविंद घोष यांनी सक्रिय राजकारणातून निवृत्ती घेतली आणि ते पांडिचेरीला गेले.

 * तेथे त्यांनी 'अरविंदो आश्रम' स्थापन केला आणि योगाभ्यासात मग्न झाले.

 * त्यांनी 'द लाईफ डिव्हाईन', 'द सिंथेसिस ऑफ योगा' आणि 'सावित्री' यांसारखे अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिहिले.

विचार आणि योगदान:

 * अरविंद घोष यांनी भारतीय तत्त्वज्ञान आणि योग यांवर आधारित एक नवीन आध्यात्मिक विचारसरणी विकसित केली.

 * त्यांनी मानवी चेतनेच्या विकासावर भर दिला आणि 'सुपरमाइंड' या संकल्पनेचा पुरस्कार केला.

 * त्यांचे विचार आजही लोकांना प्रेरणा देतात.

मृत्यू:

 * ५ डिसेंबर १९५० रोजी पांडिचेरी येथे त्यांचे निधन झाले.

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ए. के. गोपालन....

                                                                                                           

                *ए. के. गोपालन*

      (स्वतंत्रता सेनानी, कम्युनिस्ट नेता)

            *जन्म : 1 अक्टूबर, 1904*

            (कन्नूर, केरल)

           *मृत्यु : 22 मार्च 1977*

           (तिरुवनंतपुरम, केरल)

पत्नी : सुशीला गोपालन

नागरिकता : भारतीय

प्रसिद्धि : कम्युनिस्ट नेता

पार्टी : भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी)

जेल यात्रा : 1932 में दक्षिण के प्रसिद्ध मन्दिर गुरुवयूर में सबके प्रवेश के लिए जो सत्याग्रह चला, उसमें भी गोपालन गिरफ्तार हुए।

अन्य जानकारी : ए. के. गोपालन 1952, 1957, 1962 और 1971 के चुनावों में वे लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए थे।

             ए. के. गोपालन भारत के स्वतंत्रता सेनानियों में से एक और केरल के प्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता थे। इन्होंने सात वर्ष तक अध्यापन कार्य भी किया था। निर्धन छात्रों के लिए वे अलग से कक्षाएँ लगाते थे। जब महात्मा गाँधी ने 'सत्याग्रह आन्दोलन' शुरू किया, तब ए. के. गोपालन ने अध्यापक का पद त्याग दिया। वर्ष 1934 में कांग्रेस समाजवादी पार्टी बनने पर वे उसके सदस्य बन गए थे। बाद में उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली। 1964 में जब कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हुआ तो गोपालन ने कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) में रहना पसन्द किया। अपनी आत्मकथा सहित उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखी हैं।

💁🏻‍♂️ *संक्षिप्त परिचय*

ए. के. गोपालन केरल के महान् नेता थे। उनका जन्म 1 अक्टूबर, 1902 ई. में केरल के कन्नूर में हुआ था। उन्होंने अपने जीवन का आरम्भ एक स्कूली शिक्षक के रूप में किया। वे समाज सुधारक भी थे तथा निम्न वर्गों की स्थिति में सुधार करना चाहते थे। 1932 ई. में 'गुरुवायूर सत्याग्रह' में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही तथा मन्दिर प्रवेश के मुद्दे पर उनकी पिटाई भी हुई। इसके पश्चात्त गोपालन ने पूरे केरल में जनजागरण यात्राएँ कीं। बाद में उनका झुकाव कम्युनिज़्म की तरफ होने लगा तथा वे केरल के सबसे लोकप्रिय कम्युनिस्ट नेता बने। केरल में काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही थी। उन्होंने ट्रावनकोर के दीवान सी. पी. रामास्वामी अय्यर की निरंकुशता के विरुद्ध जन आन्दोलनों का संचालन किया। स्वतंत्रता के बाद भी वे केरल की राजनीति में सक्रिय रहे।

💥 *क्रांतिकारी गतिविधि*

शिक्षा पूरी करने के बाद ए. के. गोपालन ने सात वर्ष तक एक अध्यापक के रूप में भी का काम किया। देशभक्ति की भावना उनके अन्दर आरम्भ से ही थी। पिछड़े वर्ग के छात्रों के लिए वे अलग से कक्षाएँ लगाते और खादी का प्रचार करते थे। 1930 में जब गांधीजी ने 'नमक सत्याग्रह' आरम्भ किया, तो गोपालन ने अध्यापक का पद त्याग दिया और सत्याग्रह में भाग लेने के कारण गिरफ्तार कर लिए गए। 1932 में दक्षिण के प्रसिद्ध मन्दिर गुरुवयूर में सबके प्रवेश के लिए जो सत्याग्रह चला, उसमें भी गोपालन गिरफ्तार हुए।

👫 *विवाह*

इसी समय उनके निजी जीवन में एक घटना घटी। पिता ने पहले ही उनका विवाह कर दिया था, जिससे वे स्थिर रहकर कोई काम कर सकें। परन्तु ए. के. गोपालन की राजनीति और समाज सुधार की गतिविधियाँ देखकर पत्नी के चाचा 1932 में अपनी भतीजी को बलपूर्वक सदा के लिए गोपालन के घर से ले गए। ए. के. गोपालन ने 1952 में दूसरा विवाह कर लिया। उनकी पत्नी सुशीला गोपालन भी 1967 से 1971 तक लोकसभा की सदस्या रहीं।

🛠️ *भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी)*

ए. के. गोपालन ने 1932-1933 के 'असहयोग आन्दोलन' में भाग लिया और 1934 में कांग्रेस समाजवादी पार्टी बनने पर वे उसके सदस्य बन गए। बाद में इस पार्टी के केरल के सब सदस्यों ने कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली। गोपालन ने किसानों और मज़दूरों को संगठित करने में अपनी शक्ति लगाई। इसमें इन्होंने केरल के कन्नूर से मद्रास तक 750 मील लम्बे मोर्चे का नेतृत्व किया था। कम्युनिस्ट पार्टी में सम्मिलित होने के बाद गोपालन भूमिगत हो गए थे। मार्च, 1941 में गिरफ्तार करके जब इन्हें जेल में बन्द कर दिया गया तो, सितम्बर में वे जेल तोड़कर बाहर निकल आए। फिर 5 वर्ष तक भूमिगत रहकर काम करते रहे। स्वतंत्रता के बाद भी उन्हें 1947 में नज़रबन्दी क़ानून में गिरफ्तार किया गया। किन्तु हाईकोर्ट के निर्णय पर वे रिहा हो गए।

⚜️ *लोकसभा की सदस्यता*

इसके बाद ए. के. गोपालन की लोकसभा की सदस्यता का लम्बा दौर चला। 1952, 1957, 1962 और 1971 के चुनावों में वे लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए। 1964 में जब कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हुआ तो गोपालन ने कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) में रहना पसन्द किया।

🕯️ *निधन*

ए. के. गोपालन का निधन 22 मार्च, 1977, 'तिरुवनंतपुरम मेडिकल कॉलेज' में हुआ। उन्होंने रूस सहित अनेक देशों की यात्रा की थी। अपनी आत्मकथा सहित उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखी हैं। 

                                           

     

हनुमान प्रसाद पोद्दार

   


           *हनुमान प्रसाद पोद्दार*

             (स्वतंत्रता सेनानी)

              *जन्म : 1892*

          (जन्म भूमि राजस्थान)

       *मृत्यु : 22 मार्च 1971*

अभिभावक : लाला भीमराज अग्रवाल' और रिखीबाई

कर्म भूमि : भारत

कर्म-क्षेत्र : स्वतंत्रता सेनानी

प्रसिद्धि : गीता प्रेस गोरखपुर के संस्थापक

विशेष योगदान : 1906 में उन्होंने कपड़ों में गाय की चर्बी के प्रयोग किए जाने के ख़िलाफ़ आंदोलन चलाया और विदेशी वस्तुओं और विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के लिए संघर्ष छेड़ दिया।

नागरिकता : भारतीय

अन्य जानकारी : अपने जीवन-काल में पोद्दार जी ने 25 हज़ार से ज़्यादा पृष्ठों का साहित्य-सृजन किया।

                   हनुमान प्रसाद पोद्दार का नाम गीता प्रेस स्थापित करने के लिये भारत व विश्व में प्रसिद्ध है। भारतीय अध्यात्मिक जगत पर हनुमान पसाद पोद्दार नाम का एक ऐसा सूरज उदय हुआ, जिसकी वजह से देश के घर-घर में गीता, रामायण, वेद और पुराण जैसे ग्रंथ पहुँचे सके। आज 'गीता प्रेस गोरखपुर' का नाम किसी भी भारतीय के लिए अनजाना नहीं है। सनातन हिंदू संस्कृति में आस्था रखने वाला दुनिया में शायद ही कोई ऐसा परिवार होगा, जो गीता प्रेस गोरखपुर के नाम से परिचित नहीं होगा। इस देश में और दुनिया के हर कोने में रामायण, गीता, वेद, पुराण और उपनिषद से लेकर प्राचीन भारत के ऋषियों -मुनियों की कथाओं को पहुँचाने का एक मात्र श्रेय गीता प्रेस गोरखपुर के संस्थापक हनुमान प्रसाद पोद्दार को है। प्रचार-प्रसार से दूर रहकर एक अकिंचन सेवक और निष्काम कर्मयोगी की तरह पोद्दार जी ने हिंदू संस्कृति की मान्यताओं को घर-घर तक पहुँचाने में जो योगदान दिया है, इतिहास में उसकी मिसाल मिलना ही मुश्किल है।


💁🏻‍♂️ *जीवन परिचय*

                       भारतीय पंचांग के अनुसार विक्रम संवत के वर्ष 1949 में अश्विन कृष्ण की प्रदोष के दिन उनका जन्म हुआ। राजस्थान के रतनगढ़ में 'लाला भीमराज अग्रवाल' और उनकी पत्नी 'रिखीबाई' हनुमान के भक्त थे, तो उन्होंने अपने पुत्र का नाम 'हनुमान प्रसाद' रख दिया। दो वर्ष की आयु में ही इनकी माता का स्वर्गवास हो जाने पर इनका पालन-पोषण इनकी दादी ने किया। दादी के धार्मिक संस्कारों के बीच बालक हनुमान को बचपन से ही गीता, रामायण वेद, उपनिषद और पुराणों की कहानियाँ पढ़ने - सुनने को मिली। इन संस्कारों का बालक पर गहरा असर पड़ा। बचपन में ही इन्हें हनुमान कवच का पाठ सिखाया गया। निंबार्क संप्रदाय के 'संत ब्रजदास' जी ने बालक को दीक्षा दी।


🙋🏻‍♂️ *स्वतंत्रता आन्दोलन का प्रभाव*

                            उस समय देश ग़ुलामी की जंज़ीरों मे जकड़ा हुआ था। इनके पिता अपने कारोबार का वजह से कलकत्ता में थे और ये अपने दादा जी के साथ असम में। कलकत्ता में ये स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारियों अरविंद घोष, देशबंधु चितरंजन दास, पं, झाबरमल शर्मा के संपर्क में आए और आज़ादी आंदोलन में कूद पड़े। इसके बाद लोकमान्य तिलक और गोपालकृष्ण गोखले जब कलकत्ता आए तो पोद्दार जी उनके संपर्क में आए इसके बाद उनकी मुलाकात गाँधी जी से हुई। वीर सावरकर द्वारा लिखे गए '1857 का स्वातंत्र्य समर ग्रंथ' से पोद्दार जी बहुत प्रभावित हुए और 1938 में वे वीर सावरकर से मिलने के लिए मुंबई चले आए। 1906 में उन्होंने कपड़ों में गाय की चर्बी के प्रयोग किए जाने के ख़िलाफ़ आंदोलन चलाया और विदेशी वस्तुओं और विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के लिए संघर्ष छेड़ दिया। युवावस्था में ही उन्होंने खादी और स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना शुरू कर दिया। विक्रम संवत 1971 में जब महामना पं. मदन मोहन मालवीय बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए धन संग्रह करने के उद्देश्य से कलकत्ता आए तो पोद्दार जी ने कई लोगों से मिलकर इस कार्य के लिए दान-राशि दिलवाई।


⛓️ *आन्दोलन और जेल*

                   कलकत्ता में आज़ादी आंदोलन और क्रांतिकारियों के साथ काम करने के एक मामले में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने हनुमान प्रसाद पोद्दार सहित कई प्रमुख व्यापारियों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। इन लोगों ने ब्रिटिश सरकार के हथियारों के एक जख़ीरे को लूटकर उसे छिपाने में मदद की थी। जेल में पोद्दार जी ने हनुमान जी की आराधना करना शुरू कर दी। बाद में उन्हें अलीपुर जेल में नज़रबंद कर दिया गया। नज़रबंदी के दौरान पोद्दार जी ने समय का भरपूर सदुपयोग किया। वहाँ वे अपनी दिनचर्या सुबह तीन बजे शुरू करते थे और पूरा समय परमात्मा का ध्यान करने में ही बिताते थे। बाद में उन्हें नजरबंद रखते हुए पंजाब की शिमलपाल जेल में भेज दिया गया। वहाँ कैदी मरीज़ों के स्वास्थ्य की जाँच के लिए एक होम्योपैथिक चिकित्सक जेल में आते थे, पोद्दार जी ने इस चिकित्सक से होम्योपैथी की बारीकियाँ सीख ली और होम्योपैथी की किताबों का अध्ययन करने के बाद ख़ुद ही मरीज़ों का इलाज करने लगे। बाद में वे जमनालाल बजाज की प्रेरणा से मुंबई चले आए। यहाँ वे वीर सावरकर, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, महादेव देसाई और कृष्णदास जाजू जैसी विभूतियों के निकट संपर्क में आए।


♦️ *खादी प्रचार मंडल*

               मुंबई में उन्होंने अग्रवाल नवयुवकों को संगठित कर मारवाड़ी खादी प्रचार मंडल की स्थापना की। इसके बाद वे प्रसिद्ध संगीताचार्य विष्णु दिगंबर के सत्संग में आए और उनके हृदय में संगीत का झरना बह निकला। फिर उन्होंने भक्ति गीत लिखे जो 'पत्र-पुष्प' के नाम से प्रकाशित हुए। मुंबई में वे अपने मौसेरे भाई जयदयाल गोयन्का जी के गीता पाठ से बहुत प्रभावित थे। उनके गीता के प्रति प्रेम और लोगों की गीता को लेकर जिज्ञासा को देखते हुए भाई जी ने इस बात का प्रण किया कि वे श्रीमद् भागवद्गीता को कम से कम मूल्य पर लोगों को उपलब्ध कराएंगे।


        

मानवेन्द्र नाथ राय...

  


           *मानवेन्द्र नाथ राय*

           ( भारतीय क्रांतिकारी )


      *जन्म : 21 मार्च, 1887*

             (पश्चिम बंगाल)


    *मृत्यु : 26 जनवरी, 1954*

                   (देहरादून)

पूरा नाम : मानवेन्द्र नाथ राय

अन्य नाम : नरेन्द्र नाथ भट्टाचार्य


नागरिकता : भारतीय


प्रसिद्धि : दार्शनिक, क्रान्तिकारी विचारक


आंदोलन : 1905 ई. में 'बंगाल विभाजन' के विरुद्ध हुए आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया।


जेल यात्रा : 'कानपुर षड़यंत्र केस' में आपको छह वर्ष जेल की सज़ा हुई थी।


विशेष योगदान : आपने भारत में 'कम्युनिस्ट पार्टी' की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।


अन्य जानकारी : मानवेन्द्र नाथ राय सशक्त संघर्ष द्वारा भारत को विदेशी शासन से स्वतंत्र कराना चाहते थे। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने अनेक वर्षों तक जर्मनी, रूस, चीन, अमेरिका, मैक्सिको आदि देशों की यात्राएँ भी कीं।


 मानवेंद्रनाथ राय (1887–1954) भारत के स्वतंत्रता-संग्राम के राष्ट्रवादी क्रान्तिकारी तथा विश्वप्रसिद्ध राजनीतिक सिद्धान्तकार थे। उनका मूल नाम 'नरेन्द्रनाथ भट्टाचार्य' था। वे मेक्सिको और भारत दोनों के ही कम्युनिस्ट पार्टियों के संस्थापक थे। वे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की कांग्रेस के प्रतिनिधिमण्डल में भी सम्मिलित थे।


💁‍♂ *परिचय*

                         मानवेन्द्रनाथ का जन्म कोलकाता के निकट एक गाँव में हुआ था।। आपका मूल नाम नरेन्द्रनाथ भट्टाचार्य था, जिसे बाद में बदलकर आपने मानवेंद्र राय रखा। तत्कालीन बंगाल में राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन की लहर चल रही थी, ऐसे समय में राजनीतिक बोध होना स्वाभाविक था। इस प्रकार प्रारम्भिक अवस्था में ही वे राष्ट्रवादी विचारों के सम्पर्क में आए। राय के जीवनी लेखक ‘मुंशी और दीक्षित’ के अनुसार, ‘‘राय का जीवन स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ और स्वामी दयानन्द से प्रभावित रहा। इन सन्तों और सुधारकों के अतिरिक्त उनके जीवन पर विपिन चन्द्र पाल और विनायक दामोदर सावरकर का अमिट प्रभाव पड़ा। शिक्षण के आरंभिक काल में ही आप क्रांतिकारी आंदोलन में रुचि लेने लगे थे। यही कारण है कि आप मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण करने के पूर्व ही क्रांतिकारी आंदोलन में कूद पड़े।

                 पुलिस आपकी तलाश कर ही रही थी कि आप दक्षिण-पूर्वी एशिया की ओर निकल गए। जावा सुमात्रा से अमरीका पहुँच गए और वहाँ आतंकवादी गतिविधि का त्याग कर मार्क्सवादी विचारधारा के समर्थक बन गए। उनके विचारों की यात्रा का आरम्भ अमरीका में मार्क्सवादी विचारधारा से हुआ क्योंकि उस समय वे लेनिन के विचारों से प्रभावित थे। मैक्सिकों की क्रांति में आपने ऐतिहासिक योगदान किया, जिससे आपकी प्रसिद्धि अंतरर्राष्ट्रीय स्तर पर हो गई। आपके कार्यों से प्रभावित होकर थर्ड इंटरनेशनल में आपको आमंत्रित किया गया था और उन्हें उसके अध्यक्षमंडल में स्थान दिया गया। 1921 में वे मास्को के प्राच्य विश्वविद्यालय के अध्यक्ष नियुक्त किए गए। 1921 से 1928 के बीच उन्होंने कई पत्रों का संपादन किया, जिनमें 'वानगार्ड' और 'मासेज़' मुख्य थे। सन् 1927 ई. में चीनी क्रांति के समय आपको वहाँ भेजा गया किंतु आपके स्वतंत्र विचारों से वहाँ के नेता सहमत न हो सके और मतभेद उत्पन्न हो गया। रूसी नेता इसपर आपसे क्रुद्ध हो गए और स्टालिन के राजनीतिक कोप का आपको शिकार बनना पड़ा। विदेशों में आपकी हत्या का कुचक्र चला। जर्मनी में आपको विष देने की चेष्टा की गई पर सौभाग्य से आप बच गए।

                इधर देश में आपकी क्रांतिकारी गतिविधि के कारण आपकी अनुपस्थिति में कानपुर षड्यंत्र का मुकदमा चलाया गया। ब्रिटिश सरकार के गुप्तचर आप पर कड़ी नजर रखे हुए थे, फिर भी 1930 में आप गुप्त रूप से भारत लौटने में सफल हो गए। मुंबई आकर आप डाक्टर महमूद के नाम से राजनीतिक गतिविधि में भाग लेने लगे। 1931 में आप गिरफ्तार कर लिए गए। छह वर्षों तक कारावास जीवन बिताने पर 20 नवम्बर 1936 को आप जेल से मुक्त किए गए। कांग्रेस की नीतियों से आपका मतभेद हो गया था। आपने रेडिकल डिमोक्रेटिक पार्टी की स्थापना की थी। सक्रिय राजनीति से अवकाश ग्रहण कर आप जीवन के अंतिम दिनों में देहरादून में रहने लगे और यहीं 26 जनवरी 1954 को आपका निधन हुआ।


⚓ *दर्शन एवं चिन्तन*

                       मानवेन्द्र नाथ राय का आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिंतन में विशिष्ट स्थान है। राय का राजनीतिक चिंतन लम्बी वैचारिक यात्रा का परिणाम है। वे किसी विचारधारा से बंधे हुए नहीं रहे। उन्होंने विचारों की भौतिकवादी आधार भूमि और मानव के अस्तित्व के नैतिक प्रयोजनों के मध्य समन्वय करना आवश्यक समझा। जहाँ उन्होंने पूँजीवादी व्यवस्था की कटु आलोचना की, वहीं मार्क्सवाद की आलोचना में भी पीछे नहीं रहे। राय ने सम्पूर्ण मानवीय दर्शन की खोज के प्रयत्न के क्रम में यह निष्कर्ष निकाला कि विश्व की प्रचलित आर्थिक और राजनीतिक प्रणालियाँ मानव के समग्र कल्याण को सुनिश्चित नहीं करतीं। पूँजीवाद, मार्क्सवाद, गाँधीवाद तथा अन्य विचारधाओं में उन्होंने ऐसे तत्वों को ढूँढ निकाला जो किसी न किसी रूप में मानव की सत्ता, स्वतंत्रता, तथा स्वायत्तता पर प्रतिबन्ध लगाते हैं।


                     राय ने अपने नवीन मानववादी दर्शन से मानव को स्वयं अपना केन्द्र बताकर मानव की स्वतंत्रता एवं उसके व्यक्तित्व की गरिमा का प्रबल समर्थन किया है। वस्तुतः बीसवीं सदी में फासीवादी तथा साम्यवादी समग्रतावादी राज्य-व्यवस्थाओं ने व्यक्ति की स्वतन्त्रता एवं व्यक्तित्व का दमन किया और उदारवादी लोकतन्त्र में मानव-कल्याण के नाम पर निरन्तर बढ़ती केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति से सावधान किया। राय ने व्यक्ति की स्वतन्त्रता एवं व्यक्तित्व की गरिमा के पक्ष में जो उग्र बौद्धिक विचार दिये हैं, उनका आधुनिक युग के लिए विशिष्ट महत्व है।


✍ *कृतियाँ*

                       आपने मार्क्सवादी राजनीति विषयक लगभग ८० पुस्तकों को लिखा है जिनमें 'रीजन, रोमांटिसिज्म ऐंड रिवॉल्यूशन, हिस्ट्री ऑव वेस्टर्न मैटोरियलिज्म, रशन रिवॉल्यूशन, रिवाल्यूशन ऐंड काउंटर रिवाल्यूशन इन चाइना' तथा 'रैडिकल ह्यूमैनिज्म' प्रसिद्ध हैं। 

 

📚 *उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं:*


(1) दी वे टू डयूरेबिल पीस


(2) वन ईयर ऑफ नॉन-कोऑपरेशन


(3) दी रिवोल्यूशन एण्ड काउण्टर रिवोल्यूशन इन चाइना


(4) रीज़न, रोमाण्टिसिज़्म एण्ड रिवोल्यूशन


(5) इण्डियान इन ट्रांज़ीशन


(6) इंडियन प्रॉबलम्स एण्ड देयर सोल्यूशन्स


(7) दी फ्यूचर ऑफ इण्डियन पॉलिटिक्स


(8) हिस्टोरिकल रोल ऑफ इस्लाम


(9) फासिज्म : इट्स फिलॉसफी, प्रोफेशन्स एण्डप्रैक्टिस


(10) मैटिरियलिज़्म


(11) न्यू ओरियन्टेशन


(12) बियोन्ड कम्यूनिस्म टू ह्यूमेनिज्म


(13) न्यू ह्यूमेनिज्म एण्ड पॉलिटिक्स


(14) पॉलिटिक्स, पावर एण्ड पार्टीज़


(15) दी प्रिंसिपल्स ऑफ रेडिकल डेमोक्रेसी


(16) कॉन्स्टीट्यूशन ऑफ फ्री इण्डिया


(17) रेडिकल ह्यूमेनिज्म


(18) अवर डिफरेन्सेज़


(19) साइन्स एण्ड फिलॉसफी


(20) ट्वेण्टि टू थीसिस


         🇮🇳 *जयहिंद* 🇮🇳



मास्टर दा सूर्य सेन

 

           *मास्टर दा सूर्य सेन* (चटगांव सशस्त्र क्रांति के नायक)

                                                                     *जन्म : 22 मार्च, 1894*

(चटगाँव, अविभाजित बंगाल, ब्रिटिश भारत)

                                                                        *मृत्यु : 12 जनवरी, 1934*

(बंगाल, आज़ाद भारत) अन्य नाम : मास्टर सूर्य सेन अभिभावक : रामनिरंजन

नागरिकता : भारतीय

प्रसिद्धि : स्वतंत्रता सेनानी

विद्यालय : 'बहरामपुर कॉलेज', बहरामपुर

शिक्षा : बी. ए.

विशेष योगदान : वर्ष 1923 तक मास्टर सूर्य सेन ने चटगाँव के कोने-कोने में क्रांति की अलख जगा दी थी।

अन्य जानकारी : आपने 23 दिसम्बर, 1923 को चटगाँव में आसाम-बंगाल रेलवे के ट्रेजरी ऑफिस को लूटा। उन्हें सबसे बड़ी सफलता 'चटगाँव आर्मरी रेड' के रूप में मिली थी।

                                             भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले प्रसिद्ध क्रांतिकारियों और अमर शहीदों में गिने जाते हैं। भारत भूमि पर अनेकों शहीदों ने क्रांति की वेदी पर अपने प्राणों की आहुति देकर आज़ादी की राहों को रोशन किया है। इन्हीं में से एक सूर्य सेन 'नेशनल हाईस्कूल' में उच्च स्नातक शिक्षक के रूप में कार्यरत थे, जिस कारण लोग उन्हें प्यार से 'मास्टर दा' कहते थे। "चटगाँव आर्मरी रेड" के नायक मास्टर सूर्य सेन ने अंग्रेज़ सरकार को सीधे चुनौती दी थी। सरकार उनकी वीरता और साहस से इस प्रकार हिल गयी थी की जब उन्हें पकड़ा गया, तो उन्हें ऐसी हृदय विदारक व अमानवीय यातनाएँ दी गईं, जिन्हें सुनकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। 🔥 *क्रांतिकारी गतिविधियाँ*

युवा सूर्य सेन के हृदय में स्वतंत्रता प्राप्ति की भावना दिन-प्रतिदिन बलवती होती जा रही थी। इसीलिए वर्ष 1918 में चटगाँव वापस आकर उन्होंने स्थानीय स्तर पर युवाओं को संगठित करने के लिए "युगांतर पार्टी" की स्थापना की" अधिकतर लोग यह मानते थे कि तत्कालीन युवा वर्ग केवल हिंसात्मक संघर्ष ही करना चाहता था, जो कि पूर्णत: गलत था। स्वयं सूर्य सेन ने भी जहाँ एक और युवाओं को संगठित किया, वहीँ वह 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' जैसे अहिंसक दल के साथ भी जुड़े थे। वे 'भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस' की चटगाँव ज़िला कमेटी के अध्यक्ष भी चुने गए थे। अपने देशप्रेमी संगठन के कार्य के साथ ही साथ वह नंदनकानन के सरकारी स्कूल में शिक्षक भी नियुक्त हुए और यहीं से "मास्टर दा" के नाम से लोकप्रिय हो गए। नंदनकानन के बाद में वह चन्दनपुरा के 'उमात्रा स्कूल' के भी शिक्षक रहे।


💥 *गुरिल्ला युद्ध का निश्चय*

वर्ष 1923 तक "मास्टर दा" ने चटगाँव के कोने-कोने में क्रांति की अलख जगा दी। साम्राज्यवादी सरकार क्रूरतापूर्वक क्रांतिकारियों के दमन में लगी हुई थी। साधनहीन युवक एक ओर अपनी जान हथेली पर रखकर निरंकुश साम्राज्य से सीधे संघर्ष रहे थे तो वहीं दूसरी और उन्हें धन और हथियारों की कमी भी सदा बनी रहती थी। इसी कारण मास्टर सूर्य सेन ने सीमित संसाधनों को देखते हुए सरकार से गुरिल्ला युद्ध करने का निश्चय किया और अनेक क्रांतिकारी घटनाओं को अंजाम दिया। उन्हें पहली सफलता तब मिली, जब उन्होंने दिन-दहाड़े 23 दिसम्बर, 1923 को चटगाँव में आसाम-बंगाल रेलवे के ट्रेजरी ऑफिस को लूटा। किन्तु उन्हें सबसे बड़ी सफलता 'चटगाँव आर्मरी रेड' के रूप में मिली, जिसने अंग्रेज़ सरकार को झकझोर कर रख दिया। यह सरकार को खुला सन्देश था की भारतीय युवा मन अब अपने प्राण देकर भी दासता की बेड़ियों को तोड़ देना चाहता है।


🌀 *'भारतीय प्रजातान्त्रिक सेना' का गठन*

सूर्य सेन ने युवाओं को संगठित कर "भारतीय प्रजातान्त्रिक सेना" नामक एक सेना का संगठन किया। उनके नेतृत्व में क्रांतिकारियों के दल ने, जिसमें गणेश घोष, लोकनाथ बल, निर्मल सेन, अम्बिका चक्रवर्ती, नरेश राय, शशांक दत्त, अरधेंधू दस्तीदार, तारकेश्वर दस्तीदार, हरिगोपाल बल, अनंत सिंह, जीवन घोषाल और आनंद गुप्ता जैसे वीर युवक और प्रीतिलता वादेदार व कल्पना दत्त जैसी वीर युवतियाँ भी थीं। यहाँ तक की एक चौदह वर्षीय किशोर सुबोध राय भी अपनी जान पर खेलने गया।


🔫 *सैनिक शस्त्रागार की लूट*

पूर्व योजनानुसार 18 अप्रैल, 1930 को सैनिक वस्त्रों में इन युवाओं ने गणेश घोष और लोकनाथ बल के नेतृत्व में दो दल बनाये। गणेश घोष के दल ने चटगाँव के पुलिस शस्त्रागार पर और लोकनाथ जी के दल ने चटगाँव के सहायक सैनिक शस्त्रागार पर कब्ज़ा कर लिया। किन्तु दुर्भाग्यवश उन्हें बंदूकें तो मिलीं, किंतु उनकी गोलियाँ नहीं मिल सकीं। क्रांतिकारियों ने टेलीफ़ोन और टेलीग्राफ़ के तार काट दिए और रेलमार्गों को अवरुद्ध कर दिया। एक प्रकार से चटगाँव पर क्रांतिकारियों का ही अधिकार हो गया। तत्पश्चात् यह दल पुलिस शस्त्रागार के सामने इकठ्ठा हुआ, जहाँ मास्टर सूर्य सेन ने अपनी इस सेना से विधिवत सैन्य सलामी ली, राष्ट्रीय ध्‍वज फहराया और भारत की अस्थायी सरकार की स्थापना की। 🔫 *अंग्रेज़ सैनिकों से संघर्ष*

इस दल को अंदेशा था की इतनी बड़ी घटना पर अंग्रेज़ सरकार तिलमिला जायेगी, इसीलिए वह गोरिल्ला युद्ध हेतु तैयार थे। इसी उद्देश्य के लिए यह लोग शाम होते ही चटगाँव नगर के पास की पहाड़ियों में चले गए, किन्तु स्थिति दिन पर दिन कठिनतम होती जा रही थी। बाहर अंग्रेज़ पुलिस उन्हें हर जगह ढूँढ रही थी। वहीं जंगली पहाड़ियों पर क्रांतिकारियों को भूख-प्यास व्याकुल किये हुए थी। अंतत: 22 अप्रैल, 1930 को हज़ारों अंग्रेज़ सैनिकों ने जलालाबाद पहाड़ियों को घेर लिया, जहाँ क्रांतिकारियों ने शरण ले रखी थी। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी क्रांतिकारियों ने समर्पण नहीं किया और हथियारों से लेस अंग्रेज़ सेना से गोरिल्ला युद्ध छेड़ दिया। इन क्रांतिकारियों की वीरता और गोरिल्ला युद्ध-कोशल का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस जंग में जहाँ 80 से भी ज़्यादा अंग्रेज़ सैनिक मरे गए, वहीं मात्र 12 क्रांतिकार ही शहीद हुए। इसके बाद मास्टर सूर्य सेन किसी प्रकार अपने कुछ साथियों सहित पास के गाँव में चले गए। उनके कुछ साथी कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) चले गए, लेकिन इनमें से कुछ दुर्भाग्य से पकडे भी गए।


अंग्रेज़ पुलिस किसी भी तरह से सूर्य सेन को पकड़ना चाहती थी। वह हर तरफ़ उनकी तलाश कर रही थी। सरकार ने सूर्य सेन पर दस हज़ार रुपये का इनाम भी घोषित कर दिया। जब सूर्य सेन पाटिया के पास एक विधवा स्त्री सावित्री देवी के यहाँ शरण ले रखी थी, तभी 13 जून, 1932 को कैप्टेन कैमरून ने पुलिस व सेना के साथ उस घर को घेर लिया। दोनों और से गोलीबारी हुई, जिसमें कैप्टेन कैमरून मारा गया और सूर्य सेन अपने साथियों के साथ इस बार भी सुरक्षित निकल गए। इतना दमन और कठिनाइयाँ भी इन क्रांतिकारी युवाओं को डिगा नहीं सकीं और जो क्रांतिकारी बच गए थे, उन्होंने दोबारा खुद को संगठित कर लिया और अपनी साहसिक घटनाओं द्वारा सरकार को छकाते रहे। ऐसी अनेक घटनाओं में वर्ष 1930 से 1932 के बीच 22 अंग्रेज़ अधिकारी और उनके लगभग 220 सहायकों की हत्याएँ की गयीं।


⛓️ *मित्र का धोखा और गिरफ्तारी*

इस दौरान मास्टर सूर्य सेन ने अनेक संकट उठाए। उनके अनेक प्रिय साथी पकडे गए और अनेकों ने यातनाएँ सहने के बजाय आत्महत्या कर ली। स्वयं सूर्य सेन एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते रहते और अपनी पहचान छुपाने के लिए नए-नए वेश बनाते। न तो उनके खाने का ठिकाना था और न ही सोने का, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। किन्तु दुर्भाग्यवश उन्हीं का एक धोखेबाज साथी, जिसका नाम नेत्र सेन था, ईनाम के लालच में अंग्रेज़ों से मिल गया। जब मास्टर सूर्य सेन उसके घर में शरण लिए हुए थे, तभी उसकी मुखबिरी पर 16 फ़रवरी, 1933 को उनको पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। इस प्रकार भारत का महान् नायक पकड़ा गया। नेत्र सेन की पत्नी अपने पति के इस दुष्कर्म पर इतनी अधिक दु:खी और लज्जित हुई कि जब उसके घर में उसी के सामने ही एक देशप्रेमी ने उसके पति की हत्या कर दी तो उसने कोई विरोध नहीं किया। यहाँ तक की जब पुलिस जाँच करने आई तो उसने निडरता से कहा- "तुम चाहो तो मेरी हत्या कर दो, किन्तु तब भी मैं अपने पति के हत्यारे का नाम नहीं बताऊँगी, क्योंकि मेरे पति ने सूर्य सेन जैसे भारत माता के सच्चे सपूत को धोखा दिया था, जिसे सभी प्रेम करते हैं और सम्मान देते हैं। ऐसा करके मेरे पति ने भारत माता का शीश शर्म से झुका दिया है।" 🕯️ *शहादत*

सूर्य सेन के प्रमुख साथी तारकेश्वर दस्तीदार ने अब "युगांतर पार्टी" की चटगाँव शाखा का नेतृत्व संभाल लिया। उन्होंने मास्टर सूर्य सेन को अंग्रेज़ों से छुड़ाने की योजना बनाई, लेकिन योजना पर अमल होने से पहले ही यह भेद खुल गया और तारकेश्वर, कल्पना दत्ता व अपने अन्य साथियों के साथ पकड़ लिए गए। सरकार ने सूर्य सेन, तारकेश्वर दस्तीदार और कल्पना पर मुकदमा चलाने के लिए विशेष न्यायालयों की स्थापना की। 12 जनवरी, 1934 को सूर्य सेन को तारकेश्वर के साथ फाँसी की सज़ा दी गई, लेकिन फाँसी से पूर्व उन्हें ऐसी अमानवीय यातनाएँ दी गयीं। निर्दयतापूर्वक हथोड़े से उनके दांत तोड़ दिए गए, नाखून खींच लिए गए, हाथ-पैर जोड़-तोड़ दिए गए और जब वह बेहोश हो गए तो उन्हें अचेतावस्था में ही खींचकर फाँसी के तख्ते तक लाया गया। क्रूरता और अपमान की पराकाष्ठा यह थी की उनकी मृत देह को भी उनके परिजनों को नहीं सोंपा गया और उसे धातु के बक्से में बंद करके 'बंगाल की खाड़ी' में फेंक दिया गया।


📝 *अंतिम पत्र*

मास्टर सूर्य सेन जी ने 11 जनवरी को अपने एक मित्र को अंतिम पत्र लिखा था कि- "मृत्यु मेरा द्वार खटखटा रही है। मेरा मन अनंत की और बह रहा है। मेरे लिए यह वो पल है, जब मैं मृत्यु को अपने परम मित्र के रूप में अंगीकार करूँ। इस सौभाग्यशील, पवित्र और निर्णायक पल में मैं तुम सबके लिए क्या छोड़ कर जा रहा हूँ? सिर्फ़ एक चीज़ - मेरा स्वप्न, मेरा सुनहरा स्वप्न, स्वतंत्र भारत का स्वप्न। प्रिय मित्रों, आगे बढ़ो और कभी अपने कदम पीछे मत खींचना। उठो और कभी निराश मत होना। सफलता अवश्य मिलेगी।" अंतिम समय में भी उनकी आँखें स्वर्णिम भविष्य का स्वप्न देख रही थीं।


🗽 *स्मारक*

चटगाँव की सेन्ट्रल जेल में फाँसी के जिस तख्ते पर सूर्य सेन और तारकेश्वर दस्तीदार को फाँसी दी गयी थी, उसे बंगलादेश की सरकार ने सूर्य सेन जी का स्मारक घोषित किया है।

भारत में कोलकाता मेट्रो के एक स्टेशन का नाम भी उनके नाम पर "मास्टर दा सूर्य सेन" रखा गया है।

सिलीगुड़ी में उनके नाम पर एक पार्क भी है, जिसका नाम "सूर्य सेन पार्क" है और जहाँ उनकी मूर्ती भी स्थापित है।

18 अप्रैल, 2010 को 'चत्तल सेवा समिति' ने बारासात स्टेडियम में सूर्य सेन की कांस्य प्रतिमा स्थापित की, जिसका लोकार्पण मास्टर सूर्य सेन के ही एक साथी विनोद बिहारी चौधरी ने किया था।

2010 में ही प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक आशुतोष गोवारिकर ने 'चटगाँव विद्रोह' पर आधारित मानिनी चटर्जी की पुस्तक "डू एण्ड डाये" (करो और मरो ) पर फ़िल्म बनायी थी, जिसमें सूर्य सेन का किरदार अभिनेता अभिषेक बच्चन और प्रीतिलता जी का किरदार दीपिका पादुकोण ने निभाया।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                           

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प्रीतिलता वड्डेदार ..

 प्रीतिलता वड्डेदार या भारतीय स्वातंत्र्यलढ्यातील एक महत्त्वाच्या क्रांतिकारक होत्या. त्यांनी आपल्या शौर्याने आणि बलिदानाने भारतीय स्वातंत्र्यलढ्यात महत्त्वपूर्ण योगदान दिले.

जन्म आणि शिक्षण:

 * प्रीतिलता वड्डेदार यांचा जन्म ५ मे १९११ रोजी चितगाव (सध्याचे बांगलादेश) येथे झाला.

 * त्यांचे वडील जगबंधू वड्डेदार हे नगरपालिका कार्यालयात लिपिक होते.

 * प्रीतिलता यांनी चितगावच्या डॉ. खस्तागिर शासकीय कन्या विद्यालयात शिक्षण घेतले.

 * त्यांनी १९२८ मध्ये मॅट्रिकची परीक्षा प्रथम श्रेणीत उत्तीर्ण केली.

 * त्यांनी कोलकाता येथील बेथुन कॉलेजमधून तत्त्वज्ञानात पदवी प्राप्त केली.

क्रांतिकारी जीवन:

 * प्रीतिलता वड्डेदार यांनी स्वातंत्र्यलढ्यात सक्रिय सहभाग घेतला.

 * त्यांनी सूर्य सेन यांच्या नेतृत्वाखालील 'इंडियन रिपब्लिकन आर्मी' या क्रांतिकारी संघटनेत प्रवेश केला.

 * त्यांनी चितगाव येथील युरोपियन क्लबवर हल्ला करण्याच्या योजनेत महत्त्वाची भूमिका बजावली.

 * २४ सप्टेंबर १९३२ रोजी त्यांनी युरोपियन क्लबवर हल्ला केला, ज्यात अनेक ब्रिटिश अधिकारी जखमी झाले.

 * पोलिसांनी त्यांना घेरल्यानंतर त्यांनी सायनाइड खाऊन आत्महत्या केली.

योगदान:

 * प्रीतिलता वड्डेदार यांनी आपल्या शौर्याने आणि बलिदानाने भारतीय स्वातंत्र्यलढ्यात महत्त्वपूर्ण योगदान दिले.

 * त्यांनी महिलांना स्वातंत्र्यलढ्यात सहभागी होण्यासाठी प्रेरणा दिली.

 * त्यांचे बलिदान आजही देशभक्तांना प्रेरणा देते.

विशेष गोष्टी:

 * प्रीतिलता वड्डेदार या एक हुशार विद्यार्थिनी आणि लेखिका होत्या.

 * त्यांनी 'अपर्णा' या नावाने लेख लिहिले.

 * त्यांनी भारतीय स्वातंत्र्यलढ्यातील महिलांच्या भूमिकेवर भर दिला.

 * त्यांनी महिलांना शिक्षण आणि समान हक्कांसाठी लढण्याचे आवाहन केले.

प्रीतिलता वड्डेदार यांचे बलिदान भारतीय स्वातंत्र्यलढ्यातील एक प्रेरणादायी घटना आहे.


सुशीला दीदी


      

                 *सुशीला दीदी*

*(स्वाधीनता आंदोलन की वो नायिका, जिसने क्रांतिकारियों के लिए शादी के गहने तक बेच दिये)*

              *जन्म : 5 मार्च 1905*

            (पंजाब प्रांत , ब्रिटिश भारत)

             *मृत्यू : 13 जनवरी 1963*                                                    [(आयु 57 वर्ष) पंजाब , भारत]

राष्ट्रीयता : भारतीय

अन्य नाम : सुशीला दीदी

विद्यालय : आर्य महिला कॉलेज, जालंधर

युग : ब्रिटिश काल

आंदोलन : भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन                                              सुशीला दीदी उन तीन लोगों में शामिल हैं जिनसे भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली की केंद्रीय असेंबली में बम फेंकने से पहले अंतिम मुलाकात की थी। देश ने सुशीला दीदी जैसी सैकड़ों वीरांगनाओं का स्वाधीनता में योगदान तो दूर उनका नाम तक भुला दिया।

                सुशीला दीदी  स्वाधीनता आंदोलन की वो नायिका, जिसने क्रांतिकारियों के लिए शादी के गहने तक बेच दिये

🔰 *स्वाधीनता के लिए पूरी जिंदगी समर्पित रहीं सुशीला दीदी।*

              भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के समय मातृशक्ति जितनी जागृत हुई, उतनी शायद ही कभी रही। भारत को परतंत्रता की बेडिय़ों से मुक्त कराने के लिए देश प्रेमी महिलाओं ने पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के अवसर पर आज हम आपको एक ऐसी ही महिला क्रांतिकारी सुशीला मोहन उर्फ सुशीला दीदी की कहानी बता रहे हैं, जिन्होंने काकोरी कांड में फंसे क्रांतिकारियों को बचाने के लिए अपनी शादी के लिए रखा गया सोना तक बेच दिया था।

               सुशीला का जन्म 5 मार्च, 1905 को पंजाब के दत्तोचूहड़ (वर्तमान में पाकिस्तान) में हुआ था। पिता डाक्टर करमचंद अंग्रेजों की सेना में मेडिकल अफसर थे, किंतु विश्वयुद्ध की विभीषिका को देखकर उन्हें अंग्रेजों से घृणा हो गई। यही कारण रहा कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार द्वारा दी गई राय साहब की उपाधि अस्वीकार कर दी।

              सुशीला जब किशोरावस्था में थीं तभी मां का देहावसान हो गया। दो भाई और तीन बहनों में वह सबसे बड़ी थीं। सुशीला की शिक्षा जालंधर कन्या विद्यालय से हुई और उन्हें देशभक्ति की प्रेरणा इसी विद्यालय की प्राचार्य रहीं कुमारी लज्जावती से मिली।

💥 *क्रांतिकारियों की प्रेरणा बन गया था उनका पंजाबी गीत*

लाला लाजपत राय की गिरफ्तारी से आक्रोशित होकर सुशीला ने एक पंजाबी गीत लिखा- गया ब्याहन आजादी लाडा भारत दा! यह गीत उस समय क्रांतिकारियों का पसंदीदा गीत बन गया था। सुशीला मोहन पढ़ाई के साथ-साथ कई क्रांतिकारी संगठनों से भी जुड़ गईं। इनमें क्रांतिकारियों को गुप्त सूचनाएं पहुंचाना, क्रांति की ज्वाला जनमानस में जगाने के लिए पर्चे आदि बांटना जैसे कार्य शामिल थे।

🧕🏻 *सुशीला मोहन से सुशीला दीदी बनने की कहानी*

सुशीला की देशभक्ति देखकर उनके स्कूल की प्राचार्य लज्जावती ने ही उनकी भेंट दुर्गाभाभी से कराई। धीरे-धीरे दोनों की घनिष्ठता इस कदर बढ़ी कि उनके बीच ननद-भाभी का रिश्ता बन गया। इसके पश्चात सभी क्रांतिकारियों के लिए सुशीला दीदी और दुर्गा भाभी हो गईं।

🔮 *क्रांतिकारियों की फांसी की खबर सुन हो गईं थी बेहोश*

वर्ष 1926 में देहरादून में हुए हिंदी साहित्य सम्मेलन के अवसर पर पहली बार उनकी मुलाकात सरदार भगत सिंह, भगवती चरण वोहरा (दुर्गा भाभी के पति) और बलदेव से हुई। वर्ष 1927 में जब काकोरी कांड के क्रांतिकारियों की फांसी की खबर सुशीला दीदी को लगी तो यह सुनकर ही वह बेहोश हो गई थीं।

📿 *शादी के लिए रखा 10 तोला सोना बेच दिया*

             काकोरी कांड के क्रांतिकारियों को बचाने के लिए सुशीला दीदी ने मां द्वारा उनकी शादी के लिए रखा गया 10 तोला सोना मुकदमे की पैरवी के लिए दे दिया। हांलाकि उनका यह त्याग भी क्रांतिवीरों को फांसी के फंदे से न बचा सका।

📝 *कलकत्ता में की शिक्षिका की नौकरी*

स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के पश्चात सुशीला कलकत्ता (अब कोलकाता) चली गई। वहीं उन्होंने शिक्षिका की नौकरी भी कर ली, लेकिन कलकत्ता में रहते हुए भी वह देश प्रेम से विमुख न हुईं। वह गुप्त रूप से क्रांतिकारियों की मदद करती रहीं।

💥 *असेंबली में बम फेंकने से पूर्व भगत सिंह व बटुकेश्वर से मुलाकात*                                           वर्ष 1928 में सांडर्स वध के बाद भगत सिंह और दुर्गा भाभी जब भेष बदलकर लाहौर (अब पाकिस्तान में) से कलकत्ता पहुंचे तो भगवतीचरण वोहरा और सुशीला दीदी ने स्टेशन पर उनका स्वागत किया। यही नहीं कलकत्ता में उनके ठहरने का इंतजाम भी सुशीला दीदी ने ही किया।

        आठ अप्रैल, 1929 को केंद्रीय असेंबली, दिल्ली में बम फेंकने से पूर्व भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त जिन तीन लोगों से मिले थे, उनमें दुर्गा भाभी, भाई भगवती चरण और सुशीला दीदी का नाम शामिल था।

🌀 *भगत सिंह को बचाने के लिए महात्मा गांधी के सामने रखा था प्रस्ताव*

         लाहौर षड्यंत्र केस में गिरफ्तारी के पश्चात भगत सिंह के मुकदमे की पैरवी के लिए फंड जुटाने से लेकर चंद्रशेखर आजाद की सलाह पर भगत सिंह और उनके साथियों को छुड़ाने के लिए गांधी-इरविन समझौते में भगत सिंह की फांसी को कारावास में बदलने की शर्त लेकर सुशीला दीदी महात्मा गांधी से मिलने तक गईं, किंतु गांधी ने इस शर्त को समझौते में रखने से साफ इन्कार कर दिया था।

👩‍❤️‍👨 *क्रांतिकारी साथी से ही किया विवाह*

        सुशीला दीदी को वर्ष 1932 में क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने के कारण गिरफ्तार कर लिया गया। हालांकि छह माह के कारावास के बाद इन्हें छोड़ दिया गया। वर्ष 1933 में सुशीला दीदी ने क्रांतिकारी साथी रहे दिल्ली के श्याम मोहन से विवाह कर लिया। शादी के बाद सुशीला दीदी ने गरीब और असहाय स्त्रियों की सहायता के लिए दिल्ली में महिला शिल्प विद्यालय की स्थापना की।


🪔 *स्वाधीनता के बाद दुनिया को कहा अलविदा*

देश की आजादी में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाली वीरांगना सुशीला दीदी स्वाधीनता के पश्चात आर्थिक अभाव व खराब स्वास्थ्य के चलते 13 जनवरी, 1963 को इस दुनिया से अलविदा कह गईं। उनकी मृत्यु पर क्रांतिकारी वैशंपायन ने कहा था- दीदी! तुम्हें शत-शत नमन! तुम्हारी पहचान अभी नहीं हुई, पर बाद में जरूर होगी।


हालांकि यह देश का दुर्भाग्य रहा कि हम सुशीला दीदी जैसी सैकड़ों वीरांगनाओं का स्वाधीनता में योगदान तो छोडि़ए, उनका नाम तक विस्मृत कर चुके हैं।        

          🇮🇳 *जयहिंद*🇮🇳



महेंद्रसिंग धोनी..

 महेंद्रसिंग धोनी (जन्म: ७ जुलै १९८१, रांची, झारखंड) हे भारतीय क्रिकेट संघाचे माजी कर्णधार आहेत. त्यांना जगातील सर्वोत्कृष्ट कर्णधारांपैकी एक मानले जाते.

महेंद्रसिंग धोनी यांच्याबद्दलची माहिती:

 * पूर्ण नाव: महेंद्रसिंग पानसिंग धोनी

 * जन्म: ७ जुलै १९८१

 * जन्म ठिकाण: रांची, झारखंड, भारत

 * पत्नी: साक्षी धोनी

 * मुलगी: झिवा धोनी

 * पद: माजी भारतीय क्रिकेट कर्णधार

 * खेळण्याची शैली: उजव्या हाताचा फलंदाज आणि यष्टिरक्षक

महेंद्रसिंग धोनी यांचे क्रिकेटमधील विक्रम:

 * धोनी हा एकमेव कर्णधार आहे ज्याने आयसीसीच्या तिन्ही मोठ्या स्पर्धा जिंकल्या आहेत:

   * २००७ टी-२० विश्वचषक

   * २०११ एकदिवसीय विश्वचषक

   * २०१३ चॅम्पियन्स ट्रॉफी

 * एकदिवसीय क्रिकेटमध्ये सर्वाधिक वेळा नाबाद राहण्याचा विक्रम.

 * एकदिवसीय क्रिकेटमध्ये 100 पेक्षा जास्त स्टंपिंग करणारे ते एकमेव यष्टिरक्षक आहेत.

धोनीचे महत्त्वाचे रेकॉर्ड:

 * त्याने आपल्या नेतृत्वाखाली भारताला २७ कसोटीत विजय मिळवून दिला.

 * त्याने कर्णधार म्हणून सर्वाधिक (३३१) आंतरराष्ट्रीय सामने खेळण्याचा विक्रम आपल्या नावावर केला आहे.

 * एकदिवसीय क्रिकेटमध्ये सर्वाधिक षटकार मारणाऱ्या भारतीय फलंदाजांमध्ये तो दुसऱ्या क्रमांकावर आहे.

धोनीची कारकीर्द:

 * धोनीने २००४ मध्ये आंतरराष्ट्रीय क्रिकेटमध्ये पदार्पण केले.

 * २०१४ मध्ये त्यांनी कसोटी क्रिकेटमधून निवृत्ती घेतली.

 * १५ ऑगस्ट २०२० रोजी त्यांनी आंतरराष्ट्रीय क्रिकेटमधून निवृत्ती घेतली.

 * इंडियन प्रीमियर लीगमध्ये (आयपीएल) तो चेन्नई सुपर किंग्ज (सीएसके) संघाचा कर्णधार आहे.

महेंद्रसिंग धोनी यांना मिळालेले पुरस्कार:

 * राजीव गांधी खेलरत्न पुरस्कार (२००७)

 * पद्मश्री (२००९)

 * पद्मभूषण (२०१८)

महेंद्रसिंग धोनी हे भारतीय क्रिकेटमधील एक महान खेळाडू आणि कर्णधार म्हणून ओळखले जातात.


सचिन तेंडुलकर...

 सचिन तेंडुलकर हे भारतीय क्रिकेटच्या इतिहासातील एक महान खेळाडू आहेत. त्यांना 'क्रिकेटचा देव' म्हणूनही ओळखले जाते. त्यांची कारकीर्द 24 वर्षांपेक्षा जास्त काळ चालली आणि त्यांनी अनेक विक्रम प्रस्थापित केले.

सचिन तेंडुलकर यांच्याबद्दलची माहिती:

 * पूर्ण नाव: सचिन रमेश तेंडुलकर

 * जन्म: 24 एप्रिल 1973, मुंबई

 * खेळण्याची शैली: उजव्या हाताचा फलंदाज

 * प्रमुख संघ: भारत

 * कारकीर्द: 1989-2013

सचिन तेंडुलकर यांचे काही महत्त्वाचे विक्रम:

 * आंतरराष्ट्रीय क्रिकेटमध्ये 100 शतके झळकावणारे ते एकमेव खेळाडू आहेत.

 * ते कसोटी आणि एकदिवसीय क्रिकेटमध्ये सर्वाधिक धावा करणारे खेळाडू आहेत.

 * त्यांनी कसोटी क्रिकेटमध्ये 15,921 धावा आणि एकदिवसीय क्रिकेटमध्ये 18,426 धावा केल्या आहेत.

 * ते कसोटी आणि एकदिवसीय क्रिकेटमध्ये सर्वाधिक सामने खेळणारे खेळाडू आहेत.

 * त्यांनी कसोटी क्रिकेटमध्ये 51 शतके आणि एकदिवसीय क्रिकेटमध्ये 49 शतके झळकावली आहेत.

सचिन तेंडुलकर यांची कारकीर्द:

सचिन तेंडुलकर यांनी 16 वर्षांच्या वयात आंतरराष्ट्रीय क्रिकेटमध्ये पदार्पण केले. त्यांनी 1989 मध्ये पाकिस्तानविरुद्ध कसोटी सामन्यात पदार्पण केले. सचिन तेंडुलकर यांनी आपल्या कारकिर्दीत अनेक महत्त्वाच्या सामन्यांमध्ये भारताला विजय मिळवून दिला. 2011 मध्ये, त्यांनी भारतीय संघाला एकदिवसीय विश्वचषक जिंकून देण्यात महत्त्वाची भूमिका बजावली.

सचिन तेंडुलकर यांना मिळालेले पुरस्कार:

 * अर्जुन पुरस्कार (1994)

 * राजीव गांधी खेलरत्न पुरस्कार (1997-98)

 * पद्मश्री (1999)

 * पद्मविभूषण (2008)

 * भारतरत्न (2014)

सचिन तेंडुलकर हे केवळ एक महान क्रिकेटपटूच नाहीत, तर ते एक आदर्श व्यक्ती देखील आहेत. त्यांनी आपल्या खेळाने आणि व्यक्तिमत्त्वाने जगभरातील कोट्यवधी लोकांना प्रेरणा दिली आहे.